Saturday, November 17, 2012

गिजुभाई की दृष्टि में स्त्री शिक्षा

गिजुभाई की दृष्टि में स्त्री शिक्षा

                                           
                                                          
                प्रत्येक विकसित समाज के निर्माण में स्त्री एवं पुरूष दोनों की सहभागिता आवश्यक है। भावी पीढ़ी के रूप में व्यक्ति से लेकर परिवार, समाज तथा राष्ट्र तक के चहुँमुखी विकास की जिम्मेदारी में पुरुषों के साथ स्त्रियों की अपेक्षाकृत अधिक भागीदारी है। इस भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए ही परिवार की धुरी, महिला का सशक्तीकरण जरूरी है और सशक्तीकरण के लिए शिक्षा। शिक्षा आर्थिक और सामाजिक सशक्तीकरण के लिए पहला और मूलभूत साधन है। शिक्षा ही वह उपकरण है जिससे महिला समाज में अपनी सशक्त, समान व उपयोगी भूमिका दर्ज करा सकती है। इस संदर्भ में राधाकृष्णन आयोग ने कहा है- ‘‘ स्त्रियों के शिक्षित हुए बिना किसी समाज के लोग शिक्षित नहीं हो सकते। यदि सामान्य शिक्षा स्त्रियों या पुरूषों मे से किसी एक को देने की विवशता हो, तो यह अवसर स्त्रियों को ही दिया जाना चाहिए, क्योकि ऐसा होने पर निश्चित रूप से वह शिक्षा उनके द्वारा अगली पीढ़ी तक पहुँँच जाएगी।’’ महिला शिक्षा के प्राचीन इतिहास पर दृष्टि डालें तो पायेंगे कि वैदिक काल में नारी को शिक्षा देने का प्रावधान था। वे वेदपाठी होती थी; यज्ञ कर्मकाण्ड में भाग लेती थीं। मुगलों के आक्रमण के बाद महिलाओं को शिक्षा देना प्रायः बन्द सा कर दिया गया। पर्दा प्रथा, बालविवाह आदि सामाजिक कुरीतियों को महिला की गरिमा की रक्षा के लिए अपनाने की बात की गई। अग्रेजों के शासनकाल में गंाधीजी, राजाराम मोहन राय, अरविन्द घोष, रवीन्द्र नाथ टैगौर, गिजुभाई आदि ने राष्ट्रीय शिक्षा के प्रचार-प्रसार में बहुमूल्य योगदान दिया जिन के पीछे सर्वमान्य भावना बस यह थी कि शिक्षा की प्रक्रिया से स्वाधीन भारत के लिए, स्वाधीनता के लिए सुपात्र मानव तैयार हों। जिससे शिक्षा के विकास के साथ-साथ स्त्री शिक्षा का भी मार्ग प्रशस्त हुआ।   
           गिजु भाई स्त्री शिक्षा के महत्व से पूर्णतया परिचित थे। उनका मानना था कि बच्चों को अच्छे संस्कार देकर, उन्हें शिक्षित करके, अच्छा मनुष्य बनाना एक स्त्री का ही दायित्व है। जिसे पढ़ी लिखी स्त्री या माँ ही अच्छी तरह निभा सकती है। भावी पीढ़ी के रूप में बालक से लेकर परिवार, समाज, तथा राष्ट्र तक के विकास में स्त्रियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इस भूमिका का निर्वाह करने के लिए परिवार की धुरी महिला का शिक्षित होना अति आवश्यक है। गिजु भाई के समय में स्त्री शिक्षा की स्थिति अत्यधिक दयनीय थी। समाज में व्याप्त लिंग भेद के कारण अधिकांश स्त्रियाॅ या तो शिक्षा से वंचित रह जाती थी, या आधी अधूरी शिक्षा प्राप्त करती थी। शिक्षा प्राप्त करने वाली लड़कियांे को बाल विवाह जैसी सामाजिक रूढ़ियो से भी जूझना पड़ता था, उन्हे अपनी रूचि के अनुसार विषय चयनित करने का अधिकार नहीं था। उन्हे घर-गृहस्थी में काम आने वाले विषय पढ़ने पर जोर दिया जाता था। इसके अतिरिक्त उन पर तमाम बन्दिशें लगाई जाती थी, कठोर नियन्त्रण रखा जाता था जिससे बालिकाओं की प्राकृतिक शक्तियों का उचित विकास नहीं हो पाता था। गिजु भाई ने बालिका शिक्षा की तत्कालीन स्थिति को देखा, महसूस किया और इस पक्षपात पूर्ण नीति का विरोध किया। गिजु भाई ने देखा कि तत्कालीन समाज में बालिकाओं की शिक्षा पर उचित ध्यान नहीं दिया जा रहा है। कन्या को पराये घर की सम्पत्ति समझकर उसके साथ भेद भाव रखा जाता है। न तो उसे शिक्षा पाने का पूरा अधिकार है और न समाज के बीच मुह खोलने का। लड़की बड़ी होने पर ब्याह कर ससुराल जायेगी, फिर उसे बालक की तरह पढ़ने तथा समाज में बालकों के समान अधिकार क्यों मिले ? गिजु भाई ने बालिकाओं को समान अधिकार दिलानें के लिए वकालत की और कहा- ‘‘बालिका पहले मनुष्य है, बाद में लड़की। जीवन पहले है, शादी बाद में। इस दृष्टि से उसको शिक्षा का विचार होना चाहिए ।
             गिजुभाई बालक और बालिकाओं में कोई भेद नहीं मानते थे। बालिका को घर का काम करना पड़े, वह घर में पिसती रहे, बच्चों को खिलाए, रसोई में रोटी बनाने का काम करे और उसे शिक्षा ग्रहण करने के अधिकार से वंचित कर दिया जाए, समाज की इस पक्षपातपूर्ण नीति के साथ वह कभी नहीं रहे। गिजुभाई के बालमंदिर में बालक और बालिकाओं को बिना किसी भेदभाव के शिक्षा प्राप्त करने का अवसर प्रदान किया जाता था। उनमें प्रवेश, विषयों के चयन में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता था। इस संदर्भ में गिजुभाई ने लिखा है- ‘‘हमारे लिए लड़के लड़की दोनों समान है। यहाँ जो जिस काम के योग्य होगा, वह काम सीखेगा।’’  गिजु भाई बालक-बालिकाओं में शिक्षण विषयों के चयन में भेदभाव करने के विरूद्ध थे। वे इस विचार के अमान्य करते हैं कि बालिकाएं कुछ ही विषयों में योग्य बन सक्ती हैं, और बालक कुछ खास ही विषयों में योग्य बन सकते हैं। संगीत और चित्रकला आदि विषय केवल बालिकाओं के लिए ही हैं। गणित का विषय बालिकाओं के लिए उपयोगी नहीं है, उसे केवल बालको को पढ़ना चाहिए। वे बालक बालिकाओं पर किसी भी विषय को जबरन थोपना नहीं चाहते, वरन् बालक-बालिका अपनी रूचि के अनुसार विषयों का चयन करें। ऐसी उनकी मान्यता है। उनका विचार है कि विषय चयन करने में हमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। इस लिए वे कहते हैं - ‘‘यह तो जुल्म जैसी ही बात है। कि अमुक विषयों में लड़के ही तैयार हों और अमुक विषय लड़कियों को आना ही चाहिए। हम तो एक ही बात मानते हैं। लड़की युद्ध में वीरता दिखाए, और लड़का रसोई बनाने में प्रवीणता का परिचय दे, तो हम इसमें बाधक नहीं बनेंगें। क्या संगीत और चित्रकला के साथ लड़कों की कोई शत्रुता हो सक्ती है? क्या ये विषय मनुष्य जीवन की उत्तमता और सुन्दरता को सिद्ध करने के लिए उत्तम से उत्तम साधन नहीं है? जब से हमने संगीत और चित्रकला के साथ शत्रुता शुरू की है, तभी से हम सब व्यवहार-चतुर बनिए ही बनकर रह गए हैं। क्या हमने कभी सोंचा भी है कि उसी समय से हमारा जीवन कितना क्षुद्र और अरसिक बन गया है? और, क्या गणित का विषय लड़कियों के लिए उपयोगी नहीं है? जिन-जिन विषयों का सम्बन्ध जीवन से है, वे सारे विषय बालक को प्रिय होते हैं। इस मामले में लड़के और लड़की के बीच में कोई भेद रहना ही नहीं चाहिए।”
              गिजु भाई की दृष्टि में, माता-पिता चित्रकला संगीत आदि विषयों को लड़कियों के विषय मानकर अपने लड़को को अन्य विषय का शिक्षण देने की बात करके उनकी रूचि की उपेक्षा कर रह हैं। कुछ अभिभावक कहते हैं कि बालमन्दिर में हमारे लड़के से चरखा चलवा कर आप उसको लड़की क्यों बना रहे हैं। कुछ मात-पिताओं की शिकायत है कि लड़कों को पेड़ों पर चढ़ाकर और युद्ध का शिक्षण देकर क्या फायदा होगा? कुछ का कहना है कि साफ-सफाई का काम औरतों का है। गिजु भाई का मानना है कि लड़के व लड़की दोनों को कला सम्बन्धी विषयों का अध्ययन कराना चाहिए क्योकि ये विषय हमें मानवतावादी बनाते हैं। गिजु भाई इन अभिभावकों की शिकायतों उत्तर देते हुए कहते हैं - ‘‘ कला लड़की के लिए ही सुरक्षित रहेगी, तो लड़के को आत्महत्या कर लेनी होगी। कला विहीन प्राणी विना पत्तों वाले पेड़ के समान होते हैं। जो सफाई के या झाड़ने-बुहारने के काम को औरतों का काम मानते हैं, वे तो नामर्द हैं। मर्द तो तलवार और झाड़ू को समान मानते हैं। सच्ची स्त्री तो झाड़ू को एक और रख कर तलवार बांधेगी और मैदान में उतरेगी। एक हथियार एक प्रकार का कचरा साफ करने के लिए है, और दूसरा हथियार दूसरे प्रकार के कचरे की सफाई  के लिए है। यदि लड़कियाॅ युद्ध के मैदान में नहीं उतरेंगी, तो चाॅदबीबी या झांसी की रानी लक्ष्मीबाई हमको कैसे मिलेगी ?‘‘
         गिजु भाई के अनुसार, स्त्रियों को स्वाधीनता देकर ही उनके व्यक्तित्व का समग्र विकास किया जा सकता है और उनको शिक्षा प्रदान की जा सकती है। उनका बिचार था कि बच्चों की शिक्षा भी स्त्री की स्वाधीनता में ही निहित है इसलिए जब तक स्त्री स्वाधीन नहीं होगी, बच्चे भी माँ, पिता, नौकर-चाकर पर निर्भर रहेंगे और उनमें स्वाधीनता की भावना नहीं आएगी। आज स्त्री की क्षमता, उसका प्राकृतिक बल, उसकी प्रवृत्ति सब कुछ स्त्रीत्व के धर्म के नाम पर घरों की बेड़ियों में जकड़ दिया जाता है। जिससे उसका अपना कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं रह जाता है। वह अपनी निपुणता, कुशलता और आत्म निर्णय की ताकत सब कुछ भूल जाती है और नियन्त्रण और निर्देशन में जीना उसकी नियमित बन जाती है। गिजु भाई इस संदर्भ में लिखते हैं- ‘‘ पूर्वी देशों की महिलाओं को फकत आभूषण की तरह घर में बैठे रहना और स्त्रीत्व धर्म का पालन करना सिखाया जाता है, इससे स्पष्ट पता लगता है कि पुरूष समस्त काम खुद अकेले करना चाहता है। वह अपना काम भी करता है और स्त्री का काम भी करता है। इसका परिणाम अनिष्टकारी होता है। स्त्री का प्राकृतिक बल और उसकी प्रवृत्ति करने की शक्ति गुलामी की बेड़ी में जकड़कर सड़ जाती है। स्त्री का भरण-पोषण किया जाता है और उसकी ताबेदारी उठाई जाती है। यही नहीं, ऐसा करके उसे मानव के रुप में जो व्यक्तित्व मिला है, उसका उपहास करके उसे कमजोर बनाया जाता है। मानव के बतौर मिलने वाले उसके हकों को छीन लिया जाता है। समाज में उसका व्यक्तित्व शून्य मात्र रह जाता है। जीवन को बचाने के लिए या उसकी सुरक्षा के लिए जिन-जिन शक्तियों की जरूरत पड़ती है, उन तमाम शक्तियों का स्त्रियों को गुलाम रखकर हृास कर दिया जाता है।’’
          गिजु भाई बालिकाओं की कम उम्र में शादी हो जाने को एक सामाजिक रूढ़ि मानते हैं और उसका विरोध करते हैं। वे इसे स्त्री शिक्षा के मार्ग की एक प्रमुख बाधा मानते हैं। उनका विचार है कि विवाह से पूर्व लड़की को भावी जीवन के लिए तैयार करना आवश्यक है। उपयुक्त शिक्षा के बिना यह सम्भव नहीं है। अतः लड़की को उचित शिक्षा प्रदान करके पहले भावी जीवन के लिए तैयार करना चाहिए, उसके बाद ही उसका विवाह करना चाहिए। गिजू भाई ने महसूस किया कि समाज में बालिकाओं की प्रतिभा का हनन हो रहा है, उनके गुण एवं योग्यता को विकसित होने के लिए उपयुक्त वातावरण नहीं मिल रहा है जिससे देश को इन प्रतिभाओं से वंचित होकर अत्यधिक क्षति हो रही है। इस सन्दर्भ में गिजू भाई ने अपनी पुस्तक ‘माता-पिता से‘ में एक घटना का वर्णन किया है - गिजू भाई के बालमन्दिर में एक लड़की पढ़ती थी। उसकी चित्रकारी में रूचि थी। वह दिन भर चित्र ही बनाती रहती थी। हर चित्र में एक नई कल्पना, रंगों की नई मिलावट और रचना दृष्टिगत होती थी। स्वच्छता, सुकोमलता और सुरम्यता की छटा उसके हर चित्र में बिखरी पड़ती थी। कभी-कभी वह पढ़ना पसन्द करती थी। उसके माता-पिता ने कहा कि चित्र बना-बना कर यह क्या करेगी ? दूसरा कुछ तो सीखती नहीं है। शादी से पहले इसको कुछ घर का काम-काज भी सीखना चाहिए। उन्होने उसकी पढ़ाई छुड़वा दी। गिजू भाई को इस बात से बहुत दुख पहॅुचा। उन्होने दुखी मन से कहा - ‘‘कैसी दयनीय और भयंकर स्थिति है। हमको तो ऐसा लगा, मानो हमारा कोई प्रिय पुत्र खो गया हो। हमें अपनी छाती को तो ठिकाने रखना ही पड़ता है, पर उसके अन्दर एक धधकती-सी आग जलती रहती है। एक बार जब यह आग चारो ओर फैल जायेगी, तो यह शिक्षा के पुराने मापदण्डों, व्याह की रूढियों और माँ-बाप सहित सबको जलाकर राख कर देगी। अपने देश के भावी चित्रकारों को खोते समय हमारे मन की क्या स्थिति होगी ? क्या किसी को अन्दाज है कि इसके कारण देश का कितना जबरदस्त नुकसान हो रहा है ?’’
              गिजू भाई बालिकाओं के उचित मानसिक विकास हेतु शिक्षा को आवश्यक मानते हैं। उनका विचार था कि बालिकाओं का विवाह केवल शारीरिक विकास के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए, वरन् विवाह से पूर्व उन्हे मानसिक रूप से भी परिपक्व हो जाना चाहिए। यह परिपक्वता शिक्षा के द्वारा ही संभव है अतः विवाह से पूर्व बालिकाओं के लिए शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। इस संदर्भ में गिजू भाई ने एक लड़की के माता-पिता के प्रश्न के उत्तर देते हुए लिखा है - ‘‘ कुंक अगर बेटी की जात है, तो इसमें उसका क्या गुनाह है ? पर उसे कम उम्र में ससुराल जाना पड़ेगा, तो यह हमारा दोष होगा। बच्ची अभी जन्मी है, बड़ी हो रही है और उसे ससुराल भेजना चाहें तो हम सब अधम लोग है। ससुराल हो आएगी तो क्या हो जाएगा। बच्चे शरीर या तन से बढते है ? अगर शरीर तथा उम्र के साथ-साथ मानसिक विकास न हो तो साठ वर्ष की बुढिया भी बच्ची बनी रहेगी। जीवन विवाह के लिए नही है विवाह जीवन के लिए है। जीवन की तैयारी किए बिना कंकु शादी करके भी क्या करेगी ? और जीवन की तैयारी क्या आर्डर से तैयार होने वाली या बाजार से खरीदी जाने वाली चीज है।’’
              गिजुभाई बालिका शिक्षा का महत्व समझते थे। उनका मानना था कि एक बालिका को शिक्षा प्रदान करने का अर्थ उसका समग्र विकास तो है ही, साथ ही भावी पीढी के विकास के  मार्ग को खोलना है। क्योकि आज की बालिका ही कल की गृहणी है, माँ है। यदि वह शिक्षित हांेगी, सुसंस्कारित होगी तो आने वाली पीढिया भी शिक्षित व सुसंस्कारित हो सकेगी। गिजुभाई की मान्यता थी कि माताएं बाल विकास की धुरी है। जानकार माताएं न केवल बच्चो की सार-संभाल बेहतर ढंग से कर सकती है, बल्कि उनका बेहतर ढंग से शिक्षण भी कर सकती है। इसलिए उन्हे बाल विकास और बाल मनोविज्ञान का ज्ञान होना आवश्यक है। इसलिए गिजुभाई का विचार था कि बच्चे के उचित विकास हेतु माता-पिता की शिक्षा भी अपरिहार्य है। उन्हे बाल विकास हेतु उचित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। गिजुभाई शिक्षकों के प्रशिक्षण से भी अधिक माता-पिता के प्रशिक्षण पर बल देते थे। शायद ही किसी शिक्षा शास्त्री ने माता-पिता की शिक्षा के महत्व को इतनी गम्भीरता से लिया हो। गिजुभाई जानते थे कि मां ही शिशु की प्रथम शिक्षिका होती है। इसलिए गिजुभाई ने माताओं से कहा- ‘‘ जिस प्रकार वे शरीर शास्त्र, इतिहास, भूगोल, पाक शास्त्र  और आभूषण कला आदि का परिचय प्राप्त कर लेते है, उसी प्रकार वे बालकों के लालन-पालन की विधि का और शिक्षाशास्त्र का भी ज्ञान प्राप्त कर लें।’’
           गिजुभाई के अनुसार, माँ बनने के बाद स्त्री को अपना सम्पूर्ण समय और ऊर्जा को बालक के विकास में लगाना होता है। लेकिन
माँ  बनने से पहले स्त्री को बालकों के लालन-पालन ओर संस्कार शिक्षा का पाठ नही पढाया जाता, अतएव घर मे बच्चे के जन्म के बाद वह एकाएक खिन्न हो उठती, उसका स्वभाव बदल जाता है। फलतः बच्चे को नुकसान पहुचता है। इसलिए गिजुभाई स्त्रियों को माँ बनने से पूर्व बालक की उचित देखभाल हेतु सैद्धान्तिक ज्ञान प्राप्ति के साथ-साथ व्यावहारिक प्रशिक्षण देने पर भी बल देते है- ‘‘इस मानसशास्त्र के बाल शिक्षा संबंधी सामान्य सिद्धान्तों का ज्ञान हर एक माता-पिता को प्राप्त कर ही लेना है। इसके लिए उनको इस विषय की पुस्तकें पढ़नी चाहिए। बालकों के पालन-पोषण में लगे विद्यालयों और परिवारों में जाकर सव  कुछ देखना समझना चाहिए।’’
              गिजुभाई ने स्त्री शिक्षा के लिए केवल विचार ही प्रस्तुत नहीं किए, वरन् उनको अपने बालमंदिर व अध्यापन मंदिर के माध्यम से लागू भी किया जिसके परिणाम स्वरूप स्त्री शिक्षा का अत्यधिक विकास हुआ। अध्यापन मन्दिर में प्रशिक्षण प्राप्त शिक्षकों के माध्यम से से ये बिचार सम्पूर्ण देश में फैल गए और स्त्री शिक्षा के विकास की प्रक्रिया गतिशील हो गयी। गिजु भाई के स्त्री शिक्षा सम्बन्धी विचार न केवल मनोविज्ञान के सिद्धान्तों पर खरे उतरतें हैं, वरन् उनमें लैंगिक समानता, स्त्री स्वाधीनता, बाल विवाह निषेध, समतावाद जैसी विशेषताएं भी समाहित हैं, जिससे भारतीय समाज में स्त्रियों की शिक्षा को एक नई दिशा मिली थी। आज भारत में इन सभी बिन्दुओं पर निरन्तर बल देकर महिला सशक्तीकरण का महत्वपूर्ण कार्य किया जा रहा है जो कि गिजुभाई के विचारों की प्रासंगिकता को सिद्ध करता है। यदि इन विचारों का अनुशीलन करते हुए शिक्षा की व्यवस्था की जाए तो निश्चित रूप से महिला सशक्तीकरण के कार्य में सफलता मिलेगी और इसके माध्यम से राष्ट्र की लगभग आधी आबादी अर्थात स्त्रिया भी राष्ट्र निर्माण में अपना सहयोग कर सकेंगी। ऐसी शिक्षित, स्वाधीन, सशक्त महिलाओं के द्वारा ही भारत को एक सशक्त व विकसित देश के रूप में निर्माण कर पाना संभव हो सकेगा। 
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