Saturday, March 30, 2019



मायासागर
माया रूपी सागर में मन रूपी गागर न डुबाओ
भरते भरते सांझ हो गई अब घर वापस लौट के आओ
रंग बिरंगी हाट लगी है, मन पारा सा छलक रहा है
क्या मैं खरीदूं क्या मैं छोड़ूं इस उलझन में तड़प रहा है
है असीम सागर की सीमा थाह का तुम न पता लगाओ
माया रूपी सागर में मन रूपी गागर न डुबाओ
तुमसे पहले आये कितने आकर प्रयत्न किया बहुतेरा
ला न सके प्रकाश रश्मि वे मन का दूर न हुआ अंधेरा
स्वयं प्रकाशित हो पहले से माया का आवरण हटाओ
माया रूपी सागर में मन रूपी गागर न डुबाओ
         ------- चंद्र किशोर मिश्र


           

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