Friday, December 1, 2017

कविता -- श्रीकृष्ण सरल

कहो नहीं करके दिखलाओ
         
             ----  श्रीकृष्ण सरल


कहो नहीं करके दिखलाओ
उपदेशों से काम न होगा

जो उपदिष्ट वही अपनाओ
कहो नहीं, करके दिखलाओ।

अंधकार है! अंधकार है!
क्या होगा कहते रहने से,

दूर न होगा अंधकार वह
निष्क्रिय रहने से सहने से

अंधकार यदि दूर भगाना
कहो नहीं तुम दीप जलाओ

कहो नहीं, करके दिखलाओ।
यह लोकोक्ति सुनी ही होगी

स्वर्ग देखने, मरना होगा
बात तभी मानी जाएगी

स्वयं आचरण करना होगा
पहले सीखो सबक स्वयं

फिर और किसी को सबक सिखाओ।
कहो नहीं, करके दिखलाओ।

कर्म, कर्म के लिए प्रेरणा
होते हैं उपदेश निरर्थक

साधु वृत्ति से मन को माँजो
साधु वेश परिवेश निरर्थक।

दुनिया भली बनेगी पीछे
पहले खुद को भला बनाओ।

कहो नहीं, करके दिखलाओ।।
कथनी है वाचाल कहाती

करनी रहती सदा मौन है,
मौन स्वयं अभिव्यक्ति सबल है

इसे जानता नहीं कौन है।
नहीं सहारा लो कथनी का,

करनी से ही सब समझाओ।
कहो नहीं, करके दिखलाओ।।

(रचनाकार--श्रीकृष्ण सरल)

धार्मिक शिक्षा के संदर्भ में गिजुभाई की दृष्टि


      धार्मिक शिक्षा के संदर्भ में गिजुभाई की दृष्टि

                            ------डा0 मनोज मिश्र    
                                                 
                                                          
        मानव जीवन में धर्म का स्थान सदैव महत्त्वपूर्ण रहा है। धर्म एवं जीवन के प्रगाढ़ सम्बन्ध की श्रंृखला अतीतकाल से चली आ रही है। मानव जीवन को संवारने तथा सुधारने के प्रयत्न में धर्म ने उसकी शिक्षा का प्रबन्ध भी अपने हाथ में रखा और प्रारम्भ से ही बालक को धर्म के पथ पर आरुढ़ कराने में उसका नेतृत्व किया। परिणाम स्वरुप एक शिक्षा संस्था के रुप में धर्म का स्थान महत्त्वपूर्ण रहा है। प्रचीन काल में भारत में वैदिक एवं बौद्ध कालीन शिक्षा धर्म पर ही आधारित थी। धार्मिक गंथों का पठन-पाठन, धार्मिक कृत्यों का पालन तथा धार्मिक जीवन व्यतीत करना ही शिक्षा कहलाता था। मध्यकाल में धर्म का रुप संकुचित हो गया तथापि शिक्षा के साथ उसका सम्बन्ध अक्षुण्ण बना रहा। भारत में पाठशाला तथा मकतब प्रायः मंदिरांे एवम् मस्जिदों से सम्बद्ध होते थे। उन्ही के पुजारी या मौलवी इन शिक्षालयों में अध्यापकों का कार्य करते थे। अंग्रेजों के भारत आगमन के पश्चात ईसाई मिशनरियों द्वारा यहाँ अनेक शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की गई, जहाँ धार्मिक शिक्षा प्रदान की जाती थी। संभवतः आज भी शिक्षा पर धर्म का आधिपत्य बना रहता, यदि मध्यकाल में धार्मिक संकुचितता एवं धर्मान्धता ने अपनी सीमा का अतिक्रमण करके मनुष्य के शोषण का प्रयत्न न किया होता। धर्म के नाम पर हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि धर्मालम्बियों के संघर्ष, घोर अत्याचार एवं हत्याकंाड भारत क्या, संसार के सभी देशों में हुए और धर्म के नाम को कलंकित करते रहे हैं। परिणाम स्वरुप लोगों के मन में धर्म के प्रति विश्वास की सुदृढ़ दीवार हिल उठी। यूरोप में रुसों, लॉक आदि दार्शनिकों ने शिक्षा पर धर्म के आधिपत्य का घोर विरोध किया और मानव की तर्कबुद्धि पर विशेष बल दिया। भारतीय शिक्षाविद्ों ने भी धर्म व शिक्षा के सम्बन्ध पर अनेक विचार प्रस्तुत किए। गांधी जी ने धार्मिक शिक्षा के महत्व को स्वीकार किया लेकिन वे उसे मानव धर्म तथा स्वावलम्बन की नैतिक शिक्षा के रुप में देखते थे। उन्होने बुनियादी शिक्षा में धार्मिक शिक्षा को कोई स्थान नहीं दिया था। इस बारे में गांधी जी ने कहा था- ‘‘हमने वर्धा शिक्षा योजना में धार्मिक शिक्षा को इसलिए स्थान नहीं दिया है कि आजकल जिस प्रकार धर्म सिखाये और प्रयोग में लाये जाते हैं। उससे एकता के स्थान पर झगड़ा ही पैदा होता है। परंतु मेरा सुदृढ़ विचार है कि तत्व, जो सब धर्मों में समान है, प्रत्येक बालक को सिखाये जाने चाहिए।.. इन तत्वों को बालक अपने अध्यापक के दैनिक जीवन द्वारा ही सीख सकते हैं।’’  रवीन्द्र नाथ टैगोर ने भी धर्म को नैतिकता व सामाजिक जीवन का ही स्वरुप मानते हुए कहा था- ‘‘धर्म का शिक्षण पाठों के रुप में नहीं दिया जा सकता, यह तो वहाँ है, जहाँ धर्म जीवन में ही है।’’  विख्यात दार्शनिक डॉ0 राधाकृष्णन ने धर्म के बारे में लिखा था- ‘‘नये समाज में हमें नया विश्वधर्म चाहिए। इससे हमारा तात्पर्य एक समान धर्म से नहीं है अपितु ऐसे धर्म से है जो जागरुकता और श्रेय, बुद्धिमत्ता और दया, सत्य व प्रेम का धर्म है।’’  अधिकांश दार्शनिकों, शिक्षाशास्त्रियों तथा समाजशास्त्रियों ने धर्म को समाज के लिए एक आवश्यक तत्व माना है। लेकिन वे उसके परम्परागत रुप अर्थात किसी धर्म विशेष का प्रचार करने के पक्ष में नहीं है। विभिन्न दार्शनिकों ने इस भय से धार्मिक शिक्षा की आलोचना की है कि अनुपयुक्त शिक्षकों व संकुचित दृष्किोणों से प्रदान की गई एक धर्म विशेष की शिक्षा सामाजिक एकता तथा स्वतंत्र व तर्कपूर्ण चिन्तन में हानिकारक सिद्ध हो सकती है। इसलिए भारत में विश्वविद्यालय आयोग (1948), माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952), शिक्षा आयोग (1964-66), तथा राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) ने नैतिक शिक्षा के रुप में धार्मिक शिक्षा दिए जाने पर बल दिया है। गिजुभाई ने भी धर्म एवं धार्मिक शिक्षा पर महत्त्वपूर्ण विचार व्यक्त किए है जो इस प्रकार है।

 गिजुभाई एक धार्मिक व्यक्ति थे। उन्होने मॉ काशीबा से प्राप्त धार्मिक संस्कारों को अपने जीवन में आत्मसात कर लिया था। गिजुभाई धर्म के नाम पर किए जाने वाले आडम्बरांे, कर्मकाण्डों को सच्चा धर्म नहीं मानते हैं। उनके लिए धर्म वह है जो व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य प्रेम व सौहार्द्र बढ़ाता है, दीन-दुखियों की सेवा के लिए प्रोत्साहित करता है। धर्म का पालन करके अर्थात उसको अपने जीवन में समाहित करके हम इस संसार-सागर से मुक्ति प्राप्त कर कर सकते हैं। वे धर्म के स्वरुप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- ‘‘धर्म एक सत्य वस्तु है। वह मनुष्य के जीवन के लिए नौका के समान है। मनुष्य का जीवन लक्ष्य संसार-सागर से पार होना है।’’
 गिजुभाई का मानना है कि केवल पुस्तकें पढ़कर, उपदेश सुनकर या धार्मिक क्रियाओं को करकर हम धार्मिक नहीं बन सकते। इसके लिए हमे धर्म को जीवन में आत्मसात करना पड़ेगा। इसलिए गिजुभाई कहते है- ‘‘धर्म किसी पुस्तक में नहीं है, किसी उपदेश में नहीं है, और न कर्मकाण्ड की किसी जड़ता में ही है। धर्म तो मनुष्य के जीवन में है।’’  गिजुभाई के अनुसार, धर्म का तत्व मानव हृदय में विराजमान होता है। धर्म की वास्तविकताओं का ज्ञान, कर्मकाण्ड का क्रियाडम्बर, पांडित्य, हठमुक्त जप-तप आदि धर्म नहीं है, बल्कि ये धर्म के कवच मात्र हैं। वे धार्मिकता को मानवीय विकास का पर्याय मानते हैं। गिजुभाई का विचार है कि सच्ची धार्मिक भावना को विकसित करने के लिए व्यक्ति में निर्मल बुद्धि, कार्य करने की शक्ति, कल्पना शक्ति तथा प्रेम की भावना का होना अति आवश्यक है। उन्होने इस बारे में लिखा है- ‘‘निर्मल बुद्धि, क्रिया-शक्ति, कल्पना-शक्ति तथा प्रेम-इन चारों के सम्यक विकास में मनुष्य की धार्मिक वृत्ति का उदय है।’’  गिजुभाई का मानना है कि कल्पना शक्ति की सहायता से दरिद्रता की पीड़ा समझने, महात्मा जी की देश प्रेम की बातों को ग्रहण करने की एवं लोगों के दुःख-दर्द को अपना समझ कर अनुभव करने की क्षमता प्राप्त होती है। ऐसी योग्यता वाले व्यक्ति ही समर्थ कवि, महान शोधक, प्रखर राजनीतिज्ञ और अद्वितीय यौद्धा बनते हैं। धार्मिकता के अंतर्गत प्रेम तत्व का होना भी अति आवश्यक है। गिजुभाई के अनुसार, वास्तविक धर्म व्यक्तियों के मध्य प्रेम और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देता है और उन्हे विश्वशांति व मानव सेवा की ओर प्रेरित करता है। उनका मानना है कि दीन-दुखियों की सेवा करने वाले में ही सच्ची धार्मिकता के दर्शन होते हैं। इस संदर्भ में उन्होने लिखा है- ‘‘एक बड़ा राजा गरीबों की झोपड़ी-झोपड़ी तक जाकर अगर दीन-दुखियों की सेवा करता है, तो वह धार्मिक कहा जाएगा। कोई मूर्ख बाबा रास्ते जाते प्यासे राहजनों को जब अपनी आधी रोटी मंे से चौथाई उन्हे खिलाता है और अपने लोटे भर पानी में से आधा पानी पीने को देता है तो उसके हृदय में सच्ची धार्मिकता है।’’
       गिजुभाई बालकों को धार्मिक शिक्षा प्रदान करने का विरोध करते हैं। उनका मानना है कि बालक स्वयं ईश्वर का प्रतिरुप है। उसमें सच्ची धार्मिकता के गुण जन्मजात मौजूद रहते है। इसलिए उसे परम्परागत धर्म व उसकी शिक्षा से दूर रखा जाना चाहिए। वे कहते हैं- ‘‘एक शिक्षाविद् हूँ, इस वजह से मैने अपने बच्चों को परम्परागत धर्म से बचाया हैं, अर्थात अभी तक मैने उन पर धर्म अथवा धार्मिक क्रियाएँ लादी नहीं हैं। इस सम्बन्ध में वे बहुत छोटे हैं और धर्म बहुत बड़ा है अथवा यूं भी कह सकते है कि तभी तो वे इतने अधिक सच्चे धार्मिक हैं और खोटे धर्म से दूर रहने लायक हैं।’’  गिजुभाई का विचार है कि छोटे बच्चों को धार्मिक शिक्षा देने की बजाय उनके उचित शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक विकास पर ध्यान देने की जरुरत है। वे इस संदर्भ में लिखते हैं- ‘‘मेरी समझ से तो छोटे बच्चों को धर्मोपदेश न करना ही अच्छा है। उनको तो इस समय स्वस्थ शरीर, तन्दुरुस्त मन, निर्मल बुद्धि और कभी न थकने वाली क्रियाशक्ति की आवश्यकता है और आवश्यकता है, उनको हर तरह बलवान बनाने की।’’  वे बालकों के माता-पिता से भी बालकों को धार्मिक शिक्षा न देने की बात करते हुए कहते हैं-’’ बालकों को धार्मिक शिक्षा देने की बात आप अपने मन से निकाल ही दीजिए। धर्म की बात कहकर, धर्म के काम करवाकर, धर्म को रुढ़ियों की पोशाकें पहनाकर हम अपने बालकों को कभी भी धार्मिक बना नही सकेंगे।’’
         गिजुभाई विद्यालय में धार्मिक शिक्षा देने का प्रबल विरोध करते हैं। उनका मानना है कि यह शिक्षा घरों में माता-पिता के धार्मिक आचरण के द्वारा प्रदान की जानी चाहिए। विद्यालयों को धार्मिक शिक्षा प्रदान करने का साधन नहीं बनाया जाना चाहिए। उन्होने कहा था- ‘‘क्या धार्मिक शिक्षा के लिए दूसरी जगह नहीं रही कि अब वह पाठशालाओं में दी जा रही है ? पहले तो देवालयों में प्रवचन हुआ करते थे, और घरों में माता-पिता तद्नुसार अपना व्यवहार रखते थे। घर के ये आचार-विचार लड़कों के लिए धार्मिक शिक्षा का काम देते थे। लेकिन अब या तो लोगों को धार्मिक प्रवचन सुनने की फुरसत नहीं है या बड़े-बूढ़े उनको सुनकर अब इतने तृप्त हो गए हैं या और ही कुछ हुआ है कि जिससे अब यह काम पाठशाला का ही अंग बन रहा है।’’
         गिजुभाई का विचार है कि बालक के क्रमिक विकास के साथ-साथ धार्मिक भावना का भी विकास स्वतः होता जाता है। बाल्यावस्था में धार्मिक शिक्षा देने से उसके मानवीय विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। वे इस संदर्भ में कहते हैं- ‘‘मेरा तो अटल विश्वास है कि समय आने पर मनुष्य में जवानी और बुढ़ापे की तरह धर्म जिज्ञासा का भी स्वयं विकास हो जाता है। असमय के गृहस्थाश्रम की भांति असमय का यह धर्म परिचय भी मुझको असामायिक ही मालूम पड़ता है। बचपन से ही धर्म को प्रतिदिन की चर्चा का और श्लोक पाठ का विषय बना डालने से तो उलटे उसके विषयों की सच्ची जिज्ञासा ही मन्द पड़ जाती है। धार्मिक क्रियाओं का भी अपना महत्व है, पर यह आवश्यक नहीं कि उनको इतना महत्त्व दे दिया जाए कि उसके कारण मनुष्य का विकास ही रुक जाए और मनुष्य जड़वत बन जाए।’’
गिजुभाई विद्यालय में अप्रत्यक्ष रुप से धार्मिक शिक्षा देने के पक्षघर थे। उनका विचार था कि बालकों पर धार्मिक शिक्षा को जबरन थोपा नहीं जाना चाहिए। बल्कि पाठ्यक्रम में धार्मिक कहानियों को स्थान देकर बालकों मे नैतिक मूल्यों का विकास करना ही पर्याप्त है। उन्हे श्लोक रटाने या धर्मोपदेश देने की आवश्यकता नहीं है। विद्यालय में धार्मिक शिक्षा किस प्रकार प्रदान की जाए, इस बारे में गिजुभाई ने कहा है- ‘‘मै तो यह कहता हूँ कि हम धर्म को जीवन में उतारने का प्रयत्न करें। माता-पिता भी प्रयत्न करें और शिक्षक भी प्रयत्न करें। पाठ्यपुस्तक में दूसरी कथाओं के साथ धार्मिक पुरुषों और प्रसंगों की कथाएं भी दी जा सकती है। समय आने पर बालकों को दूसरी कथाओं की तरह पुराण और उपनिषद की कथाएं भी कही जा सकती है। जिस प्रकार हम ऐतिहासिक पुरुषों की कहानियां कहते हैं, उसी प्रकार बालकों को धर्मात्मा पुरुषों की कथाएं भी सुना सकते हैं। बालकों के लिए शुरु के वर्षों में इतनी तैयारी पर्याप्त है। कर्मकाण्ड, और श्लोक पाठ, धर्मशिक्षण और धार्मिक पुस्तकों के अभ्यास को हम भविष्य के लिए छोड़ सकते हैं।’’
        आधुनिक समय में धर्म शब्द संघर्षों का कारण बन चुका है। आज भारत में ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण विश्व में धर्म के नाम पर हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि विभिन्न धर्मालम्बियों के परस्पर संघर्ष, साम्प्रदायिक दंगों व हत्याओं के कारण धर्म का नाम कलंकित हुआ है। परिणामस्वरूप लोगों के मन में धर्म के प्रति विश्वास की सुदृढ़ दीवार हिल उठी। लोगो के मन में यह भावना जाग रही है कि धार्मिक शिक्षा से समय का दुरूपयोग और धन का अपव्यय होता है। हमारे मन-मस्तिष्क में धार्मिक संकीर्णता बाधा डाल रही है, इस प्रकार अन्य धर्मों के प्रति कटुता की भावना जाग्रत हो रही है। आज धर्म वैज्ञानिक प्रगति, आर्थिक संघर्ष एवं कुछ स्वार्थियों के कुचक्र तथा अन्य कतिपय कारणों से न्यूनतम प्रभाव रखने वाला हो गया है। जो धर्म कभी विश्व भर के देशों की शिक्षा संस्थाओं एवं समग्र जीवन को अनुप्रमाणित करता था, वही आज उपेक्षित है। आज धर्म को समाज का एक आवश्यक तत्व माना जाता है। लेकिन धार्मिक शिक्षा को शिक्षा मे स्थान न देने का कारण यह है कि प्रायः सभी धर्मों ने मानववाद के सही अर्थ को प्रसारित करने के स्थान पर प्रचार, धर्मपरिवर्तन, कपोल-कल्पित गाथाओं के प्रसार तथा शोषण की अनेकानेक विधियों को प्रचलित करने में ही रूचि दिखलाई है। जिसके फलस्वरूप कई प्रकार के संघर्ष, युद्ध व विनाशकारी परिणाम उत्पन्न हुए हैं। आज सभी लोग चाहते हैं कि धार्मिक शिक्षा के द्वारा पुनः उसी प्रकार के विनाश न दोहराए जाएं। इसलिए वे धार्मिक शिक्षा के तो विरोध में हैं, लेकिन यदि उसे नैतिकता व धर्म निरपेक्षता की शिक्षा के रूप में प्रदान किया जाता है तो उन्हे कोई आपत्ति नहीं है।
आज धर्म कर्मकाण्डों व वाह्य आडम्बर के रूप में देखने को मिलता है। गिजुभाई एक धार्मिक व्यक्ति थे, किन्तु धार्मिकता के प्रदर्शन एवं आडम्बर में उनका विश्वास नहीं था। उनका विचार था कि धर्म किसी पुस्तक में नहीं है, किसी उपदेश में नहीं है और कर्मकाण्ड की किसी जड़ता मे नहीं है। बल्कि धर्म मनुष्य के जीवन में है। वास्तव में धर्म मानव जीवन का पथप्रदर्शक है जो कि मानव व्यवहार को नियंत्रित करता है, उन्हे सही दिशा में कार्य करने के लिए प्रेरित करता है। मानव जीवन को धर्म से अलग नहीं किया जा सकता। केवल श्लोक पढ़ने से, उपदेश या प्रवचन सुनने से, यज्ञ-हवन, जप-माला करने से व्यक्ति धार्मिक नहीं हो जाता है। वरन् जब वह धर्म द्वारा प्रदत्त नैतिक मूल्यों का अपने जीवन में समावेश कर लेता है तभी वह सच्चा धार्मिक होता है। यदि आज समाज द्वारा गिजुभाई के विचारों का अनुशीलन कर मनुष्य में सच्ची धार्मिकता विकसित हो जाए तो इससे होने वाले झगड़े व हिंसा समाप्त हो जाएगी और परस्पर बंधुत्व की भावना जाग्रत हो जाएगी। अतः आज धार्मिक असहिष्णुता व सांप्रदायकिता से ग्रस्त विश्व को शांतिमय व समृद्ध विश्व बनाने के लिए गिजुभाई के विचार अत्यधिक प्रासंगिक हैं।

संदर्भ ---
1-     सत्यपाल रुहेला, - भारतीय शिक्षा का समाजशास्त्र, राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, 1999
2-      टैगोर थाट ऑन एजुकेशन, दि विश्वभारती क्वार्टरली, मई-अक्टूबर 1947,  
3-      गिजुभाई- दिवास्वप्न, मोंटेसरी बाल शिक्षण समिति, राजदलेसर (चुरू), 2006,  
4-      गिजुभाई- माता-पिता से, मोंटेसरी बाल शिक्षण समिति, राजदलेसर (चुरू), 2006   
5-      गिजुभाई- बालशिक्षण जैसा मै समझ पाया, मोंटेसरी बाल शिक्षण समिति, राजदलेसर (चुरू), 2006,   

6-      गिजुभाई- चलते-फिरते, मोंटेसरी बाल शिक्षण समिति, राजदलेसर (चुरू), 2006