Friday, April 11, 2014

नालन्दा--गौरवमयी अतीत

नालन्दा - गौरवमयी अतीत            
         
                                                  -------डॉ0 मनोज मिश्र
               
        
                   
तक्षशिला, वाराणसी, नालन्दा, विक्रमशिला, ओदन्तपुरी, वल्लभी आदि नामों के स्मरण मात्र से ही हमारी प्राचीन स्मृतियां जाग उठती हैं। हमारा मन मस्तिष्क गौरव गरिमा की गाथा से आह्लादित हो जाता है। हमारा अतीत कितना गौरवमय, कितना उज्जवल और कितना अद्भुत था, यह आज हमारे लिए हर्षातिरेक का कारण बन गया है। प्राचीन काल के इस भग्न वैभव की समाधि पर चारों दिशाएं कोटि-कोटि नमन करती है।
                नालन्दा के नाम के साथ हमारी सदियों की विद्या, सभ्यता और संस्कृति का उज्जवलतम् इतिहास जुड़ा हुआ है। नालन्दा की आभा के सामने आज का आक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज श्रीहीन सा दिखता है। नालन्दा को किसी अलंकार या विशेषण की जरुरत नहीं है। मात्र नालन्दा नाम के उच्चारण से ही भारत की अस्मिता का, उसके गौरवमयी अतीत का जीता जागता चित्र उपस्थित हो जाता है। नालन्दा भारत की आत्मा का नाम है। हमने अब तक जो कुछ भी पाया है, यह तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था की ही विरासत है।
                 नालन्दा विश्वविद्यालय वर्तमान बिहार प्रान्त के पटना नगर से लगभग 85 किमी0 दक्षिण-पूर्व दिशा में राजगीर के निकट स्थित था। प्रारम्भ में यह एक गांव था जो कि महात्मा वुद्ध के प्रिय शिष्य भिक्षु सरीपुत्त (ैंतपचनजजं) का जन्म स्थान होने के कारण बौद्ध धर्मानुयायियों के लिए विशेष महत्व रखता था। भगवान बुद्ध ने स्वयं यहां आकर अनेक उपदेश दिए थे। सम्राट अशोक ने इस स्थान के धार्मिक महत्व को ध्यान मे रखकर यहॉं एक विहार का निर्माण कराया था। अतः सम्राट अशोक को नालन्दा का संस्थापक कहा जा सकता है। कालान्तर में यह बौद्ध शिक्षा का एक महत्वपूर्ण केन्द्र बना जिसकी यशोगाथा का विस्तृत वर्णन 7 वीं शताब्दी में भारत आए चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा वृतान्त मे देखने को मिलता है। नालन्दा का शैक्षिक केन्द्र के रूप मे 5वीं शती के बाद उदय हुआ। इससे पहले नालन्दा के महत्व का कोई जिक्र नहीं मिलता है। जब 410 ई0 मे फाह््यान ने नालन्दा का भ्रमण किया तो यह एक बहुत छोटा सा अनजान गॉव था जिसका कोई शैक्षिक महत्व नहीं था। लेकिन 5 वी शती के मध्य मंे यह बौद्ध शिक्षा का एक बहुत ही महत्वपूर्ण केन्द्र बन चुका था। यह बौद्धशिक्षा का एक प्रसिद्व केन्द्र था जिसे हिन्दू गुप्त राजाओं और बौद्ध शासको (अशोक व हर्षवर्धन) दोनो का राजकीय संरक्षण प्राप्त था। इस शिक्षा केन्द्र के विकास मे कुमार गुप्त प्रथम (415ई0), तथागत गुप्त, बालिदित्य (472ई0), बुद्ध गुप्त (500ई0), तथा नरसिंह आदि गुप्त वंशीय राजाओं ने सक्रिय योगदान किया था। 
नालन्दा विश्वविद्यालय का स्वरूप निश्चित रूप से आधुनिक विश्वविद्यालयों के स्वरुप से भिन्न था। वस्तुतः यह उच्चतर शिक्षा तथा अनुसंधान मूलक ज्ञान का केंन्द्र था। उच्च शिक्षा के केंन्द्र के रुप में इसकी ख्याति सुदूर पूर्व के देशों में भी थी तथा वहॉं के ज्ञान पिपासु विद्वान एवं विद्यार्थी अनेक विघ्न बाधाओं को पार करते हुए यहॉं ज्ञानार्जन के लिए पहुॅंचते थे। नालंदा का शिक्षालय चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, बुखारा, वर्मा, श्रीलंका, जावा, सुमात्रा आदि देशों के विद्यार्थियों की उपस्थिति से गौरवान्वित था। 

शैक्षिक परिसर-     
        चीनी यात्री ह्वेनसांग के विवरण से पता चलता है कि लगभग 500 व्यापारियांे ने 10 करोड़ स्वर्ण मुद्राओं के मूल्य से भूमि क्रय करके नालन्दा के शैक्षिक परिसर के निर्माण के लिए महात्मा बुद्ध को दान दी थी।  इसके बाद अनेक राजाओं ने इस परिसर के निर्माण मे सहयोग किया जिससे इसका कुल परिसर लगभग 1 मील लम्बाई और आधा मील चौड़ाई की भूमि पर फैल गया था। पूरा परिसर एक दीवाल से घिरा हुआ था जिसमंे प्रवेश के लिए मुख्य द्वार था। इसके कंेन्द्रीय विद्यालय मे आठ बड़े-बड़े भवन थे और उसके साथ ही 300 छोटे कक्ष अध्ययन एवं अध्यापन के लिए थे। उत्तर से दक्षिण की ओर मठांे की कतार थी और उसके सामने स्तूप एवं मंदिर स्थापित थे। मंदिर मंे भगवान बुद्ध की सुंदर मूर्तियां स्थापित थी। इस विश्वविद्यालय मंे विशाल भवनों, मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्षों के अतिरिक्त सुंदर बगीचे तथा झीलंे भी थी। अत्यंत सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र मे बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का एक अदभुत नमूना था। 

छात्रावास-
यह विश्व का प्रथम आवासीय विश्वविद्यालय था, जिसमें लगभग 10,000 विद्यार्थी निवास करते थे। इसमे 1500 शिक्षक तथा 8500 छात्र थे। इनके रहने के लिए 13 मठ थे, जो दो मंजिला थे। प्रत्येक मठ के मैदान मंे कुए की व्यवस्था थी जिससे पीने के पानी की आपूर्ति की जाती थी। प्रत्येक कमरे मंे शयन के लिए दो पत्थर की चौकियंा तथा प्रत्येक मठ मे स्नान के लिए एक सरोवर था। लेकिन यहाँ की ख्ुादाई में जितने भवन प्राप्त हुए है उसमें 10,000 भिक्षुओं के रहने लायक जगह नहीं है। एक अन्य चीनी यात्री इत्ंिसंग 670 ई0 मंे नालन्दा आया था। उसके अनुसार वहॉ केवल 3000 भिक्षु रहते थे। 

पुस्तकालय-
                 नालन्दा विश्वविद्यालय में एक विशाल पुस्तकालय था। पुस्तकालय प्रांगण ’धर्मगज’ के नाम से पुकारा जाता था। पुस्तकालय तीन गगनचुंबी नौ मंजिले भवनो मंे विभक्त था। प्रत्येक भवन मे 300 कमरे थे। वे तीनो भाग रत्नोदधि, रत्नसागर और रत्नरंजक के नाम से विख्यात थे। इस पुस्तकालय मे दुर्लभ और धार्मिक पुस्तकों का बडा भण्डार था। इसमंे सभी धर्मांे की बहुमूल्य पुस्तकंे उपलब्ध थी। रत्नसागर मंे सभी धर्मांे से सम्बंधित पुस्तकंे और रत्नरंजक मे सभी कलाओं से सम्बंधित पुस्तके रखी गई थी। नालन्दा मे सभी धर्मांे एवं शास्त्रांे की शिक्षा दी जाती थी। इस बात को ध्यान मे रखकर इस सुव्यवस्थित एवं विशाल पुस्तकालय का निर्माण किया गया था। उस काल मे छापाखानांे का अविष्कार नहीं हुआ था। तब सभी ग्रंथो को हाथ से ही ताम्र पत्रांे आदि पर लिखा जाता था। पुस्तकालय मे निरंतर पाण्डुलिपियँा तैयार करने तथा अनुवाद करने का कार्य चलता रहता था। पांडुलिपियाँ दीवारो मंे वनी पत्थर की दरवाजांे मंे सजाकर रखी जाती थी तथा इन्हे धूल एवं आग से बचाने के प्रबंध किए गए थे, ताकि वे दीर्घकाल तक सुरक्षित रह सकें। पुस्तकालय की पुस्तकें जिस बिषय से सम्बंधित रहती थी, उनका प्रभार उस बिषय के शिक्षक के जिम्मे रहता था।
        इत्सिंग नामक चीनी विद्वान ने नालंदा पुस्तकालय में दस वर्षों (675-685 ई0) तक रुककर करीब चार सौ संस्कृत ग्रन्थों का संग्रह किया जिनमे करीब पॉंच लाख पद थे। 7वीं सदी में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने नालंदा बिहार मे हजारों ग्रन्थों का अवलोकन किया था। स्वदेश लौटते समय वह 22 घोड़ो पर लादकर महायान धर्मालम्बियों के 124 सूत्र और 520 खंडों में विभिन्न अन्य ग्रन्थ ले गया था।
प्रशासन -नालंदा विश्वविद्यालय में प्रशासन की उत्तम व्यवस्था थी। द्वार पण्डितों के अतिरिक्त अनेक प्रशासनिक अधिकारी थे, जिनमें धर्मकोष (कुलपति) कर्मदान (व्यवस्थापक) और पीठ स्थविर (आचार्य) प्रमुख थे। कुलपति  का निर्वाचन संघ द्वारा होता था। कुलपति की सहायता हेतु दो समितियां गठित थी। प्रथम शिक्षा समिति, द्वितीय प्रबन्ध समिति। शिक्षा समिति का कार्य प्रवेश, पाठ्यक्रम निर्धारण और शिक्षकों को कार्य देना प्रमुख था। प्रबन्ध समिति सामान्य प्रबन्ध, वित्त सम्बंधी समस्त कार्य, भवन निर्माण एवं मरम्मत, दवा, भोजन एवं वस्त्र का वितरण, छात्रावास में कक्षों का वितरण और मठों के कार्य का वितरण इसी समिति के द्वारा किया जाता था।

प्रवेश -
     नालंदा में प्रवेश के लिए प्रवेश परीक्षा की व्यवस्था थी। परीक्षा लेने का कार्य द्वार पण्डितों द्वारा किया जाता था जो उद्भट विद्वान होते थे। द्वार पण्डितों द्वारा चयनित विद्यार्थी ही इस विश्वविद्यालय में प्रवेश ले पाते थे। स्वयं ह्वेनसांग तथा इत्सिंग को इन  द्वार पण्डितों के तर्को का सामना करना पड़ा था। ह्वेनसांग ने इस संदर्भ में लिखा हैं कि यह द्वार परीक्षा इतनी कठिन होती थी कि  दस में से दो या तीन विद्यार्थी ही उत्तीर्ण हो पाते थे। इस प्रकार  यह स्पष्ट हो जाता है कि नालंदा में प्रवेश हेतु विशेषज्ञों की एक समिति बनाई गई थी जो प्रवेश के लिए योग्य उम्मीदवारों का चयन करती होगी। चूंकि नालंदा विश्वविद्यालय की प्रसिद्ध से आने वाले सभी विद्यार्थियों को प्रवेश दे पाना संभव नहीं था अतः विद्यार्थियों की अपार भीड़ से बचने के लिए यह प्रक्रिया अपनाई गई होगी। विश्वविद्यालय की गरिमा एवं उच्च स्तर को बनाए रखने के लिए कठिन प्रवेश परीक्षा का होना अत्यंत आवश्यक था। ह्वनेसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि नालंदा में प्रवेश के इच्छुक विद्यार्थी पहले तत्कालीन, नवीन एवं प्राचीन शास्त्रों का अध्ययन करते थे। इनसे उसका तात्पर्य वेदों, उपनिषदों, न्याय, हीनयान एवं महायान से सम्बन्धित सिद्धान्तों से है। 

पाठ्यक्रम 
           नालंदा का पाठ्यक्रम काफी विस्तृत था। वहां ज्ञान के उन सभी अंगो की पढ़ाई होती थी जो तत्कालीन समाज को ज्ञात थे। वहॉं ब्राम्हण, बौद्ध, धार्मिक, सामान्य सैद्धान्तिक, व्यवहारिक, विज्ञान एवं कला सब की उच्च शिक्षा का प्रबन्ध था। यह बौद्ध धर्म की महायान शाखा की शिक्षा का केन्द्र था, किन्तु हीनयान, वैदिक धर्म एवं जैन धर्म की शिक्षा का भी समुचित प्रबन्ध था। यहॉं पर सभी धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन की भी व्यवस्था थी। ह्वेनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि नालंदा के विद्यार्थी महायान तथा उसके अठ्ठारह अंगों का अध्ययन करते थे। यही नहीं वे वेद तथा अन्य शास्त्रों जैसे हेतु विद्या, शब्द विद्या, चिकित्सा विद्या, अथर्व वेद तथा सांख्य के अतिरिक्त अन्य विषयों का भी अध्ययन करते थे। अतः यह निर्विवाद है कि उपर्युक्त सभी विषयों की शिक्षा नालंदा मे दी जाती थी। स्वयं ह्वेनसांग ने यहॉं योग शास्त्र, न्याय, अनुशासन, शब्द विद्या (व्याकरण) तथा महायान के सिद्धान्तों पर आधारित कोश, विभाषा आदि की शिक्षा शीलभद्र तथा अन्य विद्वानों से प्राप्त की थी। अल्टेकर के अनुसार, नालंदा में तीन वेद, वेदांग, पुराण, समाख्य दर्शन, धर्म शास्त्र, ज्योतिष खगोल विज्ञान और चिकित्सा शास्त्र की शिक्षा की व्यवस्था थी।    
 शिक्षा का माध्यम 
                            नालंदा में शिक्षा का माध्यम पाली भाषा था। लेकिन वैदिक साहित्य का अध्ययन संस्कृत में कराया जाता था।

शिक्षण विधि       
                   नालंदा विश्वविद्यालय में प्रमुख रुप से निम्न मौखिक शिक्षण विधियों की प्रधानता थी। व्याख्यान, व्याख्या, वाद-विवाद, परिचर्चा (शास्त्रार्थ)। इन समस्त विधियों द्वारा अध्यापन कार्य करते समय शिक्षक शिष्यों को अन्तः क्रियायों का पूरा अवसर प्रदान करते थे। नालंदा में प्रतिदिन 100 व्याख्यान होते थे, जिसमें शिक्षक अपने विषय पर व्याख्यान देते थे और छात्र ध्यानपूर्वक सुनते थे। अन्त में प्रश्न पूछकर शंका का समाधान भी करते थे। छात्रों को कुछ पुस्तकें दी जाती थी जिनको पढ़कर उनकी व्याख्या करनी होती थी। इसके अतिरिक्त शास्त्रार्थ भी होते थे जिसमें छात्र वाद-विवाद द्वारा विषय को स्पष्ट करते थे। ह्वेनसांग ने नालंदा की पढ़ाई की पद्धति का भी उल्लेख किया है। उसके अनुसार नालंदा में वाद-विवाद द्वारा शिक्षा दी जाती थी। वाद-विवाद का कोई समय निर्धारित नहीं था।दिन में तथा रात को भी यह प्रक्रिया चलती रहती थी। इसमें वरिष्ठ तथा कनिष्ठ छात्र एक दूसरे की सहायता किया करते थेे।

छात्र 
      ह्वेनसांग के अनुसार इस आवासीय वियवविद्यालय में 10,000 विद्यार्थी निवास करते थे। इसमे 1510 शिक्षक तथा 8500 छात्र थे। एक अन्य चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार वहॉं केवल 3000 भिक्षु ही रहते थे। यहॉं सभी छात्रों को बौद्धधर्मानुसार नियमित एवं संयमित दिनचर्या का निर्वाह करते हुए विश्वविद्यालय में प्रतिदिन होने वाले 100 व्याख्यानो मंे से अपने लिए निर्धारित समस्त व्याख्यानो में उपस्थित होना पड़ता था। छात्रों का जीवन सात्विक एवं सादगीपूर्ण था। नालंदा विश्वविद्यालय में जावा, सुमात्रा, जापान, चीन, लंका, तिब्बत आदि देशों से छात्र अध्ययन के लिए आते थे। इसके प्रमुख छात्रों में ह्वेनसांग प्रथम चीनी यात्री था जिसने नालंदा में शिक्षा प्राप्त की थी। यहॉं उसका भारतीय नाम मोक्षदेव था। अपने भारत भ्रमण के आधार पर उसनेे अपना यात्रा संस्मरण तैयार किया जो आज केवल नालन्दा का ही नहीं अपितु तत्कालीन भारतीय इतिहास के ज्ञान का प्रमुख स्रोत है। ह््वेनसांग के वापस चीन लौटने के लगभग 30 वर्ष बाद इत्सिंग नामक चीनी यात्री ने 10 वर्षो तक (675-685 ई0) नालन्दा मे अध्ययन किया। इसके संस्मरण भारतीय इतिहास की अमूल्य निधि है। इत्सिंग ने लगभग 400 ग्रन्थो  का चीनी भाषा मंे अनुवाद किया था। इसके अलावा चीन से ही कार्मन-ह्यून चिन (प्रकाशमति), ताहो ही (श्रीदेव) फो-ताऊता माऊ (बहुदेव), ताओ-शिग (चन्द्रदेव), ता-चांग-तेग (महायान प्रदीप), ताओ लिन (शीलप्रभ), लिंग-यून (प्रज्ञादेव), ताऊ-हिंस (प्रज्ञादेव द्वितीय) आदि ने यहा अध्ययन किया था। चीनी विद्यार्थियो के अतिरिक्त आर्यवर्मा नामक कोरियाई छात्र ने 638 ई0 मे यहॉ की यात्रा की थी। ही-चिह नामक एक अन्य कोरियाई छात्र ने इत्सिंग से पूर्व यहॉ शिक्षा प्राप्त की थी तथा अपने हस्तलिखित ग्रन्थ नालन्दा महाविहार को समर्पित किए थे। इसके साथ ही तिब्बत के छात्र धर्मस्वामी ने नालन्दा के अंतिम दिनो मंे (1234-1236 ई0) मंे यहॉ की यात्रा की थी। उसने अपनी आत्मकथा मे नालन्दा प्रवास का वर्णन किया है।

शिक्षक 
         ह्वेनसांग के समय नालन्दा मे 1500 शिक्षक कार्यरत थे। ये शिक्षक अपनी विद्वता के लिए विश्व प्रसिद्व थे। जिनमे नागार्जुन, वसुबन्धु, आर्यदेव, शीलभद्र, धर्मपाल, चन्द्रपाल, गुणमति, धर्मकीर्ति, प्रभाकरमित्र, ब्रजबोधि, जिनमित्र, आर्यभट्ट आदि प्रमुख हैं। नालन्दा के आचार्यो मंे कई ने न केवल अपने ज्ञान के आलोक से लोगांे का पथ प्रदर्शित किया था, अपितु भारत की सीमा से बाहर चीन, तिब्बत, जावा, सुमात्रा आदि देशांे की यात्रा कर वहॉ की जनता को भी भारतीय सभ्यता और संस्कृति से परिचित कराया था। प्रभाकर मित्र जिन्हंे चीनी भाषा मंे मिंगयू कहा जाता ह,ै ने तांगवंश के सम्राट ताईत्सुंग के आमंत्रण पर चीन की यात्रा (627 ई0) की थी तथा अनेक बौद्ध ग्रंथो का चीनी भाषा मंे अनुवाद किया था। ब्रजवोधि दक्षिण भारतीय विद्वान थ,े जिन्होने नालंदा मंे विनयापिटक एवं माध्यमिक सिद्वान्त का अध्ययन किया था। ब्रजवोधि 720 ई0 मंे चीन गए थे। इनके साथ इनके शिष्य  आचार्य  अमोधवज्र भी चीन गए जहा उन्होने 108 ग्रंथो का चीनी भाषा मे अनुवाद किया था। इसके अलावा प्रज्ञा तथा धर्मदेव नामक नालंदा मे शिक्षा प्राप्त आचार्यो ने भी चीन की यात्रा की थी और भारतीय संस्कृति के प्रचार प्रसार मे अपना योगदान दिया था। ‘तत्वसंग्रह’ के रचयिता शांतिरक्षित नामक नालंदा के आचार्य तिब्बती शासक के अनुरोध पर तिब्बत गए थे। जहा उन्होने साम्ये विहार की स्थापना की थी। तिब्बत मे उनके शिष्य पद्यसंभव ने, जो नालंदा मे तंत्र के प्रमुख आचार्य थे, ने तिब्बत के बौद्ध धर्म के अंतर्गत एक नये संप्रदाय ‘लामावाद’ की स्थापना की। जो आज भी वहॉ का धर्म है।  

 अनुशासन 
     नालंदा मे अनुशासन पर बहुत बल दिया जाता था। ह्वेनसांग ने लिखा है कि विश्वविद्यालय के नियम और आचार बड़े कठोर थे तथा सभी भिक्षु एवं विद्यार्थी उसका पूरी तत्परता से पालन करते थे। घंटी की ध्वनि से ही शयन, जागरण, भोजन, अध्ययन, पूजन, आराधना आदि गतिविधियां संचालित होती थी। गुरूजनो के प्रति श्रद्धा तथा शिष्टाचार का बर्ताव यहॉ प्रशंसनीय था। प्रत्येक अध्ययनार्थी का जीवन स्वच्छ, त्याग एवं तपस्या का जीवन था। नालंदा के छात्र स्वयं विद्यापीठ मे शांति व्यवस्था वनाए रखने में सहयोग देते थे। ह्वेनसांग ने लिखा है कि सात शताब्दियांे से जब से विश्वविद्यालय है, ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है कि किसी ने विनयपिटक के नियम का उल्लंघन किया हो। विश्वविद्यालय मे शांति व्यवस्था कायम रखने का सवसे बड़ा कारण यह था कि यहॉ की व्यवस्था छात्रांे के हाथ में थी। भोजन एवं आवास का प्रबन्ध उनकी देखरेख में होता था। छोटे-मोटे अपराधांे के लिए दंड की व्यवस्था भी छात्रों की परिषद ही करती थी। पठन-पाठन के मामले मंे भले ही तानाशाही व्यवस्था थी किन्तु भौतिक आवश्यकताआंे के सम्बंध मे पूर्ण लोकतांत्रिक व्यवस्था थी।
आय के स्रोत - नालंदा मे शिक्षा निःशुल्क थी तथा विद्यार्थियों के भोजन, वस्त्र आदि की व्यवस्था भी विश्वविद्यालय को करनी पडती थी। अतः इसका खर्च अत्यधिक था। नालंदा का खर्च दान स्वरूप मिले 200 ग्रामों की आय संे चलता था। इसके अतिरिक्त समय-समय पर सम्पन्न श्रद्धालुओ द्वारा आर्थिक सहायता प्रदान की जाती थी। नालंदा की स्थिति एक बडे जमींदार जैसी थी, जिसके पास अपना विशाल कृषि क्षेत्र, दुग्धशाला एवं वस्त्र उधोग था। इनकी व्यवस्था के लिए अनेक कर्मचारी नियुक्ति थे। ह्वेनसांग के अनुसार नालंदा मे प्रतिदिन कई सौ पिकुल साधारण चावल, कई सौ कोटि वजन के बराबर दूध तथा घी की आपूर्ति की जाती थी। भिक्षुआंे को उनकी श्रेणी के अनुसार न्यूनाधिक सुविधाएं भी दी जाती थी। ह्वेनसांग ने लिखा है कि स्वयं उसे उच्च कोटि के लोगो जैसी सुविधायें प्राप्त थी। उसे नौकर-चाकर एंव सवारी के लिए हाथी उपलव्ध था। विश्वविद्यालय के विशाल कृषि क्षेत्र एवं दुग्धशालाओ की व्यवस्था हेतु एक अलग विभाग था, जो न केवल कृषि को उन्नत एवं  लाभप्रद वनाने के लिए सचेष्ट था। बल्कि भारत के इन दो बडे उधोगो की शिक्षा की भी व्यवस्था करता था। कृषि विज्ञान के विद्यार्थी यहॉ व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त करते थे। इत्ंिसंग ने लिखा है कि विश्वविद्यालय का बजट भिक्षुओं की सामान्य परिषद द्वारा स्वीकृत किया जाता  था जिससे किसी व्यक्ति विशेष द्वारा धोखाधड़ी की संभावना नही थी। परिषद के किसी सदस्य के गलत आचरण पर परिषद उसे निष्कासित कर सकती थी। केवल कुलपति को ही महत्वपूर्ण मामलों पर संघ के हित में स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार था। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि नालंदा विश्वविद्यालय आर्थिक दृष्टि से पूर्ण सुदृढ़ था। इसके साथ व्यय का लेखा-जोखा लोकतांत्रिक पद्वति से रखा जाता था।

धार्मिक सहिष्णुता 
नालन्दा  में विभिन्न संप्रदायों से सम्बंधित ग्रन्थों की शिक्षा दी जाती थी तथा वाद-विवाद पद्वति का प्रयोग किया जाता था। यहॉ परस्पर बिरोधी सिद्धान्तों पर चर्चा होती थी, किन्तु यह मात्र वाद-विवाद तक ही सीमित थी। विद्यार्थियों के व्यक्तिगत जीवन पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। नालंदा के कपाट सभी सिद्धान्तों को मानने वालों के लिए समान रूप से खुले थ,े सभी सिद्धान्तों के समर्थक वहॉ मिलजुलकर निवास करते थे। वैचारिक संकीर्णता का वहॉ नामों निशान नहीं था। नालंदा प्राचीन भारतीय परम्परा के अनुरूप धार्मिक सहिष्णुता का ज्वलंत उदाहरण था।
नालंदा स्थापना एक बौद्ध विहार के रूप में हुई थी, पर कालांतर में विहार की सीमा पार कर तत्कालीन समाज को ज्ञात ज्ञान की समस्त विधाओं एवं सभी धर्मों के दर्शन का यह विश्व प्रसिद्ध केन्द्र हो गया था। न केवल भारत के केाने-कोने से वरन् तत्कालीन सभ्य संसार के अधिकांश देशों के विद्यार्थी अपनी ज्ञान पिपासा की शंाति के लिए यहॉ आते थें। संसार के सभी धर्मों और सिद्धान्तों को मानने वाले योग्य विद्यार्थियों के लिए इसके द्वारा बिना भेदभाव के सदैव खुले थे। इत्सिंग के शब्दों में ‘‘नालंदा समस्त जम्मू दीप में ज्ञान का सर्वश्रेष्ठ मन्दिर था।’’

दुखद अवसान 
      नालंदा विश्वविद्यालय की आधारशिला तो ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में ही रख दी गई थी। ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में अशोक द्वारा एक शिक्षा केन्द्र के रूप में इसका शुभारम्भ किया गया था और सातवीं शताब्दी आते-आते यह अपने विकास के चरमोत्कर्ष पर पहुॅच गया था।  बारहवीं शताब्दी के अन्त तक यह अपने ज्ञान के प्रकाश से चारो दिशाओं को आलोकित करता रहा, किन्तु इसके बाद इसका अन्त बहुत ही दुखद रहा। 1205 ई0 में बख्तियार खिलजी ने नालंदा पर आक्रमण करके इस विश्वविद्यालय को क्रूरतापूर्वक नष्ट कर दिया। इसके भवनों को धराशायी कर उसमें आग लगा दी गई। पुस्तकालयों को जला दिया गया और विद्वान शिक्षकों की बेरहमी से हत्या कर दी गई। लगभग 1000 वर्ष तक अपनी आभा बिखेरने वाला शिक्षा का यह महान केन्द्र आज खण्डहरों के रूप में एक स्मृति बनकर रह गया है।
आशा की किरण
  आज नालंदा में एक अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय स्थापित किया जा रहा है। इसकी परिकल्पना सन् 1990 में जार्ज फर्नाडीज द्वारा की गई थी। लेकिन ए0पी0जे0 अब्दुल कलाम की कोशिशों के बाद इस परियोजना ने ठोस रूप ले लिया है। प्रख्यात विद्वान अमर्त्यसेन नालंदा में अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना से सम्बंधित आयोग के अध्यक्ष बनाए गए हैं। इस विश्वविद्यालय के विकास के लिए चीन, जापान, सिंगापुर, भारत, आदि देशों ने आर्थिक सहयोग देने का संकल्प लिया है। यह विश्वविद्यालय पूर्णतया आवासीय विश्वविद्यालय होगा, जिसमें विज्ञान, दर्शन, धर्मशास्त्र के पाठ्यक्रम संचालित किए जायेंगे। इस दिशा में किए गये प्रयासों के फलस्वरूप उम्मीद की एक किरण जागी है कि यह विश्वविद्यालय प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के गौरवमयी अतीत को विश्व में पुनः स्थापित करेगा और हिंसा, अशांति से ग्रस्त विश्व को धर्म, जाति के संकीर्ण बन्धनों से मुक्त कर शांति, प्रेम और अहिंसा की शिक्षा प्रदान करेगा

संदर्भ-

1-  अल्टेकर, ए0 एस0 - एजुकेशन, इन एंशियंट इण्डिया, मनोहर पंकाशन,
    वाराणसी, 1973 
2-  शील, अवनीन्द्र - भारतीय शिक्षा का विकास एवं समस्याएं, साहित्य रत्नालय, 
    कानपुर,    2008  
3-   रामचंद्रन, पद्मा और राम कुमार वसधा - एजुकेशन, इन इण्डिया, नेशनल बुक ट्रस्ट,
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11-  सिंह , कर्ण - भारत में शिक्षा प्रणाली का विकास, गोविंद प्रकाशन, लखीमपुर, 2008
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13-  अध्ययन,शोध पत्रिका, भारतीय इतिहास अध्ययन संस्थान, इलाहाबाद,
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14-  ळ्वी0 ली0 - दि लाइफ आफ ह्वेनसांग, चाइनीज बुद्धिस्ट एसोशिएशन, 
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