Friday, April 10, 2020

बड़ा पागलखाना : खलील जिब्रान

पागलखाने के बगीचे में मेरी उस नवयुवक से मुलाकात
हुई। उसका सुंदर चेहरा पीला पड़ गया था और उस पर आश्चर्य के भाव थे।
उसकी बगल में बैंच पर बैठते हुए मैंने पूछा, ‘‘आप यहाँ कैसे आए?’’
उसने मेरी ओर हैरत भरी नज़रों से देखा और
कहा,‘‘अजीब सवाल है, खैर….उत्तर देने का प्रयास करता हूँ। मेरे पिता और चाचा मुझे बिल्कुल अपने जैसा देखना चाहते हैं, माँ मुझे अपने प्रसिद्ध पिता जैसा बनाना चाहती है, मेरी बहन अपने नाविक पति के समुद्री कारनामों का जिक्र करते हुए मुझे उस जैसा देखना चाहती है, मेरे भाई के अनुसार मुझे उस
जैसा खिलाड़ी होना चाहिए। यही नहीं….मेरे
तमाम शिक्षक मुझमें अपनी छवि देखना चाहते हैं।
….इसीलिए मुझे यहाँ आना पड़ा। यहाँ मैं प्रसन्नचित्त हूँ….कम से कम मेरा अपना व्यक्तित्व तो जीवित है।’’
अचानक उसने मेरी ओर देखते हुए पूछा, ‘‘लेकिन यह तो बताइए….क्या आपकी शिक्षा और बुद्धि आपको यहाँ ले आई?’’
मैंने कहा, ‘‘नहीं, मैं तो यूँ ही….मुलाकाती के तौर पर आया हूँ।’’
तब वह बोला, ‘‘अच्छा….तो आप उनमें से हैं ; जो इस चाहरदीवारी के बाहर पागलखाने में रहते हैं।’’

                ---- खलील जिब्रान

                                      ( अनुवाद: सुकेश साहनी)

Tuesday, April 7, 2020