Tuesday, February 25, 2014

जिंदगी


जिंदगी


चक्र समय का 


चलता है अनवरत


लोग बिछुड़ जाते हैं


रह जाती हैं स्मृतियाँ


लेकिन जीवन रुकता नहीं


मिल जाते है नये लक्ष्य


नवीन प्रेरणा, नये संकल्प


नयी सृष्टि, नयी दृष्टि


नया सृजन, नया जीवन


और हम  बढ़ जाते हैँ
     
   अपने  कर्मपथ पर 

पुन: खो जाते है दुनिया की भीड़ में


शायद इसी का नाम जिंदगी है।

            
                --------  मनोज मिश्र 

Tuesday, February 4, 2014

बसंत पंचमी की शुभकामनाएँ...











 माँ सरस्वती के चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए

 बसंत पंचमी की शुभकामनाएँ...






वर दे, वीणावादिनि वर दे !


प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव

भारत में भर दे !


काट अंध-उर के बंधन-स्तर

बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर;

कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर

जगमग जग कर दे !


नव गति, नव लय, ताल-छंद नव

नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव;

नव नभ के नव विहग-वृंद को

नव पर, नव स्वर दे !

आयो-आयो रे बसंत

आयो-आयो रे बसंत


              ----- शास्त्री नित्यगोपाल कटारे

बसंत पंचमी पर हार्दिक शुभकामनाएं



पीत पीत हुए पात 


सिकुड़ी-सिकुड़ी सी रात


ठिठुरन का अन्त आ गया


देखो बसन्त आ गया।

मादक सुगन्ध से भरी 

पन्थ पन्थ आम्र मंजरी

कोयलिया कूक कूक कर

इतराती फिरस बबरी

जाती है जहाँ दृष्टि

मनहारी सकल सृष्टि

लास्य दिग्दिगन्त छा गया

देखो बसन्त आ गया।


शीशम के तारुण्य का

आलिंगन करती लता

रस का अनुरागी भ्रमर

कलियों का पूछता पता

सिमटी सी खड़ी भला

सकुचायी शकुन्तला

मानो दुष्यन्त आ गया

देखो बसन्त आ गया।


पर्वत का ऊँचा शिखर

ओढ़े है किंशुकी सुमन

सरसों के फूलों भरा

मादक बासन्ती उपवन

करने कामाग्नि दहन

केशरिया वस्त्र पहन

मानों कोई सन्त आ गया

देखो बसन्त आ गया।।

--रचनाकार: शास्त्री नित्यगोपाल कटारे

वर दे, वीणावादिनि वर दे !

वर दे, वीणावादिनि वर दे !

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जी
 के जन्मदिवस पर
 उनको कोटि-कोटि नमन
एवं श्रद्धांजलि

सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" जिनका निश्चित तिथि के 

अभाव में जन्मदिवस वसन्त पंचमी के दिन मनाया जाता है,

 के लिखे इस नवगीत से माँ सरस्वती के चरणों में 

श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए बसंत पंचमी की शुभकामनाएँ...



वर दे, वीणावादिनि वर दे !

प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव
भारत में भर दे !

काट अंध-उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर;
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे !

नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव;
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर, नव स्वर दे !

वर दे, वीणावादिनि वर दे।
--रचनाकार: सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"