Saturday, September 21, 2013

मित्रता



मित्रता जिनके लिए व्यापार है,
 
स्वार्थ जिससे सिद्ध हो, वह यार है.
 
सामने जो बस उसी से प्यार है,
 
दूर जो वह 'शाम का अखबार' है.
 
मित्रता का यह नया अवतार है,
 
आह ! ऐसी मित्रता ? धिक्कार है !

फसल

फसल
हल की तरह
कुदाल की तरह
या खुरपी की तरह
पकड़ भी लूँ कलम तो
फिर भी फसल काटने

मिलेगी नहीं हम को ।

हम तो ज़मीन ही तैयार कर पायेंगे
क्रांतिबीज बोने कुछ बिरले ही आयेंगे
हरा-भरा वही करेंगें मेरे श्रम को
सिलसिला मिलेगा आगे मेरे क्रम को ।

कल जो भी फसल उगेगी, लहलहाएगी
मेरे ना रहने पर भी
हवा से इठलाएगी
तब मेरी आत्मा सुनहरी धूप बन बरसेगी
जिन्होने बीज बोए थे
उन्हीं के चरण परसेगी
काटेंगे उसे जो फिर वो ही उसे बोएंगे
हम तो कहीं धरती के नीचे दबे सोयेंगे ।


------सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

कुछ भी कहना खतरे से खाली नहीं

कुछ भी कहना खतरे से खाली नहीं 
-------प्रांजल धर 

इतना तो कहा ही जा सकता है कि कुछ भी कहना
खतरे से खाली नहीं रहा अब
इसलिए उतना ही देखो, जितना दिखाई दे पहली बार में,
हर दूसरी कोशिश आत्महत्या का सुनहरा आमंत्रण है
और आत्महत्या कितना बड़ा पाप है, यह सबको नहीं पता,
कुछ बुनकर या विदर्भवासी इसका कुछ-कुछ अर्थ
टूटे-फूटे शब्दों में जरूर बता सकते हैं शायद

मतदान के अधिकार और राजनीतिक लोकतंत्र के सँकरे
तंग गलियारों से गुजरकर स्वतंत्रता की देवी
आज माफियाओं के सिरहाने बैठ गयी है स्थिरचित्त,
न्याय की देवी तो बहुत पहले से विवश है
आँखों पर गहरे एक रंग की पट्टी को बाँधकर बुरी तरह...

बहरहाल दुनिया के बड़े काम आज अनुमानों पर चलते हैं,
- क्रिकेट की मैच-फिक्सिंग हो या शेयर बाजार के सटोरिये
अनुमान निश्चयात्मकता के ठोस दर्शन से हीन होता है
इसीलिए आपने जो सुना, संभव है वह बोला ही न गया हो
और आप जो बोलते हैं, उसके सुने जाने की उम्मीद बहुत कम है...

सुरक्षित संवाद वही हैं जो द्वि-अर्थी हों ताकि
बाद में आपसे कहा जा सके कि मेरा तो मतलब यह था ही नहीं
भ्रांति और भ्रम के बीच संदेह की सँकरी लकीरें रेंगती हैं
इसीलिए
सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि कुछ भी कहना
खतरे से खाली नहीं रहा अब !
('जनसत्ता', 26 अगस्त 2012)

Saturday, September 14, 2013

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों
 
               
                        - गोपालदास "नीरज"
 
छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है |
सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है |

माला बिखर गयी तो क्या है
खुद ही हल हो गयी समस्या
आँसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है |

खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चाँदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों, चाल बदलकर जाने वालों
चँद खिलौनों के खोने से, बचपन नहीं मरा करता है |

लाखों बार गगरियाँ फ़ूटी,
शिकन न आयी पर पनघट पर
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल पहल वो ही है तट पर
तम की उमर बढ़ाने वालों, लौ की आयु घटाने वालों,
लाख करे पतझड़ कोशिश पर, उपवन नहीं मरा करता है।

लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी ना लेकिन गंध फ़ूल की
तूफ़ानों ने तक छेड़ा पर,
खिड़की बंद ना हुई धूल की
नफ़रत गले लगाने वालों, सब पर धूल उड़ाने वालों
कुछ मुखड़ों के की नाराज़ी से, दर्पण नहीं मरा करता है।

शिक्षक


 

शिक्षक
 

मेरी दृष्टि में कोई भी व्यक्ति ठीक अर्थों में शिक्षक तभी हो सकता है जब 

उसमें विद्रोह की एक अत्यंत ज्वलंत अग्नि हो। जिस शिक्षक के भीतर 

विद्रोह की अग्नि नहीं है वह केवल किसी न किसी निहित, स्वार्थ का, 

चाहे समाज, चाहे धर्म, चाहे राजनीति, उसका एजेंट होगा। शिक्षक के 

भीतर एक ज्वलंत अग्नि होनी चाहिए विद्रोह की, चिंतन की, सोचने की। 

लेकिन क्या हममें सोचने की अग्नि है और अगर नहीं है तो आप भी एक 

दुकानदार हैं। शिक्षक होना बड़ी और बात है। शिक्षक होने का मतलब क्या 

है? क्या हम सोचते हैं-आप बच्चों को सिखाते होंगे, सारी दुनिया में 

सिखाया जाता है बच्चों को, बच्चों को सिखाया जाता है, प्रेम करो! लेकिन 

कभी आपने विचार किया है कि आपकी पूरी शिक्षा की व्यवस्था प्रेम पर 

नहीं, प्रतियोगिता पर आधारित है। किताब में सिखाते हैं प्रेम करो और 

आप की पूरी व्यवस्था, पूरा इंतजाम प्रतियोगिता का है।
                 
                जहां प्रतियोगिता है वहां प्रेम कैसे हो सकता है। जहां 

काम्पिटीशन है, प्रतिस्पर्धा है, वहां प्रेम कैसे हो सकता है। प्रतिस्पर्धा तो 

ईर्ष्या का रूप है, जलन का रूप है। पूरी व्यवस्था तो जलन सिखाती है। 

एक बच्चा प्रथम आ जाता है तो दूसरे बच्चों से कहते हैं कि देखो तुम 

पीछे रह गए और यह पहले आ गया। आप क्या सिखा रहे हैं? आप सिखा 

रहे हैं कि इससे ईर्ष्या करो, प्रतिस्पर्धा करो, इसको पीछे करो, तुम आगे 

आओ। आप क्या सिखा रहे हैं? आप अहंकार सिखा रहे हैं कि जो आगे है 

वह बड़ा है जो पीछे है वह छोटा है। लेकिन किताबों में आप कह रहे हैं कि 

विनीत बनो और किताबों में आप समझा रहे हैं कि प्रेम करो; और आपकी 

पूरी व्यवस्था सिखा रही है कि घृणा करो, ईर्ष्या करो, आगे निकलो, दूसरे 

को पीछे हटाओ और आपकी पूरी व्यवस्था उनको पुरस्कृत कर रही है। जो 

आगे आ रहे हैं उनको गोल्ड मेडल दे रही है, उनको सर्टिफिकेट दे रही है, 

उनके गलों में मालाएं पहना रही है, उनके फोटो छाप रही है; और जो पीछे 

खड़े हैं उनको अपमानित कर रही है। तो जब आप पीछे खड़े आदमी को 

अपमानित करते हैं तो क्या आप उसके अहंकार को चोट नहीं पहुंचाते कि 

वह आगे हो जाए? और जब आगे खड़े आदमी को आप सम्मानित करते 

हैं तो क्या आप उसके अहंकार को प्रबल नहीं करते हैं? क्या आप उसके 

अहंकार को नहीं फुसलाते और बड़ा करते हैं? और जब ये बच्चे इस भांति 

अहंकार में, ईर्ष्या में, प्रतिस्पर्धा में पाले जाते हैं तो यह कैसे प्रेम कर 

सकते हैं। प्रेम का हमेशा मतलब होता है कि जिसे हम प्रेम करते हैं उसे 

आगे जाने दें। प्रेम का हमेशा मतलब है, पीछे खड़े हो जाना।

प्रेम तो यही कहता है, लेकिन प्रतियोगिता क्या कहती है? प्रतियोगिता 

कहती है, मरने वाले के पीछे हो जाना और जीने वाले के आगे हो जाना। 

और हमारी शिक्षा क्या सिखाती है? प्रेम सिखाती है या प्रतियोगिता 

सिखाती है? और जब सारी दुनिया में प्रतियोगिता सिखाई जाती हो और 

बच्चों के दिमाग में काम्पिटीशन और एंबीशन का जहर भरा जाता हो तो 

क्या दुनिया अच्छी हो सकती है? जब हर बच्चा हर दूसरे बच्चे से आगे 

निकलने के लिए प्रयत्नशील हो, और जब हर बच्चा हर बच्चे को पीछे 

छोड़ने के लिए उत्सुक हो, बीस साल की शिक्षा के बाद जिंदगी में वह 

क्या करेगा? यही करेगा, जो सीखेगा वही करेगा। हर आदमी हर दूसरे 

आदमी को खींच रहा है कि पीछे आ जाओ। नीचे के चपरासी से लेकर 

ऊपर के राष्ट्रपति तक हर आदमी एक-दूसरे को खींच रहा है कि पीछे आ 

जाओ। और जब कोई खींचते-खींचते चपरासी राष्ट्रपति हो जाता है तो हम 

कहते हैं, बड़ी गौरव की बात हो गई। हालांकि किसी को पीछे करके आगे 

होने से बड़ा हीनता का, हिंसा का कोई काम नहीं है। लेकिन यह वायलेंस 

हम सिखा रहे हैं, यह हिंसा हम सिखा रहे हैं और इसको हम कहते हैं, यह 

शिक्षा है। अगर इस शिक्षा पर आधारित दुनिया में युद्ध होते हों तो आश्चर्य 

कैसा! अगर इस शिक्षा पर आधारित दुनिया में रोज लड़ाई होती हो, रोज 

हत्या होती हो तो आश्चर्य कैसा! अगर इस शिक्षा पर आधारित दुनिया में 

झोपड़ों के करीब बड़े महल खड़े होते हों और उन झोपड़ों में मरते लोगों के 

करीब भी लोग अपने महलों में खुश रहते हों तो आश्चर्य कैसा! इस दुनिया 

में भूखे लोग हों और ऐसे लोग हों जिनके पास इतना है कि क्या करें, 

उनकी समझ में नहीं आता। यह इस शिक्षा की बदौलत है, यह इस शिक्षा 

का परिणाम है। यह दुनिया इस शिक्षा से पैदा हो रही है और शिक्षक 

इसके लिए जिम्मेवार है, और शिक्षक की नासमझी इसके लिए 

जिम्मेवार है। वह शोषण का हथियार बना हुआ है। वह हजार तरह के 

स्वार्थों का हथियार बना हुआ है, इस नाम पर कि वह शिक्षा दे रहा है, 

बच्चों को शिक्षा दे रहा है!

अगर यही शिक्षा है तो भगवान करे कि सारी शिक्षा बंद हो जाए तो भी 

आदमी इससे बेहतर हो सकता है। जंगली आदमी शिक्षित आदमी से 

बेहतर है। उसमें ज्यादा प्रेम है और कम प्रतिस्पर्धा है, उसमें ज्यादा हृदय 

है और कम मस्तिष्क है; लेकिन इससे बेहतर वह आदमी है। लेकिन हम 

इसको शिक्षा कह रहे हैं! और हम करीब-करीब जिन-जिन बातों को कहते 

हैं कि तुम यह करना, उनसे उलटी बातें हम, पूरा सरंजाम हमारा, उलटी 

बातें सिखाता है!

EXAM


हिंदी दिवस



 हिंदी दिवस की शुभकामनाए


हिंदी का हम मान बढाएं,
 

घर बाहर हिंदी अपनाएं ,
 

आओ हिंदी दिवस मैं ,
 

हिंदी की बिंदी चमकाएं .
 

हिंद देश का मान बढाएं ,
 

इंडिया इंडिया बहुत हो चुका 
 

हिन्दुस्तानी हम हो जाएं .

 

हिंदी दिवस की शुभकामनाए

हिन्दी दिवस

 हिन्दी दिवस

हम सब
हिन्दी दिवस तो मना रहे हैं
जरा सोचें
किस बात पर इतरा रहें हैं ?
हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा तो है
हिन्दी सरल-सरस भी है
वैग्यानिक और
तर्क संगत भी है ।
फिर भी--
अपने ही देश में
अपने ही लोगों के द्वारा
उपेक्षित और त्यक्त है ------

---------------जरा सोचकर देखिए
हम में से कितने लोग
हिन्दी को अपनी मानते हैं ?
कितने लोग सही हिन्दी जानते हैं ?
अधिकतर तो--
विदेशी भाषा का ही
लोहा मानते है ।
अपनी भाषा को
उन्नतिका मूल मानते हैं ?
कितने लोग
हिन्दी को पहचानते हैं ?-----------------

--------भाषा तो कोई भी बुरी नहीं
किन्तु हम
अपनी भाषा से
परहेज़ क्यों मानते हैं ?
अपने ही देश में
अपनी भाषा की
इतनीउपेक्षा
क्यों हो रही है
हमारी अस्मिता
कहाँ सो रही है ?
व्यवसायिकता और लालच की
हद हो रही है ।-----------------
-इस देश में
कोई फ्रैन्च सीखता है
कोई जापानी
किन्तु हिन्दी भाषा
बिल्कुल अनजानी
विदेशी भाषाएँ
सम्मान पा रही हैं
औरअपनी भाषा
ठुकराई जारही है ।

मेरे भारत के सपूतों
ज़रा तो चेतो ।
अपनी भाषा की ओर से
यूँ आँखें ना मीचो ।
अँग्रेजी तुम्हारे ज़रूर काम आएगी ।
किन्तु
अपनी भाषा तो
ममता लुटाएगी ।
इसमें अक्षय कोष है
प्यार से उठाओ
इसकी ग्यान राशि से
जीवन महकाओ ।

आज यदि कुछ भावना है
तो राष्ट्र भाषा को अपनाओ ।

-----------शोभा महेन्द्रू

हिन्दी दिवस


हिन्दी दिवस


हिन्दी दिवस