Sunday, April 3, 2022


प्रख्यात साहित्यकार, लेखक एवं गीतकार सियाराम मिश्र की अवधी भाषा की कृति
"गायेन, जस देखेन"
की
पुस्तक समीक्षा द्वारा दिनेश सांकृत्यायन

पंडित सियाराम मिश्र जी की कृति महासभा, बेर भीलनी के, गायन जस देखेन, धूप करे हस्ताक्षर, पर उन्हें उप्र हिंदी साहित्य संस्थान ने चार बार और साहित्य सम्मेलन प्रयाग ने दो बार सम्मानित किया। वह दूरदर्शन और आकाशवाणी के सुपरिचित कवि भी रहे। उनकी रचना आंगन की नागफनी, पंचवटी से कर्बला, दहेज बत्तीसी, स्टालिन ग्राद, हिरोशिमा, हजरत इमाम हुसेन, जटायु, भारत की विभूतियां, भारत के सबूत, वेदना, अनामा, तुतलाय गुलाबन के कलिका प्रकाशित हो चुकी है। महात्मा बुद्ध का एकांत, बिजुरी कौंध गई, महाकाव्य मां गीत संग्रह भारत के वैज्ञानिक अभी अप्रकाशित हैं।

 https://bhartiyabasti.com/article/9897/siyaram-mishra-the-priceless-masterpiece-in-awadhi-is-gayen-jes-dekhen





Monday, February 15, 2021

 लोक संस्कृति, लोक विश्वास, ग्रामीण प्रकृति परिवेश व ग्राम जीवन को प्रतिबिंबित करने वाले माँ वाणी के इस कुशल आराधक एवं राष्ट्रीय जनजागरण के कवि पं. बंशीधर शुक्ल की जयंती ( वसंत पंचमी 1904 ) पर उनको सादर शत-शत नमन



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हिंदी साहित्य के चमकते सितारे कवि
पं. बंशीधर शुक्ल का जन्म उत्तर प्रदेश में लखीमपुर जिले के मन्यौरा गाँव में सन 1904 में हुआ था। माँ सरस्वती के जन्म दिवस बसंत पंचमी के दिन एक कृषक परिवार में जन्म लेने वाले वंशीधर नें माता सरस्वती की साधना को ही अपना लक्ष्य बना लिया। इनके पिता पं॰ छेदीलाल शुक्ल सीधे-सादे सरल ह्रदय के किसान थे जो अच्छे अल्हैत के रूप में विख्यात थे और आसपास के क्षेत्र में उन्हें आल्हा गायन के लिए बुलाया जाता था। वे नन्हें बंशीधर को भी अपने साथ ले जाया करते थे। पिता द्वारा ओजपूर्ण शैली में गाये जाने वाले आल्हा को बंशीधर मंत्रमुग्ध होकर सुना करते थे। सामाजिक सरोकारों से बंशीधर के लगाव के पीछे उनके बचपन के परिवेश का बहुत बड़ा हाथ था। सन 1919 में पं॰ छेदीलाल चल बसेे। पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ अब वंशीधर के सर पर था। यह उनके लिए बड़े संघर्षों का समय थाे। इन्हीं संघर्षों से उनके व्यक्तित्व में जीवटता और अलमस्ती पैदा हुई। इसी समय की कठिनाईयों ने उनमें व्यवस्था के प्रति विद्रोही स्वर पैदा किया। सन 1925 के करीब वे गणेश शंकर विद्यार्थी के संपर्क में आयेे। विद्यार्थी जी के सानिध्य में उन पर स्वतंत्रता-आंदोलन का रंग गहराने लगा और कविता की धार भी पैनी होती चली गयी। उन्होंने मातृभूमि की सेवा करते हुए स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भाग लिया और अनेक बार जेल की यात्रा की।
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वंशीधर शुक्ल
(जन्म: 1904; मृत्यु: 1980)
एक हिंदी और अवधी भाषा के कवि और स्वतंत्रता सेनानी व राजनेता थे।
इनके पिता छेदीलाल शुक्ल भी एक कवि थे। वंशीधर शुक्ल जी महात्मा गाँधी के आन्दोलन से भी भाग लिए। उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी विधान सभा से वें विधायक (1959-1962) भी रहे।
“ कदम-कदम बढायें जा खुशी के गीत गाये जा, ये जिंदगी है कौम की तू कौम पर लुटाए जा ” जैसी कालजयी रचना का सृजन करने वाले वंशीधर शुक्ल हैं। ‘उठो सोने वालों सबेरा हुआ है’, ‘उठ जाग मुसाफिर भोर भई’ इनकी अवधी में लिखी हुई पुस्तके हैं। हुजूर केरी रचनावली भी उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ से प्रकाशित हो चुकी है। उन्होंने लखीमपुर खीरी शहर के मध्य में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के नाम पर 'गाँधी विद्यालय' की स्थापना की।
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आप की दो रचनायें हिन्दोस्तान के जनमानस में खूब प्रचारित हुई जिसमें एक रचना नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज का मार्च गीत बनी तो दूसरी बापू के सबरमती आश्रम की प्रातः काल की प्रार्थना । आज़ाद हिंद फ़ौज का मार्च गीत कदम कदम बढाये जा खुशी के गीत गाये जा ये जिंदगी है कौम की तू कौम पर लुटाये जा उडी तमिस्र रात है , जगा नया प्रभात है, चली नयी जमात है, मानो कोइ बरात है, समय है मुस्कराये जा खुशी के गीत गाये जा ये जिंदगी है कौम की तू कौम पर लुटाये जा। जो आ पडे कोइ विपत्ति मार के भगाये गे, जो आये मौत सामने तो दांत तोड लायेंगे, बहार की बहार में, बहार ही लुटाये जा। कदम कदम बढाये जा खुशी के गीत गाये जा, जहाम तलक न लक्ष्य पूर्ण हो समर करेगे हम, खडा हो शत्रु सामने तो शीश पै चडेगे हम, विजय हमारे हाथ है विजय ध्वजा उडाये जा कदम कदम बढाये जा खुशी के गीत गाये जा कदम बढे तो बढ चले आकाश तक चढेंगे हम लडे है लड रहे है तो जहान से लडेगे हम, बडी लडाईया है तो बडा कदम बडाये जा खुसी के गीत गाये जा निगाह चौमुखी रहे विचार लक्ष्य पर रहे जिधर से शत्रु आ रहा उसी तरफ़ नज़र रहे स्वतंत्रता का युद्ध है स्वतंत्र होके गाये जा कदम कदम बढाये जा खुशी के गीत गाये जा ये जिंदगी है कौम की तू कौम पर लुटाये जा। साबरमती आश्रम का प्रार्थना गीत उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई अब रैन कहा जो सोवत है जो सोवत है सो खोवत है जो जागत है सो पावत है उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई अब रैन कहा जो सोवत है टुक नींद से अंखियां खोल जरा पल अपने प्रभु से ध्यान लगा यह प्रीति करन की रीति नही जग जागत है तू सोवत है तू जाग जगत की देख उडन, जग जागा तेरे बंद नयन यह जन जाग्रति की बेला है तू नींद की गठरी ढोवत है लडना वीरों का पेशा है इसमे कुछ भी न अंदेशा है तू किस गफ़लत में पडा पडा आलस में जीवन खोवत है है आज़ादी ही लक्ष्य तेरा उसमें अब देर लगा न जरा जब सारी दुनियां जाग उठी तू सिर खुजलावत रोवत है

 महाकवि पं. सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की जयंती ( वसंत पंचमी 1896 ) पर उनका भावपूर्ण स्मरण एवं सादर शत-शत नमन।


प्रस्तुत है इस अवसर पर उनकी एक प्रसिद्ध रचना-
वर दे, वीणावादिनी वर दे!
प्रिय स्वतंत्र- रव अमृत-मंत्र नव
भारत में भर दे!
काट अंध्-उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे!
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मन्द्र रव
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर, नव स्वर दे!
वर दे, वीणावादिनी वर दे।
--- महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

Monday, February 1, 2021

संकल्प की बुनियाद पर

अग्नि-झंझा क्यों हो भला हावी किसी प्रहलाद पर !
भाव जिसके खड़े हों संकल्प की बुनियाद पर !!
घास की रोटी चबाकर दृढ़ रहे जो कर्मपथ पर
आकर विजय गिरती सदा उसके चरण पर झूमकर
इन्द्रपद का लोभ भी क़ुर्बान उस आबाद पर
भाव जिसके खड़े हों संकल्प की बुनियाद पर !!
जिसके लिए इस सृष्टि का कण कण उसी का रूप है
वही सुन्दर सत्य है अरु वही सच्चा भूप है
बिजलियाँ बेकार सी हैं उस हृदय-प्रासाद पर
भाव जिसके खड़े हों संकल्प की बुनियाद पर !!
जो प्रेय में भी श्रेय का सुमिरन सदा करता रहे
उसके हृदय आनंद का झरना सदा बहता रहे
गुजर सकती पीर की आंधी क्या उस अह्लाद पर
भाव जिसके खड़े हों संकल्प की बुनियाद पर !!
जिससे किसी को डर नहीं उसको किसी का डर नहीं
विश्व जिसका नीड़ हो, कोई भवन जिसका घर नहीं
बेड़ियां सज़दे करेंगी उस प्रखर आज़ाद पर
भाव जिसके खड़े हों संकल्प की बुनियाद पर !!
----- सर्वेश त्रिपाठी
प्रसिद्ध साहित्यकार सर्वेश त्रिपाठी जी की अत्यधिक प्रेरणादायक रचना जो मुझे बहुत अच्छी लगी।




Sunday, December 27, 2020


अच्छा बनने का कोई इरादा नहीं

हम बुरे हैं अगर तो बुरे ही भले
अच्छा बनने का कोई इरादा नहीं
साथ लिखा है तो साथ निभ जायेगा
अब निभाने का कोई वादा नहीं
क्या सही, क्या गलत, सोच का फ़ेर है
एक नजरिया है जो बदलता भी है
एक सिक्के के दो पहलुओ की तरह
फ़र्क सच या झूठ में ज्यादा नहीं
रुह का रुख इधर, जिस्म का रुख उधर
अब ये दोनो मिले तो किस तरह
रुह से जिस्म तक, जिस्म से रुह तक
रास्ता एक भी सीधा सादा नही
कुछ भी समझे, समझता रहे ये जहां
अपने जीने का अपना ही अन्दाज है
हम भले या बुरॆ जो भी है, वो ही है
हमने ओढा है कोई लबादा नहीं
जिंदगी अब तू ही कर कोई फैसला
अपनी शर्तो पर जीने की क्या है सजा
तेरे हर रुप को हौसले से जिया
पर कभी बोझ सा तुझको लादा नहीं
हम बुरे हैं अगर तो बुरे ही भले
अच्छा बनने का कोई इरादा नहीं
---- दीप्ति मिश्रा

Friday, April 10, 2020

बड़ा पागलखाना : खलील जिब्रान

पागलखाने के बगीचे में मेरी उस नवयुवक से मुलाकात
हुई। उसका सुंदर चेहरा पीला पड़ गया था और उस पर आश्चर्य के भाव थे।
उसकी बगल में बैंच पर बैठते हुए मैंने पूछा, ‘‘आप यहाँ कैसे आए?’’
उसने मेरी ओर हैरत भरी नज़रों से देखा और
कहा,‘‘अजीब सवाल है, खैर….उत्तर देने का प्रयास करता हूँ। मेरे पिता और चाचा मुझे बिल्कुल अपने जैसा देखना चाहते हैं, माँ मुझे अपने प्रसिद्ध पिता जैसा बनाना चाहती है, मेरी बहन अपने नाविक पति के समुद्री कारनामों का जिक्र करते हुए मुझे उस जैसा देखना चाहती है, मेरे भाई के अनुसार मुझे उस
जैसा खिलाड़ी होना चाहिए। यही नहीं….मेरे
तमाम शिक्षक मुझमें अपनी छवि देखना चाहते हैं।
….इसीलिए मुझे यहाँ आना पड़ा। यहाँ मैं प्रसन्नचित्त हूँ….कम से कम मेरा अपना व्यक्तित्व तो जीवित है।’’
अचानक उसने मेरी ओर देखते हुए पूछा, ‘‘लेकिन यह तो बताइए….क्या आपकी शिक्षा और बुद्धि आपको यहाँ ले आई?’’
मैंने कहा, ‘‘नहीं, मैं तो यूँ ही….मुलाकाती के तौर पर आया हूँ।’’
तब वह बोला, ‘‘अच्छा….तो आप उनमें से हैं ; जो इस चाहरदीवारी के बाहर पागलखाने में रहते हैं।’’

                ---- खलील जिब्रान

                                      ( अनुवाद: सुकेश साहनी)

Tuesday, April 7, 2020