Wednesday, October 30, 2013

रोटी ----- रघुवीर सहाय

 रोटी  

मनुष्य के कल्याण के लिए


पहले उसे इतना भूखा रखो कि वह और कुछ

सोच न पाए


फिर उसे कहो कि तुम्हारी पहली जरूरत रोटी है


जिसके लिए वह गुलाम होना भी मंजूर करेगा


फिर तो उसे यह बताना रह जाएगा कि


पनों की गुलामी विदेशियों की गुलामी से बेहतर है

और विदेशियों की गुलामी वे अपने करते हों


जिनकी गुलामी तुम करते हो तो वह भी क्या बुरी है


तुम्हें रोटी तो मिल रही है एक जून।

----------- रघुवीर सहाय

आग की भीख

आग की भीख

धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है
मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है
दाता पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे
प्यारे स्वदेश के हित अँगार माँगता हूँ
चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ
बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है
मँझदार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा
तमवेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ
ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ
आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है
बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ डेर हो रहा है
है रो रही जवानी, अँधेर हो रहा है
निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है
पंचास्यनाद भीषण, विकराल माँगता हूँ
जड़ताविनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ
मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही है
अरमान आरजू की लाशें निकल रही हैं
भीगी खुशी पलों में रातें गुज़ारते हैं
सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं
इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ
विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ
आँसू भरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे
मेरे शमशान में आ श्रंगी जरा बजा दे
फिर एक तीर सीनों के आरपार कर दे
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नई दे
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ
बेचैन जिन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ
ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे
जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे
हम दे चुके लहु हैं, तू देवता विभा दे
अपने अनलविशिख से आकाश जगमगा दे
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ
तेरी दया विपद् में भगवान माँगता हूँ

---------- रामधारी सिंह दिनकर

माध्यम

माध्यम

मैं माध्यम हूँ, मौलिक विचार नहीं,
कनफ़्युशियस ने कहा ।

तो मौलिक विचार कहाँ मिलते हैं,
खिले हुए फूल ही
नए वृन्तों पर
दुबारा खिलते हैं ।

आकाश पूरी तरह
छाना जा चुका है,
जो कुछ जानने योग्य था,
पहले ही जाना जा चुका है ।

जिन प्रश्नों के उत्तर पहले नहीं मिले,
उनका मिलना आज भी मुहाल है ।

चिंतकों का यह हाल है
कि वे पुराने प्रश्नों को
नए ढंग से सजाते हैं
और उन्हें ही उत्तर समझकर
भीतर से फूल जाते हैं ।
मगर यह उत्तर नहीं,
प्रश्नों का हाहाकार है ।
जो सत्य पहले अगोचर था,
वह आज भी तर्कों के पार है ।

------- रामधारी सिंह "दिनकर"

अँजुरी भर शब्द



अँजुरी भर शब्द



मेरे पास कुछ नहीं है
अँजुरी भर शब्दों के अलावा कुछ भी नहीं
धन न अस्त्र-शस्त्र पर लड़ूँगा
यकीन रखना जीतूँगा भी

वे जब करेंगे वार
अपने अस्त्र-शस्त्र से / धन से
मैं अँजुरी भर शब्दों को फेंकूँगा उनकी ओर
उनकी बौखलाहट बढ़ेगी
और देखते ही देखते उजड़ जायेगी
धन और अस्त्र-शस्त्रों से सजी दुनिया
और मेरे शब्द लौट आयेंगे
उन्हें घायल करने के बाद

नहीं रहूँगा चुपचाप
उनके आतंक से डरे लोगों को बटोरूँगा
शब्दों से सिहरन पैदा करूँगा और ताकत

बटोरता रहूँगा शब्द
अच्छे अच्छे शब्द बटोरूँगा
तब ढेर सारे अच्छे शब्द
बन जायेंगे सृष्टि के मंत्र।

--------- हरे प्रकाश उपाध्याय

Tuesday, October 1, 2013

हरिशंकर परसाई

सुधार 

हरिशंकर परसाई 


एक जनहित की संस्‍था में कुछ सदस्‍यों ने आवाज उठाई,
 'संस्‍था का काम असंतोषजनक चल रहा है।
 इसमें बहुत सुधार होना चाहिए। संस्‍था बरबाद हो रही है।
 इसे डूबने से बचाना चाहिए।
 इसको या तो सुधारना चाहिए या भंग कर देना चाहिए।
संस्‍था के अध्‍यक्ष ने पूछा कि किन-किन सदस्‍यों को असंतोष है।
दस सदस्‍यों ने असंतोष व्‍यक्‍त किया।
अध्‍यक्ष ने कहा,
 'हमें सब लोगों का सहयोग चाहिए।
 सबको संतोष हो, इसी तरह हम काम करना चाहते हैं।
 आप दस सज्‍जन क्‍या सुधार चाहते हैं, कृपा कर बतलावें।'

और उन दस सदस्‍यों ने आपस में विचार कर जो सुधार सुझाए,
 वे ये थे -
'संस्‍था में चार सभापति,
 तीन उप-सभापति
 और तीन मंत्री और होने चाहिए...'
दस सदस्‍यों को संस्‍था के काम से बड़ा असंतोष था।