गिजुभाई
का
दिवास्वप्न-
‘दिवास्वप्न’ बालशिक्षा के मुक्त और मौलिक स्वरूप
का चित्रण करने वाली एक अनूठी कृति है। 12 मार्च 1931 के दिन इसका प्रथम गुजराती संस्करण प्रकाशित हुआ। दिसम्बर 1934 में इसका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हुआ जिसके अनुवादकर्ता प्रख्यात शिक्षाविद् काशीनाथ त्रिवेदी जी थे। शिक्षाविद् श्री हरिभाई त्रिवेदी ने ‘दिवास्वप्न’ के संदर्भ में लिखा है- ‘‘दिवास्वप्न क्या है? कल की प्राथमिक शिक्षा की एक स्वल्प सी समालोचना है, और भविष्य की नवीन प्राथमिक पाठशाला के मनोहर और स्पष्ट रूप की एक सुन्दर झाँकी है।’’ प्रख्यात शिक्षाविद् रमेश दवे ने ‘दिवास्वप्न’ के विषय में कहा है- ‘‘दिवास्वप्न गिजुभाई की गीता है।’’ प्राथमिक शालाओं में बालकेन्द्रित और सामूहिक भागीदारी, अन्तः क्रिया और स्वशिक्षण की यह प्रथम नवाचार पुस्तक है। इसमें विविध शैक्षिक प्रयोग किए गए है। गिजुभाई ने माण्टेसरी पद्धति का जो भारतीय प्रादर्श बालमन्दिर में अपनाया था, उसका विस्तार मास्टर लक्ष्मीशंकर नामक एक काल्पनिक शिक्षक के माध्यम से प्राथमिक शाला में किया। प्राथमिक शाला भी आज की सरकारी, शालाओं जैसी अभावग्रस्त, आकर्षणहीन और शिक्षकों की उपेक्षा की शिकार या परम्परा की जड़ता से जकड़ी हुई उदासीन, निष्क्रिय, निष्प्राण और आनन्दविहीन। गिजुभाई ने यह देखकर अपना प्रथम हस्तक्षेप इसी शाला में किया।
महाशय लक्ष्मीशंकर जो कि ‘दिवास्वप्न’ की शैक्षिक क्रांतिकथा के नायक है, जब शिक्षा विभाग के अधिकारी महोदय से अनुमति प्राप्त करके अपने विचारों के मुताबिक नया शैक्षिक प्रयोग करने के लिए किसी विद्यालय की चैथी कक्षा को पढ़ाना शुरू करते है; तो वे वर्तमान शिक्षा के विभिन्न दोषों से सहज ही टकराते हैं और उन दोषों को दूर करने का अपने ढंग से प्रपत्न भी करते हैं जिसमें उनको काफी हद तक सफलता मिलती है। इस हेतु उनको अन्त में सराहना तथा प्रशंसा भी प्राप्त होती है।
गिजुभाई के ‘दिवास्वप्न’ के नायक लक्ष्मीशंकर शिक्षा में व्याप्त दोषांे का सफलतापूर्वक सामना करते हैं। गिजुभाई ने अध्यापक लक्ष्मीशंकर को एक कल्पनाशील, प्रयोगधर्मी, जीवंत और स्पंदन युक्त नायक की तरह रचा और शिक्षा को अध्यापकीय आंतक से मुक्तकर उसे बालरंजन की आकर्षक और रूचिवान ऐसी प्रक्रिया बनाया, जिसमें स्कूल एक मनोरंजनालय बन गया और शिक्षा मनोरंजन हो गई।
‘दिवास्वप्न’ हमें बताता है कि हम भाषा, भूगोल, इतिहास, विज्ञान और गणित आदि सभी विषयों को किस प्राकर मनोरंजक बना सकते हैं। गिजुभाई के लक्ष्मीशंकर के पास व्याकरण जैसा विषय भी आकर खेलने लगता है और बालक की भाषा कभी नदी किनारे नाटक खेलती है, तो कभी बगीचों में काव्यपाठ करती है। जिस समय लक्ष्मीशंकर अपने प्रयोगों का जादूघर लेकर स्कूल पहूँचा था, तब शिक्षकों ने उनका उसी प्रकार मजाक उड़ाया था जिस प्रकार आज कई शिक्षक नये प्रयोगों को पागलपन की तरह देखते हैं। हेडमास्टर ने वैसे ही संदेह जाहिर किये थे जैसे कि आज के पाठ्यक्रम और परीक्षा से बंधे शाला-प्रमुख करते हैं, और अंग्रेज डाइरेक्टर को शायद वैसे ही शक रहे होंगे जैसे नवाचारों के प्रति प्रशासकों के होते हैं, मगर गिजुभाई के लक्ष्मीशंकर ने हर चुनौती को स्वीकार किया और शिक्षा, शिक्षक एवं बालक के प्रति सदियों से चली आ रही जड़ मान्यता को बदलकर रख दिया। ‘पलाश’ पत्रिका के सम्पादकीय में दिवास्वप्न के सन्दर्भ में कहा गया है- ‘‘पंचतन्त्र के विष्णुशर्मा ने जिस विधा को अपनाकर बिगडै़ल राजकुमार का चरित्र बदल दिया था, उसी तरह अध्यापक लक्ष्मीशंकर के रूप में दूसरा विष्णुशर्मा रचकर शिक्षा के जरिये आने वाली पीढ़ियों को बदलने का नया, आनन्दमय और गतिमय अभियान गिजुभाई ने दिया। गिजुभाई का ‘दिवास्वप्न’ आज के हर अध्यापक की बाइबिल हो, ट्रेनिंग संस्थाओं में तो वह एक पाठ्यपुस्तक की जगह ले और जब एक शिक्षक उसे आत्मसात करेगा, तो मुझे पूरा विश्वास है कि शैक्षिक जड़ता का कवच टूटेगा, शिक्षा में नवगति, नव-ताल-छंद-नव का मधुर संगीत सार्थक बन कर गूँजेगा।’’ गुजरात विद्यापीठ शिक्षण महाविद्यालय के तत्कालीन प्राचार्य श्री पुरूषोत्तम भाई पटेल ने ‘दिवास्वप्न’ के शैक्षिक महत्व की ओर इंगित करते हुए कहा है- ‘‘गिजुभाई ने कुछ और न किया होता, मात्र यह ‘दिवास्वप्न’ पुस्तक ही लिखी होती तब भी वे अमर हो जाते ।’’ ‘दिवास्वप्न’ अगर आज हर शिक्षक का स्वप्न हो जाए तो एक ऐसी नई पीढ़ी का निर्माण होगा जो कि स्वप्नदर्शी, कल्पनाशील, परिश्रमी, स्वावलम्बी तथा वास्तव में स्वाधीन होगी।
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