Saturday, December 22, 2012

ओशो शिक्षा का अर्थ



शिक्षा  का अर्थ

ओशो



शिक्षा  का अर्थ

 जीवन मिलता नहीं है,

 निर्मित करना होता है।
जन्म मिलता है,
 जीवन निर्मित करना होता है।
इसीलिए मनुष्य को शिक्षा की जरूरत है।
शिक्षा का एक ही अर्थ है
 कि हम
जीवन की कला सीख सकें।

सुख आज है, 
और अभी हो सकता है।
लेकिन सिर्फ उस व्यक्ति के लिए
हो सकता है, 
जो भविष्य की आशा में नहीं, 
वर्तमान की कला में जीने का रहस्य समझ लेता है।
तो मैं शिक्षित उसे कहता हूँ
 जो आज जीने में
समर्थ है- अभी और यहीं।
 लेकिन इस अर्थ में 
तो शिक्षित आदमी बहुत कम रह जायेंगे।
असल में हम पंडित आदमी को शिक्षित
कहने की भूल कर लेते हैं। 
जो पढ़-लिख लेता है,
उसे हम शिक्षित कह देते हैं !
 पढ़ने-लिखने से शिक्षा का कोई संबंध नहीं है।                         --- ओशो

                                                                    (शिक्षा में क्रान्ति से)

Friday, December 21, 2012

कविताएँ अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध


    कविताएँ

अयोध्या सिंह

उपाध्याय हरिऔध


फूल और काँटा

फूल और काँटा
हैं जन्म लेते जगह में एक ही,
एक ही पौधा उन्हें है पालता
रात में उन पर चमकता चाँद भी,
एक ही सी चाँदनी है डालता ।

मेह उन पर है बरसता एक सा,
एक सी उन पर हवाएँ हैं बहीं
पर सदा ही यह दिखाता है हमें,
ढंग उनके एक से होते नहीं ।

छेदकर काँटा किसी की उंगलियाँ,
फाड़ देता है किसी का वर वसन
प्यार-डूबी तितलियों का पर कतर,
भँवर का है भेद देता श्याम तन ।

फूल लेकर तितलियों को गोद में
भँवर को अपना अनूठा रस पिला,
निज सुगन्धों और निराले ढंग से
है सदा देता कली का जी खिला ।

है खटकता एक सबकी आँख में
दूसरा है सोहता सुर शीश पर,
किस तरह कुल की बड़ाई काम दे
जो किसी में हो बड़प्पन की कसर ।



आँख का आँसू


आँख का आँसू ढ़लकता देखकर
जी तड़प कर के हमारा रह गया
क्या गया मोती किसी का है बिखर
या हुआ पैदा रतन कोई नया ?

ओस की बूँदे कमल से है कहीं
या उगलती बूँद है दो मछलियाँ
या अनूठी गोलियाँ चांदी मढ़ी
खेलती हैं खंजनों की लडकियाँ ।

या जिगर पर जो फफोला था पड़ा
फूट कर के वह अचानक बह गया
हाय था अरमान, जो इतना बड़ा
आज वह कुछ बूँद बन कर रह गया ।

पूछते हो तो कहो मैं क्या कहूँ
यों किसी का है निराला पन भया
दर्द से मेरे कलेजे का लहू
देखता हूँ आज पानी बन गया ।

प्यास थी इस आँख को जिसकी बनी
वह नहीं इस को सका कोई पिला
प्यास जिससे हो गयी है सौगुनी
वाह क्या अच्छा इसे पानी मिला ।

ठीक कर लो जांच लो धोखा न हो
वह समझते हैं सफर करना इसे
आँख के आँसू निकल करके कहो
चाहते हो प्यार जतलाना किसे ?

आँख के आँसू समझ लो बात यह
आन पर अपनी रहो तुम मत अड़े
क्यों कोई देगा तुम्हें दिल में जगह
जब कि दिल में से निकल तुम यों पड़े ।

हो गया कैसा निराला यह सितम
भेद सारा खोल क्यों तुमने दिया
यों किसी का है नहीं खोते भरम
आँसुओं, तुमने कहो यह क्या किया ?



एक बूँद

ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों बढ़ी ?

देव मेरे भाग्य में क्या है बढ़ा,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
चू पडूँगी या कमल के फूल में ?

बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
वह समुन्दर ओर आई अनमनी
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी ।

लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर ।


कर्मवीर

देख कर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं
रह भरोसे भाग के दुख भोग पछताते नहीं
काम कितना ही कठिन हो किन्तु उबताते नहीं
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं
हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले ।

आज करना है जिसे करते उसे हैं आज ही
सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही
मानते जो भी हैं सुनते हैं सदा सबकी कही
जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही
भूल कर वे दूसरों का मुँह कभी तकते नहीं
कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं ।

जो कभी अपने समय को यों बिताते हैं नहीं
काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं
आज कल करते हुये जो दिन गंवाते हैं नहीं
यत्न करने से कभी जो जी चुराते हैं नहीं
बात है वह कौन जो होती नहीं उनके लिये
वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिये ।

व्योम को छूते हुये दुर्गम पहाड़ों के शिखर
वे घने जंगल जहां रहता है तम आठों पहर
गर्जते जल-राशि की उठती हुयी ऊँची लहर
आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लपट
ये कंपा सकती कभी जिसके कलेजे को नहीं
भूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं ।


कविताएँ भवानी प्रसाद मिश्र



कविताएँ भवानी प्रसाद मिश्र



बेदर्द

मैंने निचोड़कर दर्द
मन को
मानो सूखने के ख्याल से
रस्सी पर डाल दिया है

और मन
सूख रहा है

बचा-खुचा दर्द
जब उड़ जायेगा
तब फिर पहन लूँगा मैं उसे

माँग जो रहा है मेरा
बेवकूफ तन
बिना दर्द का मन !

Tuesday, December 18, 2012

सूक्तियाँ रामधारी सिंह दिनकर

सूक्तियाँ 
रामधारी सिंह दिनकर 





मेरे भीतर एक आग है, जो बुझती नहीं है। 
तो फिर वह मुझे जला क्यों नहीं डालती है?
इस आग के रंगीन धुएँ में खुशबू है। 
उस धुएँ में पुष्पमुखी आकृतियाँ चमकती हैं।

सौन्दर्य के तूफान में बुद्धि को राह 
नहीं मिलती। वह खो जाती है, भटक जाती है। 
यह पुरुष की चिरंतर वेदना है।

मैं धर्म से छूटकर सौन्दर्य पर 
और सौन्दर्य से छूटकर धर्म पर
  जाता हूँ। होना यह चाहिए
 कि धर्म में सौन्दर्य और 
सौन्दर्य में धर्म दिखाई पड़े।

सौन्दर्य को देखकर पुरुष 
विचलित हो जाता है। 
नारी भी होती होगी। 
फिर भी सत्य यह है कि 
सौन्दर्य आनंद नहीं, समाधि है।

*

अस्तमान सूर्य होने को मत रुको।
 चीजें तुम्हें छोड़ने लगें,
उससे पहले तुम्हीं उन्हें छोड़ दो।

*

दुनिया में जो भी बड़े 
पद या काम हैं,
वे लाभदायक नहीं हैं 
और जो भी काम लाभदायक है,
वह बड़ा नहीं है।

*

हट जाओ, जब तक 
लोग यह पूछते हैं कि 
हटता क्यों है। 
उस समय तक मत रुको, 
जब लोग कहना शुरू कर दें 
कि हटता क्यों नहीं है?

*

सतत चिंताशील व्यक्ति
का मित्र कोई नहीं बनता।

*

अभिनंदन लेने से इनकार करना, 
उसे दोबारा माँगने की तैयारी है।

*

मित्रों का अविश्वास करना बुरा है, 
उनसे छला जाना कम बुरा है।

*

लोग हमारी चर्चा ही  करें,
यह बुरा है। 
वे हमारी निंदा किया करें,
 यह कम बुरा है।

*

स्वार्थ हर तरह की भाषा बोलता है, 
हर तरह की भूमिका अदा करता है, 
यहाँ तक कि 
वह निःस्वार्थता की भाषा भी नहीं छोड़ता।

*

जैसे सभी नदियाँ समुद्र
में मिलती हैं, 
उसी प्रकार सभी गुण
 अंततः स्वार्थ में विलीन होते हैं।

*

जब गुनाह हमारा त्याग कर देते हैं, 
हम फक्र से कहते हैं 
कि हमने गुनाहों को छोड़ दिया।

*

विग पहनने का चलन 
लुई 13वें के समय से हुआ,
 क्योंकि वह खांडु था।

*

सूर्य की खाट में भी 
खटमल होते हैं।

*

ऋषि बात नहीं करते, 
तेजस्वी लोग बात करते हैं 
और मूर्ख बहस करते हैं।

*

जवानों को मारपीट से,
ताकतवर को सेक्स से 
और बूढों को लोभ से बचना चाहिए।

*

विद्वानों और लेखकों के सामने 
सरलता सबसे बड़ी समस्या होती है।

*

घर में रहनेवाली औरत 
उस मछली के समान है,
 जो पानी में है।
 यही देखिए  कि 
औरत जब दफ्तर में होती है, 
उसके बात करने का ढंग 
औपचारिक होता है। 
दफ्तर से बाहर आते ही
 वह अधिकार से बोलने लगती है।


Monday, December 17, 2012

महात्मा गांधी की बुनियादी शिक्षा


महात्मा गांधी 

         की

 बुनियादी शिक्षा


           
               
                  वर्धा शिक्षा योजना शैक्षिक 

सुधार की एक ऐसी योजना थी, जो 

महात्मा गांधी के शैक्षिक विचारों पर आधारित थी। इसे बुनियादी शिक्षा 

या नई तालीम के नाम से भी जाना जाता है।

           जब वर्धा में बुनियादी शिक्षा का मसौदा बन रहा था तो वहाँ जाकिर  

हुसैन, के0टी0 शाह, आचार्य कृपलानी, आशा देवी आदि अनेक लोग मौजूद 

थे। बापू ने पूछा, “ केटी, अपने बच्चों के लिए कैसी शिक्षा तैयार कर रहे हैं ? 

सब चुप थे। फिर केटी ने पूछा, बापू आप ही बताये ना कैसी शिक्षा हो ?’ 



बापू ने कहा, ‘केटी, अगर मै किसी कक्षामें जाकर यह पूँछू  कि मैने एक 

सेब चार आने का खरीदा और उसे एक रुपये  में बेच दिया तो मुझे क्या 

मिलेगा। मेरे इस प्रश्न के जबाब में अगर पूरी कक्षा यह कह दे कि आपको 

जेल की सजा मिलेगी तो मानूँगा कि यह आजाद भारत के बच्चों की सोच 

के मुताबिक शिक्षा है।” बापू के इस सवाल पर सब दंग थे। वास्तव में 

किसी व्यापारी को यह हक नहीं है कि वह चार आने की चीज पर बारह आने 

लाभ कमाये। इस तरह इस प्रश्न के माध्यम से नैतिक शिक्षा का एक संदेश 

बापू ने बिना बताये ही दे दिया। अब कौन कह  सकता है कि बापू एक 

महान संत, दार्शनिक और  राष्ट्रीय नेता होने के साथ शिक्षाविद  ही थे।


    “हमारी बुनियादी शिक्षा पद्धति मस्तिष्क, शरीर और आत्मा तीनों का 

विकास करती है। साधारण शिक्षा पद्धति केवल मस्तिष्क के विकास पर ही 

बल देती है। नई तालीम कातने और झाड़ू देने तक ही सीमित नहीं है। ये 

अति आवश्यक ही क्यों न हो यदि इनसे उक्त तीनों शक्तियों का 

सामंजस्ययुक्त विकास नहीं होता तो इसका कोई मूल्य नहीं है।”    


                     - महात्मा गांधी