Friday, December 1, 2017

कविता -- श्रीकृष्ण सरल

कहो नहीं करके दिखलाओ
         
             ----  श्रीकृष्ण सरल


कहो नहीं करके दिखलाओ
उपदेशों से काम न होगा

जो उपदिष्ट वही अपनाओ
कहो नहीं, करके दिखलाओ।

अंधकार है! अंधकार है!
क्या होगा कहते रहने से,

दूर न होगा अंधकार वह
निष्क्रिय रहने से सहने से

अंधकार यदि दूर भगाना
कहो नहीं तुम दीप जलाओ

कहो नहीं, करके दिखलाओ।
यह लोकोक्ति सुनी ही होगी

स्वर्ग देखने, मरना होगा
बात तभी मानी जाएगी

स्वयं आचरण करना होगा
पहले सीखो सबक स्वयं

फिर और किसी को सबक सिखाओ।
कहो नहीं, करके दिखलाओ।

कर्म, कर्म के लिए प्रेरणा
होते हैं उपदेश निरर्थक

साधु वृत्ति से मन को माँजो
साधु वेश परिवेश निरर्थक।

दुनिया भली बनेगी पीछे
पहले खुद को भला बनाओ।

कहो नहीं, करके दिखलाओ।।
कथनी है वाचाल कहाती

करनी रहती सदा मौन है,
मौन स्वयं अभिव्यक्ति सबल है

इसे जानता नहीं कौन है।
नहीं सहारा लो कथनी का,

करनी से ही सब समझाओ।
कहो नहीं, करके दिखलाओ।।

(रचनाकार--श्रीकृष्ण सरल)

धार्मिक शिक्षा के संदर्भ में गिजुभाई की दृष्टि


      धार्मिक शिक्षा के संदर्भ में गिजुभाई की दृष्टि

                            ------डा0 मनोज मिश्र    
                                                 
                                                          
        मानव जीवन में धर्म का स्थान सदैव महत्त्वपूर्ण रहा है। धर्म एवं जीवन के प्रगाढ़ सम्बन्ध की श्रंृखला अतीतकाल से चली आ रही है। मानव जीवन को संवारने तथा सुधारने के प्रयत्न में धर्म ने उसकी शिक्षा का प्रबन्ध भी अपने हाथ में रखा और प्रारम्भ से ही बालक को धर्म के पथ पर आरुढ़ कराने में उसका नेतृत्व किया। परिणाम स्वरुप एक शिक्षा संस्था के रुप में धर्म का स्थान महत्त्वपूर्ण रहा है। प्रचीन काल में भारत में वैदिक एवं बौद्ध कालीन शिक्षा धर्म पर ही आधारित थी। धार्मिक गंथों का पठन-पाठन, धार्मिक कृत्यों का पालन तथा धार्मिक जीवन व्यतीत करना ही शिक्षा कहलाता था। मध्यकाल में धर्म का रुप संकुचित हो गया तथापि शिक्षा के साथ उसका सम्बन्ध अक्षुण्ण बना रहा। भारत में पाठशाला तथा मकतब प्रायः मंदिरांे एवम् मस्जिदों से सम्बद्ध होते थे। उन्ही के पुजारी या मौलवी इन शिक्षालयों में अध्यापकों का कार्य करते थे। अंग्रेजों के भारत आगमन के पश्चात ईसाई मिशनरियों द्वारा यहाँ अनेक शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की गई, जहाँ धार्मिक शिक्षा प्रदान की जाती थी। संभवतः आज भी शिक्षा पर धर्म का आधिपत्य बना रहता, यदि मध्यकाल में धार्मिक संकुचितता एवं धर्मान्धता ने अपनी सीमा का अतिक्रमण करके मनुष्य के शोषण का प्रयत्न न किया होता। धर्म के नाम पर हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि धर्मालम्बियों के संघर्ष, घोर अत्याचार एवं हत्याकंाड भारत क्या, संसार के सभी देशों में हुए और धर्म के नाम को कलंकित करते रहे हैं। परिणाम स्वरुप लोगों के मन में धर्म के प्रति विश्वास की सुदृढ़ दीवार हिल उठी। यूरोप में रुसों, लॉक आदि दार्शनिकों ने शिक्षा पर धर्म के आधिपत्य का घोर विरोध किया और मानव की तर्कबुद्धि पर विशेष बल दिया। भारतीय शिक्षाविद्ों ने भी धर्म व शिक्षा के सम्बन्ध पर अनेक विचार प्रस्तुत किए। गांधी जी ने धार्मिक शिक्षा के महत्व को स्वीकार किया लेकिन वे उसे मानव धर्म तथा स्वावलम्बन की नैतिक शिक्षा के रुप में देखते थे। उन्होने बुनियादी शिक्षा में धार्मिक शिक्षा को कोई स्थान नहीं दिया था। इस बारे में गांधी जी ने कहा था- ‘‘हमने वर्धा शिक्षा योजना में धार्मिक शिक्षा को इसलिए स्थान नहीं दिया है कि आजकल जिस प्रकार धर्म सिखाये और प्रयोग में लाये जाते हैं। उससे एकता के स्थान पर झगड़ा ही पैदा होता है। परंतु मेरा सुदृढ़ विचार है कि तत्व, जो सब धर्मों में समान है, प्रत्येक बालक को सिखाये जाने चाहिए।.. इन तत्वों को बालक अपने अध्यापक के दैनिक जीवन द्वारा ही सीख सकते हैं।’’  रवीन्द्र नाथ टैगोर ने भी धर्म को नैतिकता व सामाजिक जीवन का ही स्वरुप मानते हुए कहा था- ‘‘धर्म का शिक्षण पाठों के रुप में नहीं दिया जा सकता, यह तो वहाँ है, जहाँ धर्म जीवन में ही है।’’  विख्यात दार्शनिक डॉ0 राधाकृष्णन ने धर्म के बारे में लिखा था- ‘‘नये समाज में हमें नया विश्वधर्म चाहिए। इससे हमारा तात्पर्य एक समान धर्म से नहीं है अपितु ऐसे धर्म से है जो जागरुकता और श्रेय, बुद्धिमत्ता और दया, सत्य व प्रेम का धर्म है।’’  अधिकांश दार्शनिकों, शिक्षाशास्त्रियों तथा समाजशास्त्रियों ने धर्म को समाज के लिए एक आवश्यक तत्व माना है। लेकिन वे उसके परम्परागत रुप अर्थात किसी धर्म विशेष का प्रचार करने के पक्ष में नहीं है। विभिन्न दार्शनिकों ने इस भय से धार्मिक शिक्षा की आलोचना की है कि अनुपयुक्त शिक्षकों व संकुचित दृष्किोणों से प्रदान की गई एक धर्म विशेष की शिक्षा सामाजिक एकता तथा स्वतंत्र व तर्कपूर्ण चिन्तन में हानिकारक सिद्ध हो सकती है। इसलिए भारत में विश्वविद्यालय आयोग (1948), माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952), शिक्षा आयोग (1964-66), तथा राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) ने नैतिक शिक्षा के रुप में धार्मिक शिक्षा दिए जाने पर बल दिया है। गिजुभाई ने भी धर्म एवं धार्मिक शिक्षा पर महत्त्वपूर्ण विचार व्यक्त किए है जो इस प्रकार है।

 गिजुभाई एक धार्मिक व्यक्ति थे। उन्होने मॉ काशीबा से प्राप्त धार्मिक संस्कारों को अपने जीवन में आत्मसात कर लिया था। गिजुभाई धर्म के नाम पर किए जाने वाले आडम्बरांे, कर्मकाण्डों को सच्चा धर्म नहीं मानते हैं। उनके लिए धर्म वह है जो व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य प्रेम व सौहार्द्र बढ़ाता है, दीन-दुखियों की सेवा के लिए प्रोत्साहित करता है। धर्म का पालन करके अर्थात उसको अपने जीवन में समाहित करके हम इस संसार-सागर से मुक्ति प्राप्त कर कर सकते हैं। वे धर्म के स्वरुप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- ‘‘धर्म एक सत्य वस्तु है। वह मनुष्य के जीवन के लिए नौका के समान है। मनुष्य का जीवन लक्ष्य संसार-सागर से पार होना है।’’
 गिजुभाई का मानना है कि केवल पुस्तकें पढ़कर, उपदेश सुनकर या धार्मिक क्रियाओं को करकर हम धार्मिक नहीं बन सकते। इसके लिए हमे धर्म को जीवन में आत्मसात करना पड़ेगा। इसलिए गिजुभाई कहते है- ‘‘धर्म किसी पुस्तक में नहीं है, किसी उपदेश में नहीं है, और न कर्मकाण्ड की किसी जड़ता में ही है। धर्म तो मनुष्य के जीवन में है।’’  गिजुभाई के अनुसार, धर्म का तत्व मानव हृदय में विराजमान होता है। धर्म की वास्तविकताओं का ज्ञान, कर्मकाण्ड का क्रियाडम्बर, पांडित्य, हठमुक्त जप-तप आदि धर्म नहीं है, बल्कि ये धर्म के कवच मात्र हैं। वे धार्मिकता को मानवीय विकास का पर्याय मानते हैं। गिजुभाई का विचार है कि सच्ची धार्मिक भावना को विकसित करने के लिए व्यक्ति में निर्मल बुद्धि, कार्य करने की शक्ति, कल्पना शक्ति तथा प्रेम की भावना का होना अति आवश्यक है। उन्होने इस बारे में लिखा है- ‘‘निर्मल बुद्धि, क्रिया-शक्ति, कल्पना-शक्ति तथा प्रेम-इन चारों के सम्यक विकास में मनुष्य की धार्मिक वृत्ति का उदय है।’’  गिजुभाई का मानना है कि कल्पना शक्ति की सहायता से दरिद्रता की पीड़ा समझने, महात्मा जी की देश प्रेम की बातों को ग्रहण करने की एवं लोगों के दुःख-दर्द को अपना समझ कर अनुभव करने की क्षमता प्राप्त होती है। ऐसी योग्यता वाले व्यक्ति ही समर्थ कवि, महान शोधक, प्रखर राजनीतिज्ञ और अद्वितीय यौद्धा बनते हैं। धार्मिकता के अंतर्गत प्रेम तत्व का होना भी अति आवश्यक है। गिजुभाई के अनुसार, वास्तविक धर्म व्यक्तियों के मध्य प्रेम और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देता है और उन्हे विश्वशांति व मानव सेवा की ओर प्रेरित करता है। उनका मानना है कि दीन-दुखियों की सेवा करने वाले में ही सच्ची धार्मिकता के दर्शन होते हैं। इस संदर्भ में उन्होने लिखा है- ‘‘एक बड़ा राजा गरीबों की झोपड़ी-झोपड़ी तक जाकर अगर दीन-दुखियों की सेवा करता है, तो वह धार्मिक कहा जाएगा। कोई मूर्ख बाबा रास्ते जाते प्यासे राहजनों को जब अपनी आधी रोटी मंे से चौथाई उन्हे खिलाता है और अपने लोटे भर पानी में से आधा पानी पीने को देता है तो उसके हृदय में सच्ची धार्मिकता है।’’
       गिजुभाई बालकों को धार्मिक शिक्षा प्रदान करने का विरोध करते हैं। उनका मानना है कि बालक स्वयं ईश्वर का प्रतिरुप है। उसमें सच्ची धार्मिकता के गुण जन्मजात मौजूद रहते है। इसलिए उसे परम्परागत धर्म व उसकी शिक्षा से दूर रखा जाना चाहिए। वे कहते हैं- ‘‘एक शिक्षाविद् हूँ, इस वजह से मैने अपने बच्चों को परम्परागत धर्म से बचाया हैं, अर्थात अभी तक मैने उन पर धर्म अथवा धार्मिक क्रियाएँ लादी नहीं हैं। इस सम्बन्ध में वे बहुत छोटे हैं और धर्म बहुत बड़ा है अथवा यूं भी कह सकते है कि तभी तो वे इतने अधिक सच्चे धार्मिक हैं और खोटे धर्म से दूर रहने लायक हैं।’’  गिजुभाई का विचार है कि छोटे बच्चों को धार्मिक शिक्षा देने की बजाय उनके उचित शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक विकास पर ध्यान देने की जरुरत है। वे इस संदर्भ में लिखते हैं- ‘‘मेरी समझ से तो छोटे बच्चों को धर्मोपदेश न करना ही अच्छा है। उनको तो इस समय स्वस्थ शरीर, तन्दुरुस्त मन, निर्मल बुद्धि और कभी न थकने वाली क्रियाशक्ति की आवश्यकता है और आवश्यकता है, उनको हर तरह बलवान बनाने की।’’  वे बालकों के माता-पिता से भी बालकों को धार्मिक शिक्षा न देने की बात करते हुए कहते हैं-’’ बालकों को धार्मिक शिक्षा देने की बात आप अपने मन से निकाल ही दीजिए। धर्म की बात कहकर, धर्म के काम करवाकर, धर्म को रुढ़ियों की पोशाकें पहनाकर हम अपने बालकों को कभी भी धार्मिक बना नही सकेंगे।’’
         गिजुभाई विद्यालय में धार्मिक शिक्षा देने का प्रबल विरोध करते हैं। उनका मानना है कि यह शिक्षा घरों में माता-पिता के धार्मिक आचरण के द्वारा प्रदान की जानी चाहिए। विद्यालयों को धार्मिक शिक्षा प्रदान करने का साधन नहीं बनाया जाना चाहिए। उन्होने कहा था- ‘‘क्या धार्मिक शिक्षा के लिए दूसरी जगह नहीं रही कि अब वह पाठशालाओं में दी जा रही है ? पहले तो देवालयों में प्रवचन हुआ करते थे, और घरों में माता-पिता तद्नुसार अपना व्यवहार रखते थे। घर के ये आचार-विचार लड़कों के लिए धार्मिक शिक्षा का काम देते थे। लेकिन अब या तो लोगों को धार्मिक प्रवचन सुनने की फुरसत नहीं है या बड़े-बूढ़े उनको सुनकर अब इतने तृप्त हो गए हैं या और ही कुछ हुआ है कि जिससे अब यह काम पाठशाला का ही अंग बन रहा है।’’
         गिजुभाई का विचार है कि बालक के क्रमिक विकास के साथ-साथ धार्मिक भावना का भी विकास स्वतः होता जाता है। बाल्यावस्था में धार्मिक शिक्षा देने से उसके मानवीय विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। वे इस संदर्भ में कहते हैं- ‘‘मेरा तो अटल विश्वास है कि समय आने पर मनुष्य में जवानी और बुढ़ापे की तरह धर्म जिज्ञासा का भी स्वयं विकास हो जाता है। असमय के गृहस्थाश्रम की भांति असमय का यह धर्म परिचय भी मुझको असामायिक ही मालूम पड़ता है। बचपन से ही धर्म को प्रतिदिन की चर्चा का और श्लोक पाठ का विषय बना डालने से तो उलटे उसके विषयों की सच्ची जिज्ञासा ही मन्द पड़ जाती है। धार्मिक क्रियाओं का भी अपना महत्व है, पर यह आवश्यक नहीं कि उनको इतना महत्त्व दे दिया जाए कि उसके कारण मनुष्य का विकास ही रुक जाए और मनुष्य जड़वत बन जाए।’’
गिजुभाई विद्यालय में अप्रत्यक्ष रुप से धार्मिक शिक्षा देने के पक्षघर थे। उनका विचार था कि बालकों पर धार्मिक शिक्षा को जबरन थोपा नहीं जाना चाहिए। बल्कि पाठ्यक्रम में धार्मिक कहानियों को स्थान देकर बालकों मे नैतिक मूल्यों का विकास करना ही पर्याप्त है। उन्हे श्लोक रटाने या धर्मोपदेश देने की आवश्यकता नहीं है। विद्यालय में धार्मिक शिक्षा किस प्रकार प्रदान की जाए, इस बारे में गिजुभाई ने कहा है- ‘‘मै तो यह कहता हूँ कि हम धर्म को जीवन में उतारने का प्रयत्न करें। माता-पिता भी प्रयत्न करें और शिक्षक भी प्रयत्न करें। पाठ्यपुस्तक में दूसरी कथाओं के साथ धार्मिक पुरुषों और प्रसंगों की कथाएं भी दी जा सकती है। समय आने पर बालकों को दूसरी कथाओं की तरह पुराण और उपनिषद की कथाएं भी कही जा सकती है। जिस प्रकार हम ऐतिहासिक पुरुषों की कहानियां कहते हैं, उसी प्रकार बालकों को धर्मात्मा पुरुषों की कथाएं भी सुना सकते हैं। बालकों के लिए शुरु के वर्षों में इतनी तैयारी पर्याप्त है। कर्मकाण्ड, और श्लोक पाठ, धर्मशिक्षण और धार्मिक पुस्तकों के अभ्यास को हम भविष्य के लिए छोड़ सकते हैं।’’
        आधुनिक समय में धर्म शब्द संघर्षों का कारण बन चुका है। आज भारत में ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण विश्व में धर्म के नाम पर हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि विभिन्न धर्मालम्बियों के परस्पर संघर्ष, साम्प्रदायिक दंगों व हत्याओं के कारण धर्म का नाम कलंकित हुआ है। परिणामस्वरूप लोगों के मन में धर्म के प्रति विश्वास की सुदृढ़ दीवार हिल उठी। लोगो के मन में यह भावना जाग रही है कि धार्मिक शिक्षा से समय का दुरूपयोग और धन का अपव्यय होता है। हमारे मन-मस्तिष्क में धार्मिक संकीर्णता बाधा डाल रही है, इस प्रकार अन्य धर्मों के प्रति कटुता की भावना जाग्रत हो रही है। आज धर्म वैज्ञानिक प्रगति, आर्थिक संघर्ष एवं कुछ स्वार्थियों के कुचक्र तथा अन्य कतिपय कारणों से न्यूनतम प्रभाव रखने वाला हो गया है। जो धर्म कभी विश्व भर के देशों की शिक्षा संस्थाओं एवं समग्र जीवन को अनुप्रमाणित करता था, वही आज उपेक्षित है। आज धर्म को समाज का एक आवश्यक तत्व माना जाता है। लेकिन धार्मिक शिक्षा को शिक्षा मे स्थान न देने का कारण यह है कि प्रायः सभी धर्मों ने मानववाद के सही अर्थ को प्रसारित करने के स्थान पर प्रचार, धर्मपरिवर्तन, कपोल-कल्पित गाथाओं के प्रसार तथा शोषण की अनेकानेक विधियों को प्रचलित करने में ही रूचि दिखलाई है। जिसके फलस्वरूप कई प्रकार के संघर्ष, युद्ध व विनाशकारी परिणाम उत्पन्न हुए हैं। आज सभी लोग चाहते हैं कि धार्मिक शिक्षा के द्वारा पुनः उसी प्रकार के विनाश न दोहराए जाएं। इसलिए वे धार्मिक शिक्षा के तो विरोध में हैं, लेकिन यदि उसे नैतिकता व धर्म निरपेक्षता की शिक्षा के रूप में प्रदान किया जाता है तो उन्हे कोई आपत्ति नहीं है।
आज धर्म कर्मकाण्डों व वाह्य आडम्बर के रूप में देखने को मिलता है। गिजुभाई एक धार्मिक व्यक्ति थे, किन्तु धार्मिकता के प्रदर्शन एवं आडम्बर में उनका विश्वास नहीं था। उनका विचार था कि धर्म किसी पुस्तक में नहीं है, किसी उपदेश में नहीं है और कर्मकाण्ड की किसी जड़ता मे नहीं है। बल्कि धर्म मनुष्य के जीवन में है। वास्तव में धर्म मानव जीवन का पथप्रदर्शक है जो कि मानव व्यवहार को नियंत्रित करता है, उन्हे सही दिशा में कार्य करने के लिए प्रेरित करता है। मानव जीवन को धर्म से अलग नहीं किया जा सकता। केवल श्लोक पढ़ने से, उपदेश या प्रवचन सुनने से, यज्ञ-हवन, जप-माला करने से व्यक्ति धार्मिक नहीं हो जाता है। वरन् जब वह धर्म द्वारा प्रदत्त नैतिक मूल्यों का अपने जीवन में समावेश कर लेता है तभी वह सच्चा धार्मिक होता है। यदि आज समाज द्वारा गिजुभाई के विचारों का अनुशीलन कर मनुष्य में सच्ची धार्मिकता विकसित हो जाए तो इससे होने वाले झगड़े व हिंसा समाप्त हो जाएगी और परस्पर बंधुत्व की भावना जाग्रत हो जाएगी। अतः आज धार्मिक असहिष्णुता व सांप्रदायकिता से ग्रस्त विश्व को शांतिमय व समृद्ध विश्व बनाने के लिए गिजुभाई के विचार अत्यधिक प्रासंगिक हैं।

संदर्भ ---
1-     सत्यपाल रुहेला, - भारतीय शिक्षा का समाजशास्त्र, राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, 1999
2-      टैगोर थाट ऑन एजुकेशन, दि विश्वभारती क्वार्टरली, मई-अक्टूबर 1947,  
3-      गिजुभाई- दिवास्वप्न, मोंटेसरी बाल शिक्षण समिति, राजदलेसर (चुरू), 2006,  
4-      गिजुभाई- माता-पिता से, मोंटेसरी बाल शिक्षण समिति, राजदलेसर (चुरू), 2006   
5-      गिजुभाई- बालशिक्षण जैसा मै समझ पाया, मोंटेसरी बाल शिक्षण समिति, राजदलेसर (चुरू), 2006,   

6-      गिजुभाई- चलते-फिरते, मोंटेसरी बाल शिक्षण समिति, राजदलेसर (चुरू), 2006    

Thursday, March 2, 2017

वैश्वीकरण के संदर्भ में शिक्षक की स्थिति एवं उसकी भूमिका


          

 वैश्वीकरण के संदर्भ में  शिक्षक की स्थिति एवं उसकी भूमिका                         
                                                  डा0 मनोज मिश्र                                                   
     
                  राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने एक बार कहा था-‘‘ मै नहीं चाहता कि मेरा घर सब तरफ खड़ी हुई दीवारों से घिरा रहे और उसके दरवाजे और खिड़कियां बंद कर दी जाये। मैं तो यही चाहता हूँ कि मेरे घर के आसपास देश विदेश की संस्कृतियों की हवा बहती रहे।’’ महात्मा गांधी की यह उक्ति वैश्वीकरण की अवधारणा का सार प्रस्तुत करती है। वैश्वीकरण शब्द विश्व शब्द से बना है जिससे यह अर्थ निकलता है कि यह एक व्यापक अवधारणा है। वैश्वीकरण की यह अवधारणा, जिसका अर्थ है कि किसी भी विषय, घटना, समस्या या सिद्धांत को संपूर्ण विश्व के संदर्भ में देखा जाये, नई नहीं है। भारत में पुरातन काल से ही ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ का भाव स्वीकार किया गया है, पर आधुनिक युग में वैश्वीकरण शब्द की अवधारणा एक नये रूप में सामने आयी है। वर्तमान युग संचार व प्रौद्योगिकी का युग है जहां पर वैश्वीकरण अपनी पूरी सक्रियता के साथ पूरे विश्व में विस्तारित होता जा रहा है और इसी वैश्वीकरण के कारण आज पूरा विश्व एक छोटी सी दुनिया में सिमट गया है। वैश्वीकरण के कारण हम एक दूसरे के नजदीक आ गये हैं और राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, व्यापारिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक आदि सभी क्षेत्रों में हम एक दूसरे से परिचित हुए हैं। इसी परिचय की वजह से आर्थिक क्रियाओं में परस्पर निर्भरता बढ़ी है तथा अंतर्राष्ट्रीय सहयोग तथा विदेशी व्यापार को प्रोत्साहन मिला है।

 वैश्वीकरण का अर्थ-
 

                  वैश्वीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा विश्व की विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं का समन्वय किया जाता है जिससे वस्तुओं और सेवाओं, प्रौद्योगिकी, पूंजी तथा श्रम का इसके मध्य प्रवाह हो सके अर्थात राष्ट्रीय घरेलू अर्थव्यवस्थाओं का विश्व अर्थव्यवस्था का साथ जुड़ना।
 

 एल0 पी0 जी0 और भारतीय शिक्षा- 
 

            भारत में सरकार द्वारा 90 के दशक में देश को आर्थिक संकट से निकालने के लिए तथा विकास की गति तीव्र करने के लिए नीतिगत आर्थिक सुधारों को लागू किया गया। आर्थिक सुधारों की यह क्रिया आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण (एल0 पी0 जी0) व मुक्त बाजार व्यवस्था पर आधारित है। भारत में सन् 1991 में नई आर्थिक नीति की घोषणा के साथ ही वैश्वीकरण की शुरूआत की औपचारिक घोषणा हुई जबकि इसका सूत्रपात 1980 के दशक में ही हो चुका था। 1986 की नई शिक्षा नीति ने समान स्कूल प्रणाली के स्थान पर बहुआयामी शिक्षा व्यवस्था स्थापित करने की वैधानिक घोषणा कर दी थी जिसने सन् 1990 के दशक में वैश्वीकरण के बाजार की ताकतों को शिक्षा के निजीकरण व बाजारीकरण का धरातल प्रदान किया।  सन् 1991 में घोषित नई आर्थिक नीति के बाद वैश्विक बाजार का प्रतिनिधित्व करने वाली दो शक्तिशाली संस्थाओं अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष एवं विश्व बैंक ने भारत के सामने ऋण तथा अनुदान देने के लिए शर्तें रखी जिसमें सरकार के लिए शिक्षा, चिकित्सा व अन्य समाज कल्याणकारी कार्यक्रमों को कम करने का प्रस्ताव किया गया जिसके फलस्वरूप शिक्षा व चिकित्सा के क्षेत्रों में सरकारी निवेश को पूर्णतया समाप्त कर इनको निजी क्षेत्र में सौंपने की प्रक्रिया चल रही है।
         सन् 1991 में अर्थव्यवस्था में उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण की शुरूआत के साथ ही उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी इन नीतियों को लागू किया गया। फलस्वरूप सन् 1991 में जहां भारतीय विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में 41-42 लाख छात्र-छात्राएं अध्ययनरत थे, सन् 2012-13 में इनकी संख्या लगभग 1 करोड़ 80 लाख हो गई जिसमें 21 लाख परास्नातक स्तर पर अध्ययनरत थे। यू0 जी0 सी0 की वार्षिक रिपोर्ट 2012-13 के अनुसार, स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत में विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों की संख्या क्रमशः मात्र 20 तथा 500 थी जो 2013 तक बढ़कर क्रमशः 651 तथा 35500 हो चुकी है। आज भारत में विश्वविद्यालयी शिक्षा में सकल पंजीकरण अनुपात (जी0 ई0 आर0) 20 प्रतिशत है जबकि विश्व स्तर पर औसत 26 प्रतिशत तथा़ विकसित देशों का औसत 58 प्रतिशत है। सरकार ने सन् 2020 तक इसे 30 प्रतिशत करने का लक्ष्य रखा है। चूंकि लक्ष्य लक्षित उम्र समूह के 30 प्रतिशत युवाओं को स्नातक बनाने का है, उच्च शिक्षा के के प्रचार-प्रसार हेतु अनेक महत्वाकांक्षी योजनाएं प्रस्तावित हैं जिनमें अधिकाधिक नये विश्वविद्यालय और महाविद्यालय खोले जाना प्रमुख है। भारत में शिक्षा के तीव्र प्रसार की आवश्यकता और सीमित सरकारी संसाधनों को दृष्टिगत रखते हुए राष्ट्रीय ज्ञान आयोग 2009 ने निजीकरण की प्रक्रिया का समर्थन करते हुए कहा था कि ‘‘आज देश में 1500 नये विश्वविद्यालयों की आवश्यकता है। उच्चतर शिक्षा के अवसरों का दायरा बढ़ाने के लिए उसमें निजी निवेश को प्रोत्साहित करना आवश्यक है।’’ परंतु मात्रात्मक वृद्धि की इस दौड़ में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता कहां है? संख्या की दृष्टि से देखा जाए तो भारत की उच्चतर शिक्षा व्यवस्था अमरीका और चीन के बाद तीसरे नंबर पर आती है लेकिन जहाँ तक गुणवत्ता की बात है, दुनिया के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। स्कूल की पढ़ाई करने वाले नौ छात्रों में से एक ही कॉलेज पहुँच पाता है. भारत में उच्च शिक्षा के लिए रजिस्ट्रेशन कराने वाले छात्रों का अनुपात दुनिया में सबसे कम यानी सिर्फ 11 फीसदी है. अमरीका में ये अनुपात 83 फीसदी है। हाल ही में नैसकॉम और मैकिन्से के शोध के अनुसार मानविकी में 10 में से एक और इंजीनियरिंग में डिग्री ले चुके चार में से एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने के योग्य हैं। योजना आयोग की भी स्वीकारोक्ति है कि मात्र 18 प्रतिशत स्नातक ही रोजगार पा सकने के योग्य हैं।   राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद की रिपोर्ट में स्वीकार किया गया है कि लगभग 70 प्रतिशत विश्वविद्यालय और 90 प्रतिशत महाविद्यालय औसत अथवा औसत से भी कम दर्जे के हैं। भारतीय छात्र विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए हर साल सात अरब डॉलर यानी करीब 43 हजार करोड़ रुपए खर्च करते हैं क्योंकि भारतीय विश्वविद्यालयों में पढ़ाई का स्तर घटिया है। इसलिए शिक्षा का निजीकरण करने के साथ ही इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि शिक्षा के प्रसार से उसकी गुणवत्ता प्रभावित न हो। आज गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु कठोर नियम बनाए जाने एवं उसको सख्ती से लागू किए जाने की आवश्यकता है।
 

वैश्वीकरण के युग में शिक्षक की भूमिका-
 

         वैश्वीकरण के कारण देश में आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक व सांस्कृतिक आदि सभी क्षेत्रों में परिवर्तन हुआ है। इन परिवर्तनों ने हमारे शिक्षातंत्र को अत्यधिक प्रभावित किया है। इसी क्रम में शिक्षक व छात्र की भूमिका में भी बदलाव आना निश्चित है। आज से लगभग ढाई दशक पूर्व विद्यार्थी के ज्ञान पिपासा को जाग्रत करने व शांत करने का मुख्य आधार शिक्षक था। उस समय विद्यार्थी अक्षरीय एवं पुस्तकीय ज्ञान के लिए शिक्षक पर निर्भर होते थे। तत्कालीन समय में बहुत कम विद्यार्थियों के पास टेलीवीजन, रेडियो, समाचारपत्र एवं पत्रिकाएं उपलब्ध हो पाती थी। विद्यार्थियों के पास कल्पनाए, जिज्ञासाएं व प्रश्नों की भरमार होती थी, लेकिन उसके पास समाधान का एकमात्र स्रोत शिक्षक था जो अपने अनुभवों के आधार पर उनकी जिज्ञासा को शांत करता था। लेकिन आज शिक्षक की भूमिका में महत्वपूर्ण परिवर्तन आ गया है। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 में शिक्षक की बदलती भूमिका का उल्लेख करते हुए कहा गया है- ‘‘उसे अब तक ज्ञान के स्रोत के रूप में केंद्रीय स्थान मिलता रहा है, वह सीखने-सिखाने की समूची प्रक्रिया का संरक्षक और प्रबंधक रहा है और पाठ्यचर्या या अन्य विभागीय आदेशों के जरिए सुपुर्द शैक्षणिक और प्रशासनिक जिम्मेदारियों को पूरा करने वाला रहा है। अब उसकी भूमिका ज्ञान के स्रोत के बदले एक सहायक की होगी जो सूचना को ज्ञान या बोध में बदलने की प्रक्रिया में विविध उपायों से शिक्षार्थियों को उनके शैक्षणिक लक्ष्यों की पूर्ति में मदद करे।’’
              शिक्षा के क्षेत्र में सूचना प्रौद्योगिकी के प्रयोग ने शिक्षा की परम्परागत प्रणाली में अत्यधिक परिवर्तन ला दिया है। आज शिक्षा में सूचना सम्प्रेषण तकनीकी के सशक्त माध्यमो जैसे रेडियो, दूरदर्शन, टेपरिकार्डर, वीडियोरिकार्डर, टेलीफोन, मोबाइल, कम्प्यूटर, सीडीरोम, उपग्रह संप्रेषण, ई-मेल, इण्टरनेट आदि का सीखने की प्रक्रिया में सफलतापूर्वक प्रयोग किया जा रहा है। शिक्षा के प्रत्येक क्षेत्र व अंग को सूचना प्रौद्योगिकी के प्रयोग ने प्रभावित किया है, प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा में रेडियो, दूरदर्शन, टेपरिकार्डर, वीडियोरिकार्डर, आदि का शिक्षण में उपयोग किया जा रहा हैं। रेडियो तथा दूरदर्शन पर विभिन्न विषयो के शैक्षिक कार्यक्रमों का प्रसारण किया जा रहा है, जिससे सुदूर क्षेत्रो में रह रहे लाखो विद्यार्थी घर पर शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। एन0सी0ई0आर0टी0, दिल्ली एवं एस0सी0ई0आर0टी0 द्वारा इस दिशा में उल्लेखनीय प्रयास किए गए हैं। इसके अतिरिक्त इन विद्यालयों में कम्प्यूटर का प्रयोग बच्चों को  सूचना प्रौद्योगिकी की शिक्षा देने, बच्चों की उपस्थित, शुल्क तथा छात्रवृत्ति का ब्यौरा रखने में एवं परीक्षण प्रश्नों के निर्माण में किया जा रहा है। उच्च शिक्षा में सूचना प्रौद्योगिकी के प्रयोग ने शिक्षा की परम्परागत प्रणाली में अत्यधिक परिवर्तन ला दिया है। यह शिक्षक के सर्वाधिक मददगार के रूप में उभरी है। सूचना प्रौद्योगिकी शिक्षक को अपने ज्ञान को अद्यतन बनाए रखने में, पाठयोजना तैयार करने में, विद्यार्थियो के विभिन्न अभिलेख बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देती है। आज शिक्षक पावर प्वाइन्ट प्रेजेन्टेशन के माध्यम से मल्टीमीडिया का प्रयोग कक्षा शिक्षण में विषय वस्तु को रूचिकर, सहज एवं सुग्राह्य बनाने में कर रहा है। इसके अतिरिक्त विद्वान शिक्षकों के व्याख्यानों को इण्टरनेट के द्वारा छात्रो के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है जिससे सुदूर क्षेत्रो में अध्ययनरत छात्र भी विषय विशेषज्ञों के ज्ञान से परिचित हो जाता है।  विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी के अत्यधिक समुन्नत साधनों ने व्यक्तिगत जीवन तथा व्यावसायिक जीवन दोनों को जटिल बना दिया है। कक्षाध्यापन में कम्प्यूटर, टेपरिकार्डर एवं अन्य इलेक्ट्रानिक साधनों का उपयोग करने, हार्डवेयर, सॉफ्टवेयर को अपनाने जैसे दायित्व बढ़ गए हैं। इससे शिक्षकों में नए कौशल लाने की आवश्यकता बढ़ गई है। अतएव शिक्षकों के प्रशिक्षण में इन बिंदुओं को शामिल किए जाने की जरूरत है।       
         एन0सी0टी0ई0 ने शिक्षक प्रशिक्षण के एक महत्वपूर्ण अंग के रूप मे सूचना प्रौद्योगिकी को स्वीकार किया और इसके लिए एक सैद्धान्तिक एवं प्रयोगात्मक घटकों से युक्त एक कार्यक्रम बनाया जिसके माध्यम से शिक्षक प्रशिक्षणार्थी मल्टीमीडिया के प्रयोग से पाठयोजना तैयार कर सकते हैं, आूनलाइन और ऑफलाइन स्रोतों से अपना दत्तकार्य (एसाइनमेंट) बना सकते हैं, विद्यार्थियों के अभिलेख तैयार कर सकते हैं। इसके अलावा सूचना प्रौद्योगिकी शिक्षकों को सूचनाओं के नवीनीकरण में, शिक्षक दक्षता विकसित करने में, नयी-नयी शिक्षण विधियो एवं माडल की जानकारी प्रदान करने में, निर्देशात्मक तत्वों के प्रयोग में तथा अनुसंधान दक्षता विकसित करने में सहायता प्रदान करता है। शिक्षकों को सूचना प्रौद्योगिकी का ज्ञान प्रदान करने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा एकेडमिक स्टाफ कालेजों में सूचना संचार प्रौद्योगिकी विषय पर रिफ्रेशर कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। साथ ही सभी ओरियन्टेशन व रिफ्रेशर कार्यक्रमों में सूचना प्रौद्योगिकी के प्रशिक्षण को अनिवार्य रूप से शामिल कर दिया गया है ताकि शिक्षक अपने ज्ञान को अद्यतन एवं विस्तृत आयाम देकर शिक्षण व अनुसंधान कार्य को उन्नत बना सकें। निःसंदेह सूचना प्रौद्योगिकी का ज्ञान रखने वाला शिक्षक ही वैश्वीकरण के इस युग में शिक्षार्थियों की आकांक्षाओं पर खरा उतर पायेगा।
       वर्तमान वैश्वीकरण के युग में उच्च शिक्षा की विषयवस्तु, अध्यापन आवश्यकताएं तथा अध्यापकीय दृष्टिकोण सभी बदल गए हैं। इसलिए उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में भी अत्यधिक परिवर्तन दृष्टिगत हो रहा है। आज मानविकी विषयों के स्थान पर विविध आयामी व्यावसायिक पाठ्यक्रमों पर बल दिया जा रहा है। इसलिए उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में ऊर्जा संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण एवं बचाव, जनसंख्या शिक्षा, रोग मुक्ति व रोग नियंत्रण के उपाय, सकारात्मक मूल्यों का विकास, कौशल विकास, मानवाधिकार, शांति शिक्षा, कम्प्यूटर से लेकर अंतरिक्ष विज्ञान तक, समुद्र के गर्भ से लेकर वास्तुशास्त्र, खनिजशास्त्र तक आदि नवीन विषयों का का समावेश किया जा रहा है। पाठ्यक्रमों में आए इस परिवर्तन को विद्यालय में प्रभावकारी ढंग से लागू करना शिक्षकों के लिए एक बड़ी चुनौती है जिसके लिए उन्हे अपनी दक्षता में वृद्धि करनी होगी और इसके लिए उन्हे सशक्त बनना होगा।
            वर्तमान वैश्वीकरण के युग में उच्च शिक्षा की शिक्षण विधियों में भी परिवर्तन दृष्टिगत हो रहा है। आज परम्परागत शिक्षण विधियों के स्थान पर नवीन विधियों के द्वारा विद्यार्थी को स्व अधिगम (सेल्फ लर्निग) के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। इस शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में विद्यार्थी की सक्रिय भागीदारी होती है और उन्हे सहयोग द्वारा सीखने के लिए वांछित वातावरण प्रदान किया जाता है। आज व्याख्यान पद्धति के साथ-साथ सेमीनार, ग्रुप डिस्कशन, कोपरेटिव र्लिर्नग, वर्कशाप, ट्यूटोरियल, ब्रेन स्टार्मिंग, एक्सटेम्पोर आदि का प्रयोग शिक्षण में किया जा रहा है। इन नवीन विधियों को शिक्षक प्रशिक्षण की पाठ्यचर्या में अनिवार्य रूप से शामिल करने की अवश्यकता है ताकि शिक्षक इन नवाचारों से अवगत हो सकें।
            आज वैश्वीकरण के प्रभाव में शिक्षा और समाज दोनों के क्षेत्र में बदलाव आ गया है। अंतर्राष्ट्रीय शिक्षक आयोग (1996) के अध्यक्ष जे0 डेलर्स व सहयोगियों के अनुसार, शिक्षा के चार स्तम्भ ‘ज्ञान के लिए शिक्षा, कार्य के लिए शिक्षा, सह-अस्तित्व की शिक्षा तथा स्व-अस्तित्व की शिक्षा है।’ इन चारों स्तम्भों को पूर्ण करने के लिए शिक्षा प्रणाली में सुधार अवश्यंभावी है। अतः शिक्षक को छात्रों को स्वाध्याय और विवेकशील चिंतक बनानेके लिए प्रेरित करना होगा और शिक्षक को स्वयं विवेकशील व शोधार्थी बनने की दक्षता प्राप्त करनी होगी।
           वैश्वीकरण के फलस्वरूप देश में तीव्र औद्योगिक विकास हुआ है। आज लोग रोजगार व बेहतर जीवन की तलाश में गांव से शहर की ओर पलायन कर रहे हैं। ऐसे में संयुक्त परिवार बिखर कर एकल परिवारों में परिवर्तित हो गए जिसमें माता, पिता तथा बच्चे रह गए। ऐसे परिवेश का सर्वाधिक प्रभाव बच्चों पर पड़ा। बच्चे जो मूलतः निष्कपट, सरल हृदय, सच्चे, ईमानदार व विश्वसनीय होते थे, इस बदले हुए महानगरीय तथा शहरी परिवेश में आकर तेजी से बदलने लगे। बच्चे की प्रथम पाठशाला परिवार तथा प्रथम गुरू माता होती थी। बढ़ती आवश्यकताओं के कारण पति-पत्नी दोनों को कमाने के लिए घर से बाहर निकलना पड़ा। इस एकल पारिवारिक व्यवस्था में बालक न केवल बाबा, दादी, चाचा ताऊ के प्यार से वंचित हो गया है, बल्कि कुछ हद तक मां-बाप के स्नेह से भी वंचित रहने लगा है। आज अभिभावकों के पास बच्चों के लिए समय नहीं है। बच्चों के मन में उठने वाले प्रश्नों व जिज्ञासाओं का उत्तर देने वाला, भावनाओं को सहेजने वाला कोई नहीं है। फलस्वरूप संयुक्त परिवार में मिलने वाले मानवीय मूल्यों, आदर्शों तथा संस्कारों से वे वंचित हो गए हैं जिसके कारण आज बालकों में बचपना, भोलापन, सहजता, सरलता, चंचलता, निश्छलता, सहनशीलता तथा सहकारिता जैसे मानवीय भाव लुप्त होते जा रहे हैं तथा उनमें उग्रता, अशांति, अवसाद, लालच, क्रोध आदि दृष्टिगत हो रहे हैं। ऐसी परिस्थियों में, जब परिवार का साथ व स्नेह बालकों को नहीं मिल पा रहा है, शिक्षक का महत्व व भूमिका बढ़ जाती है। यहां पर शिक्षक ही एकमात्र विकल्प है जो उनकी भावनाओं, प्रश्नों व विचारों की धाराओं को संस्कारो का बांध बनाकर उचित दिशा दे सकता है। ऐसा माना जाता है कि अध्यापक वर्ग अभिभावकों की तुलना में अधिक मान्य होता है। इसलिए अध्यापक का साथ विद्यार्थी को न केवल पढ़ाई पूरी करने में, बल्कि अच्छी आदतों व गुणों का विकास करने में भी अति आवश्यक है।
         उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण एवं विश्व व्यापार संगठन सिर्फ आर्थिक एवं शैक्षिक तत्व नहीं है, वरन् वे सांस्कृतिक परिणाम भी उत्पन्न करते हैं। सामान के साथ ज्ञान, शिक्षा व विशेषज्ञता, संस्कृति, विचार एवं विचारधाराएं भी आयात होते हैं और सांस्कृतिक प्रदूषण प्रारम्भ हो जाता है। मादक व्यसन और उपभोक्तावादिता महामारी की तरह फैली है और युवा चाहें शिक्षित हों या अशिक्षित, इसके सबसे बुरी तरह शिकार हो रहे हैं। व्यवहार के तरीके, मूल्य, पहनावा, उपभोग के तरीके एवं पारिवारिक जीवन की गुणवत्ता द्रुतगति से न्यूनता प्रदर्शित कर रही है। भारतीय सांस्कृतिक माहौल और इसकी सांस्कृतिक विरासत आक्रमणग्रस्त है। भारत की विशिष्ट पहचान का परिरक्षण एक विशालकाय कठिन कार्य माना गया है। यदि भारतीयता अथवा इसकी संस्कृति को इन स्थितियों में बने रहना है तो सुनियोजित, गहन विचारित एवं गम्भीर शैक्षिक प्रयासों की जरूरत है जिसके लिए  गुणात्मक रूप से समृद्ध एवं सार्थक अध्यापक शिक्षा कार्यक्रमों की आवश्यकता है जिसके द्वारा ऐसे शिक्षक तैयार हों, जो भारतीय पहचान व संस्कृति को अक्षुण्ण रख सकें।                                                                                            
       वर्तमान वैश्वीकरण के युग में सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव के कारण एक देश की घटनाएं अन्य देशों को भी प्रभावित करती हैं जिसके कारण अनेक तानाशाह पदच्युत हो चुके हैं और वहां पर लोकतंत्र की स्थापना हो गयी है। आज जब सारा विश्व लोकतंत्र की दुहाई दे रहा है, ऐसे में शिक्षकों को अपना एकतंत्रीय व्यवहार छोड़ना पड़ेगा। घर जब सहकारी वातावरण देने में असमर्थ होने लगे हैं तब विद्यालयों की जिम्मेदारी सहकारिता बढ़ाने में और अधिक हो जाती है। इस संदर्भ में राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 में कहा गया है- ‘‘शिक्षा के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है, हमारे सहभागिता आधारित लोकतंत्र व संविधान में प्रतिस्थापित मूल्यों को सुदृढ़ करना।’’ आज शिक्षक विद्यालय में लोकतन्त्र के मूल तत्वों स्वतन्त्रता, समानता, भ्रातृत्व, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देकर लोकतन्त्रीय भावना का विकास करने का महत्वपूर्ण कार्य करने में विशिष्ट भूमिका का निर्वाह कर सकता है।
         आज विश्व एक गांव का रूप ले रहा हैं। संस्कृतियों में तेजी से संक्रमण हो रहा है। ऐसे में शिक्षक की अपनी भूमिका और भी अधिक संवेदनशील हो जाती है। शिक्षक का कार्य वास्तव में अन्य कार्यों से अधिक महत्वपूर्ण और चुनौतीभरा है क्योंकि उसे भावी नागरिकों का निर्माण करना है,उस पीढ़ी का निर्माण करना है, जो संस्कृति की संवाहक होगी। आज शिक्षक को पारम्परिक शिक्षण के स्थान पर नवाचार की ओर उन्मुख होना पड़ेगा। सूचना प्रौद्योगिकी व नवीन शिक्षण तकनीकों की जानकारी प्राप्त करने के साथ ही शिक्षक को मूल्यों का संरक्षण करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करना होगा। ऐसे दक्ष व नवाचारी शिक्षक के द्वारा ही उच्च शिक्षा की वैश्विक चुनौतियों का सामना कर पाना सम्भव हो सकेगा। यदि शिक्षकों को उचित संसाधन, नवाचारों व उपयुक्त प्रशिक्षण के द्वारा सशक्त कर दिया जाए तो निःसंदेह भारत के विश्वविद्यालय विश्व की रैकिंग में उच्च स्थान प्राप्त कर सकेंगे और उच्च शिक्षा के लिए छात्रों को विदेश जाने की जरूरत नहीं होगी वरन् विदेशी छात्र भारत में अध्ययन करने के लिए आयेंगे जिससे भारत आर्थिक रूप से समृद्ध हो सकेगा एवं नालंदा के समय की तरह भारत एक बार पुनः विश्व गुरू बनकर विश्व को ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करेगा।
 

संदर्भसूत्र -
 

1- शिक्षक अभिव्यक्ति (वार्षिक), अंक 3-4, 2004-05
2- राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रुपरेखा 2005, एन0सी0ई0 आर0 टी0 नई दिल्ली, 2006
3- गांधी जी के शैक्षिक विचार, राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद, नई दिल्ली, 1999
4- भारतीय आघुनिक शिक्षा (त्रैमासिक) एन0सी0ई0 आर0 टी0 नई दिल्ली, जनवरी 2008
5- भारतीय आघुनिक शिक्षा (त्रैमासिक) एन0सी0ई0 आर0 टी0 नई दिल्ली, जुलाई 2011
6- अध्यापक शिक्षा के कतिपय विशिष्ट मुद्दे एवं संदर्भ, राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद, नई दिल्ली, 2004
7- उच्च शिक्षा पत्रिका (त्रैमासिक), विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली, वर्ष 6 अंक 2 ग्रीष्म 1998
8-आजकल पत्रिका (मासिक), प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, नई दिल्ली, नवम्बर 2009