Sunday, March 31, 2019

ईश्वर ही अपना साथी

समझो मत अधिकार किसी पर  अपना फर्ज निभाते जाओ
चाहो मत प्रतिदान किसी से  जो कुछ पास लुटाते जाओ
मन को जितना करोगे छोटा  दुख उतना बढता जायेगा
एक पल आयेगा फिर ऐसा  फिर तू अकेला रह जायेगा
जो भी दोगे वही मिलेगा  सोच समझ के कदम उठाओ
समझो मत अधिकार किसी पर अपना फर्ज निभाते जाओ

बनजारे की तरह रहो तुम  मोह किसी से मत तुम करना
उजड जायेगा डेरा पल मे  आगे अभी सफर है करना
सब हैं तुम्हारे कोई ना तुम्हारा  राधे राधे करते रहना
साथ छोड जायें कब साँसे   साँसो का विश्वास ना करना

एकमात्र ईश्वर ही अपना साथी   उससे ही मन लगाओ 

समझो मत अधिकार किसी पर अपना फर्ज निभाते जाओ


               ------- चंद्र किशोर मिश्र




Saturday, March 30, 2019



मायासागर
माया रूपी सागर में मन रूपी गागर न डुबाओ
भरते भरते सांझ हो गई अब घर वापस लौट के आओ
रंग बिरंगी हाट लगी है, मन पारा सा छलक रहा है
क्या मैं खरीदूं क्या मैं छोड़ूं इस उलझन में तड़प रहा है
है असीम सागर की सीमा थाह का तुम न पता लगाओ
माया रूपी सागर में मन रूपी गागर न डुबाओ
तुमसे पहले आये कितने आकर प्रयत्न किया बहुतेरा
ला न सके प्रकाश रश्मि वे मन का दूर न हुआ अंधेरा
स्वयं प्रकाशित हो पहले से माया का आवरण हटाओ
माया रूपी सागर में मन रूपी गागर न डुबाओ
         ------- चंद्र किशोर मिश्र


           

Thursday, March 28, 2019

Wednesday, March 6, 2019





प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" जी की जयंती ( 7 मार्च ) पर उनका भावपूर्ण स्मरण।
प्रस्तुत है इस अवसर पर उनकी एक प्रसिद्ध रचना-






उड़ चल हारिल लिये हाथ में
यही अकेला ओछा तिनका
उषा जाग उठी प्राची में
कैसी बाट, भरोसा किन का!

शक्ति रहे तेरे हाथों में
छूट न जाय यह चाह सृजन की
शक्ति रहे तेरे हाथों में
रुक न जाय यह गति जीवन की!

ऊपर ऊपर ऊपर ऊपर
बढ़ा चीर चल दिग्मण्डल
अनथक पंखों की चोटों से
नभ में एक मचा दे हलचल!

तिनका तेरे हाथों में है
अमर एक रचना का साधन
तिनका तेरे पंजे में है
विधना के प्राणों का स्पंदन!

काँप न यद्यपि दसों दिशा में
तुझे शून्य नभ घेर रहा है
रुक न यद्यपि उपहास जगत का
तुझको पथ से हेर रहा है!

तू मिट्टी था, किन्तु आज
मिट्टी को तूने बाँध लिया है
तू था सृष्टि किन्तु सृष्टा का
गुर तूने पहचान लिया है!

मिट्टी निश्चय है यथार्थ पर
क्या जीवन केवल मिट्टी है?
तू मिट्टी, पर मिट्टी से
उठने की इच्छा किसने दी है?

आज उसी ऊर्ध्वंग ज्वाल का
तू है दुर्निवार हरकारा
दृढ़ ध्वज दण्ड बना यह तिनका
सूने पथ का एक सहारा!

मिट्टी से जो छीन लिया है
वह तज देना धर्म नहीं है
जीवन साधन की अवहेला
कर्मवीर का कर्म नहीं है!

तिनका पथ की धूल स्वयं तू
है अनंत की पावन धूली
किन्तु आज तूने नभ पथ में
क्षण में बद्ध अमरता छू ली!

ऊषा जाग उठी प्राची में
आवाहन यह नूतन दिन का
उड़ चल हारिल लिये हाथ में
एक अकेला पावन तिनका!
------ अज्ञेय
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सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" (7 मार्च, 1911 - 4 अप्रैल, 1987) को कवि, शैलीकार, कथा-साहित्य को एक महत्त्वपूर्ण मोड़ देने वाले कथाकार, ललित-निबन्धकार, सम्पादक और अध्यापक के रूप में जाना जाता है। इनका जन्म 7 मार्च 1911 को उत्तर प्रदेश के कसया, पुरातत्व-खुदाई शिविर में हुआ। बचपन लखनऊ, कश्मीर, बिहार और मद्रास में बीता। बी.एससी. करके अंग्रेजी में एम.ए. करते समय क्रांतिकारी आन्दोलन से जुड़कर बम बनाते हुए पकड़े गये और वहाँ से फरार भी हो गए। सन्1930 ई. के अन्त में पकड़ लिये गये। अज्ञेय प्रयोगवाद एवं नई कविता को साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करने वाले कवि हैं। अनेक जापानी हाइकु कविताओं को अज्ञेय ने अनूदित किया। बहुआयामी व्यक्तित्व के एकान्तमुखी प्रखर कवि होने के साथ-साथ वे एक अच्छे फोटोग्राफर और सत्यान्वेषी पर्यटक भी थे।

कविता संग्रह:-
भग्नदूत 1933, चिन्ता 1942,इत्यलम्1946,हरी घास पर क्षण भर 1949, बावरा अहेरी 1954,इन्द्रधनु रौंदे हुये ये 1957,अरी ओ कस्र्णा प्रभामय 1959,आँगन के पार द्वार 1961, कितनी नावों में कितनी बार (1967), क्योंकि मैं उसे जानता हूँ (1970), सागर मुद्रा (1970), पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ (1974), महावृक्ष के नीचे (1977), नदी की बाँक पर छाया (1981), प्रिज़न डेज़ एण्ड अदर पोयम्स (अंग्रेजी में,1946)।[4]

कहानियाँ:
-विपथगा 1937, परम्परा 1944, कोठरीकी बात 1945, शरणार्थी 1948, जयदोल 1951
उपन्यास:-शेखर एक जीवनी-प्रथम भाग 1941, द्वितीय भाग 1944,नदीके द्वीप 1951, अपने - अपने अजनबी 1961।
यात्रा वृतान्त:- अरे यायावर रहेगा याद? 1943,एक बूँद सहसा उछली 1960।
निबंध संग्रह : सबरंग, त्रिशंकु, आत्मनेपद, आधुनिक साहित्य: एक आधुनिक परिदृश्य, आलवाल,
आलोचना:- त्रिशंकु 1945, आत्मनेपद 1960, भवन्ती 1971, अद्यतन 1971 ई.।
संस्मरण: स्मृति लेखा
डायरियां: भवंती, अंतरा और शाश्वती।
विचार गद्य: संवत्सर
नाटक: उत्तरप्रियदर्शी