Monday, December 30, 2013

नए वर्ष में...



         नए वर्ष में...


नए वर्ष में अब निराशा नहीं हो

युवा-स्वप्न हरती हताशा नहीं हो

जो दिलों बीच खाई को चौड़ा करे

ऐसी सियासत की भाषा नहीं हो

चुनावों में अबकी वहीं पर विजय हो

जहाँ 'लोक' का भय, वचन में विनय हो

नियम के लिए मानसम्मान मन में

कहीं बाहुबल का तमाशा नहीं हो


कोई साँस कम्पित ठिठुरती हुई सी

खुले आसमां में सिकुडती हुई सी

रुके हारकर और रोये गगन भी

इतना सड़क पर कुहासा नहीं हो

कोई सत्य को क्षीण दुर्बल न समझे

इसे छोड़ना हार का हल न समझे

ईमान रखकर बढ़े कर्मपथ पर

बुरे कर्म से जय की आशा नहीं हो

बहे हर नदी जमके लहरें उठाती


तटों से मगर दोस्ती हो निभाती

ह्रदय जी उठे शुभ्र 'भागीरथी' सा

कोई भी नदी 'कर्मनाशा' नहीं हो

नए वर्ष में अब हताशा नहीं हो


युवा-स्वप्न हरती निराशा नहीं हो
         
                
                   ............. संस्कृता मिश्रा 

Friday, December 27, 2013

माँ-बाप से है न कोई बड़ा---- डॉ. विष्णु सक्सैना


माँ-बाप से है न कोई बड़ा


एक दिन फूल से तितलियों ने कहा ,

कैसे रहते हो तुम खुश हरेक हाल में ।

फूल बोला कि खुश्बू लुटाता हूँ मैं , 

जब कि रहता हूँ काँटों के जँजाल में ॥

प्यार जिससे करो डूब करके करो, 

एक न एक दिन तुम्हें यार मिल जायेगा,

खिड़कियाँ, झिडकियां, सिसकियाँ, 

हिचकियाँ सारे सपनों का संसार मिल जायेगा,

एक दिन पेड़ से पँछियों ने कहा-

कैसे रहते हो तुम खुश हरेक हाल में।

पेड़ बोला- कि मिलता मुझे इसमें सुख –

बाँट देता हूँ जो फल लगें डाल में ॥ 

प्यार करना यहाँ जितना आसान है, 

उतना मुश्किल निभाना है इस दौर में, 

और निभ भी न पाये तो कोशिश करो, 

ना पडे गाँठ इस प्यार की डोर में,

एक दिन हौंठ से आँख ने ये कहा- 

मुस्करा कैसे लेते हो हर हाल में ।

हौंठ बोले-है कोशिश किसी आँख से 

कोई आंसू न आये नये साल में ॥ 

ज़िन्दगी उसकी बे रँग हो जायेगी, 

रँग फूलों से जिसने चुराया नहीं, 

वो रहेगा सुखी जिसने मेहमान का 

अपने घर में कभी दिल दुखाया नहीं,

एक दिन मैंने मन्दिर में पूछा – 

प्रभो, आप से भी बड़ा कौन कलि काल में ।

बोले-माँ-बाप से है न कोई बड़ा , 

सब चढा दो वहाँ जो रखा थाल में ॥


                  -
----- डॉ. विष्णु सक्सैना

Tuesday, December 24, 2013

अच्छा बनने का कोई इरादा नहीं

अच्छा बनने का कोई इरादा नहीं


हम बुरे हैं अगर तो बुरे ही भले
अच्छा बनने का कोई इरादा नहीं
साथ लिखा है तो साथ निभ जायेगा
अब निभाने का कोई वादा नहीं

क्या सही, क्या गलत,  सोच का फ़ेर है
एक नजरिया है जो बदलता भी है
एक सिक्के के दो पहलुओ की तरह
फ़र्क सच या झूठ में ज्यादा नहीं

रुह का रुख इधर, जिस्म का रुख उधर
अब ये दोनो मिले तो किस तरह
रुह से जिस्म तक, जिस्म से रुह तक
रास्ता एक भी सीधा सादा नही

कुछ भी समझे, समझता रहे ये जहां 
अपने जीने का अपना ही अन्दाज है
हम भले या बुरॆ जो भी है, वो ही है
हमने ओढा है कोई  लबादा नहीं 

जिंदगी अब तू ही कर कोई फैसला
अपनी शर्तो पर जीने की क्या है सजा
तेरे हर रुप को हौसले से जिया 
पर कभी बोझ सा तुझको लादा नहीं
हम बुरे हैं अगर तो बुरे ही भले
अच्छा बनने का कोई इरादा नहीं

      -------दीप्ति मिश्रा

Monday, December 23, 2013

How to keep your spark alive ? कैसे जलाये रखें अपने अन्दर की चिंगारी को ?


How to keep your spark alive ?


कैसे जलाये रखें अपने अन्दर की चिंगारी को ?




मैं आपके साथ मशहूर लेखक Chetan Bhagat (चेतन भगत) द्वारा दी गयी एक बेहद Inspirational Speech Hindi में share कर रहा हूँ . यह भाषण उन्होंने Symbiosis BBA Programme 2008 के students के समक्ष दिया था.

How to keep your spark alive ?

कैसे जलाये रखें अपने अन्दर की चिंगारी को ?


Good Morning everyone , मुझे यहाँ बोलने का मौका देने के लिए आप सभी का धन्यवाद . ये दिन आपके बारे में है . आप , जो कि अपने घर के आराम ( और कुछ cases में दिक्कतों ) को छोड़ के इस college में आए हैं ताकि ज़िन्दगी में आप कुछ बन सकें . मैं sure हूँ कि आप excited हैं . ज़िन्दगी में ऐसे कुछ ही दिन होते हैं जब इंसान सच -मुच बहुत खुश होता है . College का पहला दिन उन्ही में से एक है .जब आज आप तैयार हो रहे थे , आपके पेट में हलचल सी हुई होगी . Auditorium कैसा होगा , teachers कैसे होंगे , मेरे नए classmates कौन होंगे —इतना कुछ है curious होने के लिए . . मैं इसे excitement कहता हूँ , आपके अन्दर कि चिंगारी (spark) जो आपको एकदम जिंदादिल feel कराती है . आज मैं आपसे इस चिंगारी को जलाये रखने के बारे में बात करने आया हूँ . या दुसरे शब्दों में हम अगर हमेशा नहीं तो ज्यादा से ज्यादा समय कैसे खुश रह सकते हैं ?

इस चिंगारी कि शुरआत कहाँ से होती है ? मुझे लगता है हम इसके साथ पैदा होते हैं . मेरे 3 साल के जुड़वाँ बच्चों में million sparks हैं . वो Spiderman का एक छोटा सा खिलौना देख के बिस्तर से कूद पड़ते हैं . Park में झूला झूल के वो thrilled हो जाते हैं . पापा से एक कहानी सुनके उनमे उत्तेजना भर जाती है . अपना Birthday आने के महीनो पहले से वो उलटी गिनती करना शुरू कर देते हैं कि उस दिन cake काटने को मिलेगा .

मैं आप जैसे students को देखता हूँ और मुझे आपके अन्दर भी कुछ spark नज़र आता है . पर जब मैं और बड़े लोगों को देखता हूँ तो वो मुश्किल से ही नज़र आता है . इसका मतलब , जैसे -जैसे हमारी उम्र बढती है , spark कम होते जाते हैं . ऐसे लोग जिनमे ये चिंगारी बिलकुल ही ख़तम हो जाती है वो मायूस , लक्ष्यरहित और कडवे हो जाते हैं . Jab We met के पहले half की करीना और दुसरे half की Kareena याद है ना ? चिंगारी बुझ जाने पे यही होता है . तो भला इस Spark को बचाएँ कैसे ?

Spark को दिए की लौ की तरह imagine कीजिये . सबसे पहले उसे nurture करने ki ज़रुरत है —उसे लगातार इंधन देने की ज़रुरत है . दूसरा , उसे आन्धी -तूफ़ान से बचाने की ज़रुरत है .

Nurture करने के लिए , हमेशा लक्ष्य बनाएं .यह इंसान कि प्रवित्ति होती है कि वह कोशिश करे , सुधार लाये और जो best achieve कर सकता है उसे achieve करे . दरअसल इसी को Success कहते हैं . यह वो है जो आपके लिए संभव है . ये कोई बाहरी माप -दंड नहीं है – जैसे company द्वारा दिया गया Package, कोई car या कोई घर .

हममे से ज्यदातर लोग middle-class family से हैं . हमारे लिए , भौतिक सुख -सुविधाएं सफलता की सूचक होती हैं , और सही भी है . जब आप बड़े हो जाते हैं और पसिया रोज़ -मर्रा कि ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ज़रूरी हो जाता है , तो ऐसे में financial freedom होना एक बड़ी achievement है .

लेकिन यह ज़िन्दगी का मकसद नहीं है . अगर ऐसा होता तो Mr. Ambani काम पर नहीं जाते . Shah Rukh Khan घर रहते और और -ज्यादा dance नहीं करते . Steve Jobs और भी अच्छा iPhone बनाने के लिए मेहनत नहीं करते , क्योंकि Pixar बेच कर already उन्हें कई billion dollars मिल चुके हैं . वो ऐसा क्यों करते हैं ? ऐसा क्या है जो हर रोज़ उन्हें काम पर ले जाता है ?

वो ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि ये उन्हें ख़ुशी देता है . वो ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि ये उन्हें जिंदादिली का एहसास करता है . अपने मौजूदा स्तर में सुधार लाना एक अच्छा अहसास दिलाता है . अगर आप मेहनत से पढ़ें तो आप अपनी rank सुधार सकते हैं . अगर आप लोगों से interact करने का प्रयत्न करें तो आप interview में अच्छा करेंगे . अगर आप practice करें तो आपके cricket में सुधार आएगा . शायद आप ये भी जानते हों कि आप अभी Tendulkar नहीं बन सकते , लेकिन आप अगले स्तर पर जा सकते हैं . अगले level पे जाने के लिए प्रयास करना ज़रूरी है .

प्रकृति ने हमें अनेकों genes के संयोग और विभिन्न परिस्थितियों के हिसाब से design किया है . खुश रहने के लिए हमें इसे accept करना होगा , और प्रकृति कि इस design का अधिक से अधिक लाभ उठाना होगा . ऐसा करने में Goals आपकी मदद करेंगे .

अपने लिए सिर्फ career या academic goals ही ना बनाएं . ऐसे goals बनाएं जो आपको एक balanced और successful life दे . अपने break-up के दिन promotion पाने का कोई मतलब नहीं है . कार चलाने में कोई मज़ा नहीं है अगर आपके पीठ में दर्द हो .दिमाग tension से भरा हो तो भला shopping करने में क्या ख़ुशी होगी ?

आपने ज़रूर कुछ quotes पढ़े होंगे – ज़िन्दगी एक कठिन race है , ये एक marathon है या कुछ और . नहीं , जो मैंने आज तक देखा है ज़िन्दगी nursery schools में होने वाली उस race की तरह है जिसमे आप चम्मच में रखे मार्बल को अपने मुंह में दबा कर दौड़ते हैं . अगर मार्बल गिर जाये तो दौड़ में first आने का कोई अर्थ नहीं है . ऐसा ही ज़िन्दगी के साथ है जहाँ सेहत और रिश्ते उस मार्बल का प्रतीक हैं . आपका प्रयास तभी सार्थक है जब तक वो आपके जीवन में सामंजस्य लाता है .नहीं तो , आप भले ही सफल हो जायें , लेकिन ये चिंगारी , ये excited और जिंदा होने की feeling धीरे – धीरे मरने लगेगी . …..

Spark को nurture करने के बारे में एक आखिरी चीज —ज़िन्दगी को संजीदगी से ना लें ….don’t take life seriously. मेरे एक योगा teacher class के दौरान students को हंसाते थे . एक student ने पूछा कि क्या इन Jokes कि वजह से योगा practice का समय व्यर्थ नहीं होता ? तब teacher ने कहा – Don’t be serious be sincere. तबसे इस Quote ने मेरा काम define किया है . चाहे वो मेरा लेखन हो , मेरी नौकरी हो , मेरे रिश्ते हों या कोई और लक्ष्य . मुझे अपनी writings पर रोज़ हज़ारों लोगों के opinions मिलते हैं . कहीं खूब प्रशंशा होती है कहीं खूब आलोचना . अगर मैं इन सबको seriously ले लूं , तो लिखूंगा कैसे ? या फिर , जीऊंगा कैसे ?ज़िन्दगी गंभीरता से लेने के लिए नहीं है , हम सब यहाँ temporary हैं .हम सब एक pre-paid card की तरह हैं जिसकी limited validity hai. अगर हम भाग्यशाली हैं तो शयद हम अगले पचास साल और जी लें . और 50 साल यानि सिर्फ 2500 weekends .क्या हमें सच -मुच अपने आप को काम में डुबो देना चाहिए ? कुछ classes bunk करना , कुछ papers में कम score करना , कुछ interviews ना निकाल पाना , काम से छुट्टी लेना , प्यार में पड़ना , spouse से छोटे -मोटे झगडे होना …सब ठीक है …हम सभी इंसान हैं , programmed devices नहीं ….

मैंने आपसे तीन चीजें बतायीं – reasonable goals, balance aur ज़िन्दगी को बहुत seriously नहीं लेना – जो spark को nurture करेंगी . लेकिन ज़िन्दगी में चार बड़े तूफ़ान आपके दिए को बुझाने की कोशिश करेंगे . इनसे बचने बहुत ज़रूरी है . ये हैं निराशा (disappointment),कुंठा ( frustration), अन्याय (unfairness) और जीवन में कोई उद्देश्य ना होना (loneliness of purpose.)

निराशा तब होगी जब आपके प्रयत्न आपको मनचाहा result ना दे पाएं . जब चीजें आपके प्लान के मुताबिक ना हों या जब आप असफल हो जायें . Failure को handle करना बहुत कठिन है , लेकिन जो कर ले जाता है wo और भी मजबूत हो कर निकलता है . इस failure से मुझे क्या सीख मिली ? इस प्रश्न को खुद से पूछना चाहिए . आप बहुत असहाय feel करेंगे , आप सबकुछ छोड़ देना चाहेंगे जैसा कि मैंने चाहा था , जब मेरी पहली book को 9 publishers ने reject कर दिया था . कुछ IITians low-grades की वजह से खुद को ख़तम कर लेते हैं , ये कितनी बड़ी बेवकूफी है ? पर इस बात को समझा जा सकता है कि failure आपको किस हद्द तक hurt कर सकता है .

पर ये ज़िन्दगी है . अगर चुनौतियों से हमेशा पार पाया जा सकता तो , तो चुनौतियाँ चुनौतियाँ नहीं रह जातीं. और याद रखिये — अगर आप किसी चीज में fail हो रहे हैं,तो इसका मतलब आप अपनी सीमा या क्षमता तक पहुँच रहे हैं. और यहीं आप होना चाहते हैं.

Disappointment का भाई है frustration, दूसरा तूफ़ान . क्या आप कभी frustrate हुए हैं? ये तब होता है जब चीजें अटक जाती हैं. यह भारत में विशेष रूप से प्रासंगिक है. ट्राफिक जाम से से लेकर अपने योग्य job पाने तक. कभी-कभी चीजें इतना वक़्त लेती हैं कि आपको पता नहीं चलता की आपने अपने लिए सही लक्ष्य निर्धारित किये हैं.Books लिखने के बाद, मैंने bollywood के लिखने का लक्ष्य बनाया, मुझे लगा उन्हें writers की ज़रुरत है. मुझे लोग बहुत भाग्यशाली मानते हैं पर मुझे अपनी पहली movie release के करीब पहुँचने में पांच साल लग गए.

Frustration excitement को ख़त्म करता है, और आपकी उर्जा को नकारात्मकता में बदल देता है, और आपको कडवा बना देती है.मैं इससे कैसे deal करता हूँ? लगने वाले समय का realistic अनुमान लगा के. . भले ही movie देखने में कम समय लगता हो पर उसे बनाने में काफी समय लगता है, end-result के बजाय उस result तक पहुँचने के प्रोसेस को एन्जॉय करना , मैं कम से कम script-writing तो सीख रहा था , और बतौर एक side-plan मेरे पास अपनी तीसरी किताब लिखने को भी थी और इसके आलावा दोस्त, खाना-पीना, घूमना ये सब कुछ frustration से पार पाने में मदद करती हैं. याद रखिये, किसी भी चीज को seriously नहीं लेना है.Frustration , कहीं ना कहीं एक इशारा है कि आप चीजों को बहुत seriously ले रहे हैं.Frustration excitement को ख़तम करता है , और आपकी energy को negativity में बदल देता है , वो आपको कडवा बना देता है . मैं इससे कैसे deal करता हूँ ?

Unfairness ( अन्याय ) – इससे deal करना सबसे मुश्किल है , लेकिन दुर्भाग्य से अपने देश में ऐसे ही काम होता है . जिनके connections होते हैं , बड़े बाप होते हैं , खूबसूरत चेहरे होते हैं ,वंशावली ( pedigree) होती है , उन्हें सिर्फ Bollywood में ही नहीं बल्कि हर जगह आसानी होती है . और कभी -कभी यह महज luck की बात होती है . India में बहुत कम opportunities हैं , इसलिए कुछ होने के लिए सारे गृह -नक्षत्रों को सही इस्थिति में होना होगा . Short-term में मिलने वाली उपलब्धियां भले ही आपकी merit और hard –work के हिसाब से ना हों पर long-term में ये ज़रूर उस हिसाब से होंगी , अंततः चीजें work-out करती हैं . पर इस बात को समझिये कि कुछ लोग आपसे lucky होंगे .

दरअसल अगर Indian standards के हिसाब से देखा जाये तो आपको College में पढने का अवसर मिलना , और आपके अन्दर इस भाषण को English में समझने की काबिलियत होना आपको काफी lucky बनता है . हमारे पास जो है हमें उसके लिए अहसानमंद होना चाहिए , और जो नहीं है उसे accept करने कि शक्ति होनी चाहिए . मुझे अपने readers से इतना प्यार मिलता है कि दुसरे writers उसके बारे में सोच भी नहीं सकते . पर मुझे साहित्यिक प्रशंशा नहीं मिलती है . मैं Aishwarya Rai की तरह नहीं दीखता हूँ पर मैं समझता हूँ कि मेरे दोनों बेटे उनसे ज्यादा खूबसूरत हैं . It is OK . Unfairness को अपने अन्दर कि चिंगारी को बुझाने मत दीजिये .

और आखिरी चीज जो आपके spark को ख़तम कर सकती है वो है Isolation( अलग होने की स्थिति ) आप जैसे जैसे बड़े होंगे आपको realize होगा कि आप unique हैं . जब आप छोटे होते हैं तो सभी को ice-cream और spiderman अच्छे लगते हैं . जब आप college में जाते हैं तो भी आप बहुत हद तक अपने बाकी दोस्तों की तरह ही होते हैं . लेकिन दस साल बाद आपको पता लगता है कि आप unique हैं . आप जो चाहते हैं , आप जिस चीज में विश्वास राखते हैं , वो आपके सबसे करीबी लोगों से भी अलग हो सकती है . इस वजह से conflict हो सकती है क्योंकि आपके goals दूसरों से match नहीं करते . और आप शायद उनमे से कुछ को drop कर दें . College में Basketball के कप्तान रह चुके , दूसरा बछा होते -होते ये खेल खेलना छोड़ देते हैं . जो चीज उन्हें इतनी पसंद थी वो उसे छोड़ देते हैं . ऐसा वो अपनी family के लिए करते हैं . पर ऐसा करने में Spark ख़तम हो जाता है . कभी भी ऐसा compromise ना करें . पहले खुद को प्यार करें फिर दूसरों को .

मैंने आपको चारों thunderstorms – disappointment, frustration, unfairness and isolation के बारे में बताया . आप इनको avoid नहीं कर सकते , मानसून की तरह ये भी आपके जीवें में बार -बार आते रहेंगे . आपको बस अपना raincoat तैयार रखना है ताकि आपके अन्दर कि चिंगारी बुझने ना पाए .

मैं एक बार फिर आपका आपके जीवन के सबसे अच्छे समय में स्वागत करता हूँ . अगर कोई मुझे समय में वापस जाने का option दे तो निश्चित रूप से मैं college वापस जाना चाहूँगा . मैं ये आशा करता हुनक की दस साल बाद भी , आपकी आँखों में वही चमक होगी जो आज है , कि आप अपने अन्दर की चिंगारी को सिर्फ college में ही नहीं बल्कि अगले 2500 weekends तक ज़िन्दा रखेंगे . और मैं आशा करता हूँ की सिर्फ आप ही नहीं बल्कि पूरा देश इस चिंगारी को ज़िन्दा रखेगा , क्योंकि इतिहास में किसी भी और पल से ज्यादा अब इसकी ज़रुरत है . और ये कहना कितना अच्छा लगेगा कि —मैं Billion Sparks की भूमि से वास्ता रखता हूँ .

Thank You.

Chetan Bhagat

Thursday, December 12, 2013

बालक के अधिकार--- गिजुभाई


बालक के अधिकार--- गिजुभाई


गिजुभाई तो गाँधी जी की तरह बालकों के लिए कहते थे- ''करेंगे या मरेंगे।
गिजुभाई ने अपने बालदर्शन में जो कहा है यही उनके बालदर्शन का सार तत्व है-

''मैं पल-पल में नन्हे बालकों में विराजमान, महान आत्मा के दर्शन करता रहता हूँ। यह दर्शन ही मुझे इस बात के लिए प्रेरित कर रहा है। कि मैं बालकों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए जिन्दा रहूँ और इस काम को करते-करते मर मिट जाऊ।

गिजुभाई बालक की स्वतन्त्रता व उसको सम्मान दिलाने के लिए निरन्तर प्रयास करते रहे। उन्होने घर व विधालय दोनों जगह पर बालकों की स्वतंत्रता व सम्मान का हनन होते देखा। इसलिए गिजुभाई ने बालकों के माता-पिता और शिक्षकों का आहवान किया- ''बालक को उचित स्थान दिलाने के लिए आइए, हम कमर कसें, हथियार थामें और युद्ध करें। आइए, बालक के बीच आने वाले अवरोधों को हम हटा दें। बालक के लिए, बलिक, स्वयं अपने लिए आइए, हम इस दुनिया को असिथर कर डालें, व्यथित और अशांत कर दें। बालकों के अधिकारों के निमित्त शिक्षकों और अभिभावकों द्वारा छेड़ा हुआ युद्ध भले ही इतिहास में न लड़ा गया हो, पर हम लड़ेंगे। इस युद्ध में हम जात-पात भुला दें। रंगभेद भुला दें और एकमात्र बालक के लिए, समग्र मानव-जीवन की उम्मीद के लिए; समग्र मनुष्य जीवन की मनुष्यता के परिणाम के लिए विजयी युद्ध करें। यह युद्ध हमारी संकीर्णता, हमारे मताग्रह, हमारे अज्ञान, हमारी गुलामी, हमारे भेदभाव और हमारी नासितकता के विरुद्ध लड़ना है हमें। पहले हमें इनसे मुक्त होना पड़ेगा; तभी बालक के प्रति हमारा युद्ध पूरा होगा; और हमारे जीवन का कर्तव्य भी तभी पूरा होगा। आइए, हम एक होकर अपने इस कार्य की सिद्धि के लिए प्रार्थना करें कि तेजोमय हमें तेज दे, चेतनमय हमें चेतना दे, अनंत विजय हमें विजय
दे।

Saturday, December 7, 2013

घनश्याम काका की शिकायत



घनश्याम काका की शिकायत


घनश्याम काका को,

बहुत शिकायत हैं, अपने बेटे बहू से,

शिकायतों की पूरी लिस्ट है जिसे,

वो हर आये गये से शेयर करते हैं,

जैसे ‘’मेरे पास बैठने का किसी के पास वख़्त नहीं है,

मेरी दवाइयाँ कोई समय पर लाकर नहीं देता,

ठंडा खाना खाना पड़ता है वगैरह वगैरह

बच्चो की पढ़ाई की वजह से टी.वी. भी ज़्यादा नहीं देख सकते

क्या करें मजबूर बुढ़ापा है.. ’’ मुह लटका कर बैठे रहते हैं।



काका, घर मे लैडलाइन या मोबाइल तो आपके पास होगा,

अपने पास वाली कैमिस्ट की दुकान को फोन कर दीजिये

वो दवाइयाँ घर पंहुचा देगा।

टी.वी. कम आवाज़ मे अपने कमरे मे बंद करके देखिये।

बहू सुबह खाना बनाकर चली गई ,

अपना खाना ख़ुद गर्मकर लीजिये माइक्रोवेव मे,

या गैस पर।

घुटनो मे दर्द है फिर भी थोड़ा टहलिये ,

अख़बार और किताबें पढ़िये,

डायरी लिखिये,

उसमे जीवन के दर्द उलट डालिये,

फिर मुस्कुराते रहिये,

अकेलापन कम होगा।



अब चलिये आपको पीछे 10-20 साल पहले ले चलती हूँ।

याद कीजिये

कितनी बार आपने अपने बेटे को जोरू का ग़ुलाम कहा था,

याद कीजिये ,

कितनी बार सर पर पल्लू ठीक से न लेने के लियें,

आपकी पत्नी ने बहू को डाँटा था।

याद कीजिये,

कितनी बार विभिन्न अवसरों पर,

उसके मायके वालों को कोसा गया था।

बहू से तो खून का रिश्ता नहीं था,

काश! आपने इस रिश्ते को पाला पोसा होता।

खैर जो बीत गया सो बीत गया।



ये ‘बाग़बान’ की तरह की कविता और कहानी लिखने वाले,

ख़ुद तारीफ़ पा लेंगे , तालियाँ भी पड़ेंगी,

फेसबुक पर लाइक और कंमैंट भी आयेंगे,

पर आपको कोई फायदा नहीं होगा,

आप पढकर और दुखी हो जायेंगें।

जीवन की गोधूलि वेला मे ख़ुश रहना है तो,

ख़ुद पर तरस खाना छोड़िये, ख़ुश रहिये….

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बीनू भटनागर

Wednesday, December 4, 2013

मालवीय जी और हि‍न्‍दी

मालवीय जी और हि‍न्‍दी 
                                              - वि‍श्‍व नाथ त्रि‍पाठी
                 
बहुमुखी प्रतिभा के धनी महामना पंडि‍त मदन मोहन मालवीय का कार्य क्षेत्र बहुत व्‍यापक था। सन् 1861 में प्रयाग में उनका जन्‍म हुआ था। वे एक महान देश भक्‍त, स्‍वतंत्रता सेनानी वि‍धि‍वत्‍ता, संस्‍कृत वाड्.मय और अंग्रेजी के वि‍द्वान, शि‍क्षावि‍द , पत्रकार और प्रखर वक्‍ता थे। उस युग में 25 वर्ष की आयु में उनमें इतनी राष्‍ट्रीय चेतना थी कि‍ उन्‍होंने 1886 में भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस के दूसरे अधि‍वेशन में भाग लि‍या और उसे संबोधि‍त कि‍या। वे सन् 1909, 1918, 1932 और 1933 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्‍यक्ष चुने गए। सन् 1931 में उन्‍होंने दूसरे गोलमेज सम्‍मेलन में भारत का प्रतिनिधित्‍व भी कि‍या।
   राष्‍ट्रीय आंदोलन में अपना पूर्ण्‍ योगदान देने के उद्देश्‍य से महामना ने 1909 में वकालत छोड़ दी यदयपि‍ उस समय वे इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय में पंडित मोती लाल नेहरू और सर सुन्‍दर लाल जैसे प्रथम श्रेणी के वकीलों में गि‍ने जाते थे। लकि‍न दस साल बाद उन्‍होंने चौरा-चौरी कांड के मृत्‍युदण्‍ड के सजायाफ्ता 156 बागी स्‍वतंत्रता सेनानियों की पैरवी की और उनमें से 150 को बरी करा लि‍या।
   यदि‍ कभी कोई इति‍हासकार स्‍वतंत्रता आंदोलन का वास्‍ति‍वक मूल्‍यांकन करेगा तो महामना का योगदान लोकमान्‍य ति‍लक और महात्‍मा गांधी के समकक्ष आंकने को बाध्‍य होगा। लेकि‍न इसे एक वि‍डम्‍बना ही कहना चाहि‍ए कि‍ उस देश में उनका नाम अधि‍कांश लोग केवल ‘बनारस हि‍न्‍दू वि‍श्‍ववि‍दयालय’ के संस्‍थापाक तथा एक महान शि‍क्षावि‍द् के रूप में ही जानते हैं। वास्‍तव में महामना अपने द्वारा कि‍ये गए कार्यों का न तो स्‍वयं प्रचार करते थे और न चाहते थे कि उनके द्वारा किए गए सद्कार्यों का कोई दूसरा भी प्रचार करें। वे सही मायने में एक कर्मयोगी थे। मालवीय जी अपने द्वारा शुरू कि‍ये कार्य को कि‍सी योग्‍य व्‍यक्‍ति‍ को सौंपकर दूसरे नए कार्य में जुट जाते थे। उनके नाम का कहीं उल्‍लेख न हो इस बात पर वह इतना ध्‍यान देते थे कि अपने  बनाए अपने घरों के बाहर भी उन्‍होंने अपना नाम कभी नहीं लि‍खवाया।
     19 वीं शताब्‍दी में नव जागरण और राष्‍ट्रीय चेतना का स्‍फुरण हो रहा था। एक तरफ युवकों में राष्‍ट्रीय चेतना अंकुरि‍त हो रही थी तो दूसरी तरफ मैकाले के जोर देने पर कम्‍पनी सरकार ने 1835 में अंग्रेजी शि‍क्षा प्रचार का प्रस्‍ताव पास कर दि‍या, एतदर्थ देश में यत्र-तत्र अंग्रेजी के स्‍कूल खोले जाने लगे। अब प्रश्‍न उठा अदालती भाषा का और स्‍कूलों में हि‍न्‍दी को एक अनिवार्य वि‍षय के रूप में रखने का। इन दोनों बातों में हि‍न्‍दी का घोर वि‍रोध हुआ। इस वि‍रोध की कहानी भी बहुत रोचक है। मुगलकाल में अदालतों की भाषा फारसी चल आ रही थी। अंग्रेजी-शासन काल में भी प्रारंभ में यही परम्‍परा चलती रही कि‍न्‍तु सर्वसाधारण जनता की फारसी-भाषा और उसकी लि‍पि‍ सम्‍बन्‍धी कठि‍नाइयों को देखकर सन् 1836 में कम्‍पनी सरकार ने आज्ञा जारी की कि‍ सारा अदालती काम देश की प्रचलि‍त भाषाओं में हुआ करे। इसके परि‍णाम स्‍वरूप संयुक्‍त प्राइज़ में हि‍न्‍दी खड़ी बोली को वहां की अदालती भाषा स्‍वीकार कर लि‍या गया। सारा अदालती कार्य हि‍न्‍दी भाषा और लि‍पि‍ में होने लगा। कम्‍पनी सरकार भाषा संबंधी इस नीति‍ पर चि‍रकाल तक न टि‍क सकी। केवल एक साल के पश्‍चात् उत्‍तरी भारत के सब दफ्तरों की भाषा उर्दू  कर दी गई। यह सब मुसलमानों के वि‍रोध के कारण हुआ। इस प्रकार मान-मर्यादा और आजीवि‍का की दृष्‍टि‍ से सबके लि‍ये उर्दू सीखना आवश्‍यक हो गया और देश-भाषा के नाम पर स्‍कूलों में छात्रों को उर्दू पढाई जाने लगी। इस प्रकार हि‍न्‍दी तथा अन्‍य भारतीय भाषाओं के पढ़ने वालों की संख्‍या दि‍न प्रतीदि‍न  कम होने लगे।
हि‍न्‍दी को अदालतों से बाहर नि‍कालने के कार्य में तो मुसलमानों को सफलता मि‍ल चुकी थी, अब वे इसे शि‍क्षा क्षेत्र से बाहर नि‍कालने में प्रयत्‍नशील थे। जब सरकार स्‍कूलों और मदरसों में हि‍न्‍दी के अनि‍वार्य रूप से पढ़ाये जाने के प्रस्‍ताव पर वि‍चार कर रही थीं तब प्रभावशाली मुसलमानों-सर सैय्यद अहमद खां आदि‍ ने उसका उ्ग्र वि‍रोध कि‍या। अन्‍तत: 1884 में सरकार को अपना वि‍चार छोड़ना पडा। सर सैय्यद अहमद खां का अंग्रेजों के बीच बड़ा मान था। वे हि‍न्‍दी को एक ‘गंवारू’ भाषा समझते थे। वे अंग्रेजी को उर्दू की ओर झुकाने की लगातार कोशि‍श करते रहे। इसी समय राजा शि‍व प्रसाद ‘सि‍तारे हि‍न्‍द’ का इस क्षेत्र में आगमन हुआ। वे भी अंग्रेजों के कृपा पात्र थे और हि‍न्‍दी के परम पक्षपाती थे। अंत: हि‍न्‍दी की रक्षा के लि‍ए उन्‍हें खड़ा होना पड़ा। वे इस कार्य में बराबर चेष्‍ठाशील रहे। यह झगड़ा बीसों वर्ष तक ‘भारतेन्‍दु’ हरि‍श्‍चंद्र के समय तक रहा।
इस हि‍न्‍दी-उर्दू संघर्ष में राजा शि‍व प्रसाद ‘सि‍तारे हि‍न्‍द’ के समय में ही राजा लक्ष्‍मण सिंह भी हि‍न्‍दी के संरक्षक बन कर सामने आये। अनेक वि‍घ्‍न-बाधाओं के होने पर भी शि‍व प्रसाद ने हि‍न्‍दी के उद्धार-कार्य में महत्‍वपूर्ण योगदान दि‍या। इन्‍हीं के प्रयत्‍नों से कम्‍पनी सरकार को स्‍कूलों में हि‍न्‍दी शि‍क्षा को स्‍थान देना पडा।
      जि‍स प्रकार दोनों राजाओं के सप्रयत्‍नों से संयुक्‍त प्रान्‍त में हि‍न्‍दी का प्रचार कार्य आरम्‍भ हुआ, उसी प्रकार उनके समसामयि‍क बाबू नवीन चन्‍द्र राय ने पंजाब में समाज सुधार तथा हि‍न्‍दी-प्रचार कार्य आरम्‍भ कि‍या। बंगाल में राजा राममोहन राय वेदान्‍त और उपि‍नषदों का ज्ञान लेकर आगे आये और उन्‍होंने वहां ‘ब्रह्म-समाज’ की स्‍थापना की। उन्‍होंने वेदान्‍त-सूत्र का हि‍न्‍दी में अनुवाद प्रकाशि‍त कराया।
      उधर उत्‍तरी भारत में स्‍वामी दयानन्‍द सरस्‍वती ने वैदि‍क धर्म-प्रचार और ‘आर्य समाज’ की स्‍थापना कर जनता को अपनी ओर आकार्षित कि‍या। उन्‍होंने हि‍न्‍दुस्‍तान को आर्यावर्त तथा हि‍न्‍दी को आर्य भाषा का नाम दि‍या तथा प्रत्‍येक आर्य के लि‍ए आर्यभाषा का पढ़ना आवश्‍यक ठहराया। स्‍वामी दयानन्‍द तथा उनके द्वारा स्‍थापि‍त ‘आर्य समाज’ ने हि‍न्‍दी भाषा के प्रचार में जो महत्‍वपूर्ण कार्य कि‍या, वह चि‍रस्‍मरणीय  है।  
अब देश में इस प्रकार का वातावरण बन रहा था कि‍ संयुक्‍त प्रान्‍त (आज के उत्‍तर प्रदेश और उत्‍तराखंड) के बुद्धि‍जीवि‍यों के लि‍ए यह बर्दाश्‍त करना असंभव होने लगा था कि‍ सुसंस्‍कृत तथा समृद्ध भाषा हि‍न्‍दी के होते हुए भी पराधीन होने के कारण प्रान्‍त की जनता को समस्‍त राजकीय कार्य में विदेशी भाषा फारसी अथवा अंग्रेजी का प्रयोग करना पड़े। अंत: 19 वीं शताब्‍दी के मध्‍य तक आते-आते अनेक स्‍वाभि‍मानी देशभक्‍त बुद्धि‍जीवि‍यों ने इस बात का बीड़ा उठाया कि‍ प्रदेश में वि‍देशी भाषा की जगह ‘नि‍ज भाषा’ के प्रयोग की शासकीय अनुमति‍ मि‍ल जाय। इस कड़ी में अत्‍यन्‍त महातवपूर्ण प्रयास राजा शि‍वप्रसाद द्वारा भी सन् 1868 में कि‍या गया जो उपर्युक्‍त वि‍दशेी लि‍पि‍यों के हि‍मायति‍यों के वि‍रोध के कारण सफल न हो सका।
      राजा शि‍व प्रसाद की भांति‍ बहुतों ने अदालतों में देवनागरी लि‍पि‍ के प्रवेश के लि‍ये जब-तब छि‍टपुट प्रयत्‍न कि‍या लेकि‍न सभी असफल रहे। 1848 में प्रयाग में हि‍न्‍दी उद्धारि‍णी-प्रति‍नि‍धि‍ मध्‍यसभा की स्‍थापना हुई। मालवीय जी ने इसमें जी खोलकर काम कि‍या, व्‍यारव्‍यान दि‍ए, लेख लि‍खे और अपने मि‍त्रों को भी उस काम में भाग लेने के लि‍ए उत्‍प्रेरि‍त कि‍या। उन्‍होंने नए सि‍रे से अदालतों में नागरी के प्रवेश का प्रयन्‍त कि‍या। मालवीय जी ने इस बात पर गम्‍भीरता से वि‍चार कि‍या कि‍ अब तक इस दि‍शा में क्‍यों सफलता नहीं मि‍ली। महामना ने व्‍यवस्थि‍त ढंग से इस काम को हाथ में लि‍या। एक ओर तो उन्‍होंने देवनागरी लि‍पि‍ के पक्ष में हस्‍ताक्षर अभि‍यान की योजना शुरू की दूसरी ओर बहुत सी सामग्री एकत्रि‍त कर ‘कोर्ट कैरेक्‍टर एण्‍ड प्राइमरी एजूकेशन’ नाम की पुस्‍तक लि‍खी। इसमें हि‍न्‍दी का प्रयोग सरकारी कामकाज में क्‍यों कि‍या जाय इसकी प्रचुर सामग्री थी।
      इसी प्रकार आधुनि‍क हि‍न्‍दी के जन्‍मदाता ‘भारतेन्‍दु’ हरिश्‍चंद्र द्वारा काशी में स्‍थापि‍त ‘नागर प्रचारि‍णी सभा’ भी नागरी लि‍पि‍ के प्रचार-प्रसार में लगी थी। कि‍न्‍तु मुचि‍त मार्गदर्शन प्राप्‍त न होने के कारण उसकी स्‍थि‍ति‍ बि‍गड़ रही थी। मालवीय जी ने ‘नागरी प्रचारि‍णी सभा’ की गति‍वि‍धि‍यों में आरंभ से ही अत्‍यधि‍क रूचि‍ ली तथा ‘नागरी प्रचारि‍णी सभा’ को भी हि‍न्‍दी के प्रचार-प्रसार के कार्य में प्रगति‍शील बनाकर उसे एक प्रकार से पुनर्जीवि‍त कर दि‍या।
      जब मालवीय जी नागरी प्रचार आन्‍दोलन के मुखि‍या बने तब हि‍न्‍दी के सबसे बड़े वि‍रोधी सर सैययद अहमद खां का इन्‍ति‍काल हो चुका था, पर मोहसुनुल मुल्‍क ने नागरी के वि‍रूद्ध घनघोर आन्‍दोलन शुरू कर दि‍या। लॉर्ड कर्जन की सरकार भी उनकी ओर झुकी जा रही थी पर मालवीय जी से टक्‍कर लेना भी टेढ़ी खीर थी। दि‍न-रात एक करके अपनी वकालत के सुनहरे दि‍नों में धुन के साथ मालवीय जी ने गहरी छानबीन के साथ नागरी के पक्ष में प्रमाण और आकड़े इकट्ठे कि‍ये। सैकड़ों जगह डेपुटेशन भेजे गए और हि‍न्‍दी भाषा और नागरी लि‍पि‍ की सुन्‍दरता, सहजता और उपयोगि‍ता दि‍खाई गई। मालवीय जी ने वकालत करते हुए भी अपने मित्र पंडि‍त श्रीकृण जोशी के साथ मि‍लकर घोर परि‍श्रम कि‍या। अपने पास से रूपये खर्च करके उपरोक्‍त कोर्ट लि‍पि‍ का इति‍हास, वि‍गत अधि‍कारि‍यों की सम्‍मति‍यां एकत्र करके एक बड़ी सुन्‍दर पुस्‍तक ‘कोर्ट कैरेक्‍टर एण्‍ड प्रायमरी एजुकेशन इन नार्थ वेस्‍टर्न प्रौवि‍न्‍सेज’ लि‍खी। यह अम्‍यर्थना लेख लेकर 2 मार्च सन् 1898 ई. को अयोध्‍या नरेश महराजा प्रताप नारायण सि‍हं मांडा के राजा राम प्रसाद सि‍हं, आवागढ़ के राजा बलवंत, डॉ. सुन्‍दर लाल आदि‍ के साथ मालवीय जी का एक दल गवर्न्‍मेंट हाउस प्रयाग में छोटे लाट साहब सर एन्‍टोनी मेक्‍डॉलेन से मि‍ला। मालवीय जी की मेहनत सफल हो गई। उनकी सब बातें मान ली गईं। अन्‍त में 18 अप्रैल सन् 1900 ई. को सर ए.पी. मैक्‍डॉलेन ने एक वि‍ज्ञप्‍ति‍  (गवर्न्‍मेंन गजट) नि‍काली जि‍ससे अदालतों में तथा शासकीय कार्यों में नागरी को भी स्‍थान मि‍ल गया। लेकि‍न देश के हि‍न्‍दी वि‍रोधी लोगों ने इस पर खूब ऊधम मचाया। इस आदेश के वि‍रोध में जगह-जगह सभाएं की गई। प्रस्‍ताव भेजे गए कि‍ हि‍न्‍दी को इस प्रकार स्‍वीकार न कि‍या जाय। पर मालवीय जी भी अपने अभि‍यान में डटे रहे। हि‍न्‍दी के पक्ष में भी सभाएं हुईं प्रस्‍ताव भेजे गए। अत: लाट साबह तनि‍क भी वि‍चलि‍त न हुए और अन्‍त में बड़े लाट साहब की अनुमति‍ से यह नि‍यम बन गया कि‍ सभी लोग अपनी अर्जी, शि‍कायत की दरखास्‍त चाहे हि‍न्‍दी या फारसी में दे सकते हैं। अदालतों, शासकीय कार्यालयों को निर्देश दे दि‍या गया कि‍ सभी कागजात जैसे सम्‍मन आदि‍, जो सरकार की ओर से जनता के लि‍ए नि‍काले जायेंगे वह दोनों लि‍पि‍यों यानी नागरी और फारसी में लि‍खे अथवा भरे होंगे। सरकार ने इसके साथ ही यह भी ऐलान कर दि‍या कि‍ आगे कि‍सी भी व्‍यक्‍ति‍  को तभी सरकारी नौकरी मि‍ल सकेगी जब वह हि‍न्‍दी भाषा का भी जानकार हो। जो कर्मचारी हि‍न्‍दी नहीं जानते थे उन्‍हें एक साल के भीतर हि‍न्‍दी सीखने को कहा गया अन्‍यथा वे नौकरी से अलग कर दि‍ए जायेंगे। इस प्रकार मालवीय जी के अथक प्रयास से हि‍न्‍दी का प्रवेश संयुक्‍त प्रान्‍त के शासकीय कार्यालयों में हुआ।
      महामना हि‍न्‍दी के प्रति समर्पित थे। वे चाहते थे कि‍ शि‍क्षा का माध्‍यम भी हि‍न्‍दी हो। सन् 1882 ई्. में अंग्रेजों ने एक शि‍क्षा कमीशन बैठाया। इसका मुख्‍य उद्देश्‍य था कि‍ यह नि‍धार्रि‍त हो कि‍ शि‍क्षा का माध्‍यम क्‍या हो और शि‍क्षा कैसे दी जाये? इस आयोग में साक्ष्‍य के लिए महामना पंडित मदनमोहन मालवीय तथा ‘भारतेन्‍दु’ हरि‍श्‍चन्‍द्र चुने गए थे। ‘भारतेन्‍दु’ अस्‍वस्‍थता के कारण आयोग के सम्‍मुख उपस्‍थि‍त  नहीं हो पाये। उन्‍होंने अपना लि‍खि‍त बयान आयोग को भेजा था। परन्‍तु महामना आयोग के सामने उपस्‍थि‍त हुए थे। उन्‍होंने अपने बयान में इस बात पर जोर दि‍या था कि‍ शि‍क्षा समस्‍त क्षेत्रों में दी जाय और वह हि‍न्‍दी भाषा में हो।
      महामना वर्ष 1886 ई. से कांग्रेस से जुडकर देश की राजनीति‍ में आजादी की लड़ाई का हि‍स्‍सा बन चुके थे। तभी से उनका सम्‍पर्क देश के बड़े राजनेताओं से हो गया था। धीरे-धीरे उनको देश के बड़े राजनेता के रूप में जाना जाने लगा। भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस के 1909 के अधि‍वेशन के वह अध्‍यक्ष चुने गए। देश के व्‍यापक भ्रमण और गहन जन सर्म्‍पक से उन्‍हें यह स्‍पष्‍ट  दि‍खने लगा कि‍ अनेक भाषाओं के इस देश में भारत के स्‍वतंत्र होने पर कि‍सी एक भाषा को सम्‍पर्क भाषा के लि‍ए राष्‍ट्रभाषा का रूप लेना पड़ेगा। उन्‍होंने देखा कि‍ देश के अधि‍कांश भूभाग में अधि‍क से अधि‍क लोग कि‍सी न कि‍सी प्रकार की हि‍न्‍दी बोलते और समझते थे। जबकि‍ देश की अन्‍य भाषाएं यद्यपि उतनी ही महत्‍वपूर्ण थी पर उनका दायरा सीमि‍त था। वे इतने वि‍शाल जनसमुदाय के द्वारा बोली और समझी नहीं जाती थीं। एक स्‍वतंत्र राष्‍ट्र को जोड़ने के लिए एक राष्‍ट्र भाषा के रूप में मालवीय जी ने हि‍न्‍दी की महत्‍ता को परखा। उन्‍होंने यह भी अनुभव कि‍या कि‍ देश के अहि‍न्‍दी भाषी क्षेत्रों में लोगों को हि‍न्‍दी जानने व समझने का मौका मि‍लना चाहि‍ए। अंत: सन् 1910 ई. में महामना के प्रयासों से काशी में ‘’हि‍न्‍दी साहि‍त्‍य सम्‍मेलन’’ की स्‍थापना हुई। मालवीय जी इसके प्रथम अध्‍यक्ष बने। धीरे-धीरे पूरे देश में ‘हि‍न्‍दी साहि‍त्‍य सम्‍मेलन’ की शाखाएं खोली गईं। इसके माध्‍यम से देश के अहि‍न्‍दी भाषी क्षेत्र के लोगों को हि‍न्‍दी पढ़ने व सीखने का अवसर मि‍ला। अपने स्‍वभाव के अनुरूप मालवीय जी ने हि‍न्‍दी साहि‍त्‍य सम्‍मेलन की स्‍थापना करने के बाद इसे आगे चलाने के लि‍ए बाबू पुरूषोत्‍तम दास टण्‍डन को सौंप दि‍या।
सन् 1918 में इन्‍दौर में हुए हि‍न्‍दी साहि‍त्‍य सम्‍मेलन के अधि‍वेशन में महात्‍मा गांधी इसके अध्‍यक्ष बने। उनके नेतृत्‍व में हि‍न्‍दी के प्रचार का एक नया अध्‍याय शुरू  हुआ। उन्‍होंने दक्षि‍ण भारत में राष्‍ट्रभाषा हि‍न्‍दी-प्रचार का काम प्रारम्‍भ कि‍या। 1935 में दूसरी बार इन्‍दौर में हुए सम्‍मेलन के अधि‍वेशन को सम्‍बोधित करते हुए महात्‍मा गांधी ने अपने अध्‍यक्षीय भाषण में कहा कि‍ ‘’मेरा क्षेत्र दक्षि‍ण में हि‍न्‍दी-प्रचार है। सन् 1918 में जब आपका अधि‍वेशन यहां हुआ था तब से दक्षि‍ण में हि‍न्‍दी-प्रचार के कार्य का आरम्‍भ हुआ है।’’ महात्मा गांधी ने मालवीय जी के हि‍न्‍दी-प्रचार की प्रशंसा करते हुए कहा था ‘’सबसे पहला अधि‍वेशन सन् 1910 में हुआ था। उसके सभापति‍ मालवीय जी महाराज ही थे। उनसे बढ़ कर हि‍न्‍दी-प्रेमी भारत वर्ष में हमें कहीं नहीं मि‍लेगा। कैसा अच्‍छा होता यदि‍ वह आज भी इस पद पर होते। उनका हि‍न्‍दी प्रचार-क्षेत्र भारतव्‍यापी है; उनका हि‍न्‍दी का ज्ञान उत्‍कृष्‍ट है।’’
महात्‍मा गांधी मालवीय जी का बड़ा सम्‍मान करते थे। वे मालवीय जी के राष्‍ट्रभाषा हि‍न्‍दी सम्‍बन्‍धी वि‍चारों से पूर्णत: सहमत थे। महात्‍मा गांधी कहते थे कि‍ ‘’यह भाषा का वि‍षय बड़ा भारी और बड़ा महत्‍वपूर्ण है।’’
   अन्‍तत: हि‍न्‍दी के महत्‍व को सभी ने समझा। कालान्‍तर में कांग्रेस के अधि‍वेशन में हि‍न्‍दी को ही राष्‍ट्रभाषा बनाने के प्रस्‍ताव को स्‍वीकृति‍ प्राप्‍त हुई। स्‍वतंत्रता प्राप्‍ति‍ के बाद 14 सि‍तम्‍बर 1949 के दि‍न हि‍न्‍दी को भारत की राजभाषा के रूप में स्‍वीकृत कि‍या गया। भारतीय संवि‍धान में राजभाषा हि‍न्‍दी के प्रबन्‍ध में अनुच्‍छेद 343 (1) के अनुसार संघ की राजभाषा हि‍न्‍दी और लि‍पि‍ देवनागरी होगी।
      आज इस देश के लोगों को शायद इस बात का अहसास भी न होगा कि‍ भारत में हि‍न्‍दी को वि‍श्‍ववि‍दयालयों में एक वि‍षय के रूप में कोई भी मान्‍यता प्राप्‍त नहीं थी। मालवीय जी ने बनारस हि‍न्‍दू वि‍श्‍ववि‍दयालय में हि‍न्‍दी को सर्वप्रथम एक वि‍षय के रूप में मान्‍यता दी। आज  हि‍न्‍दी में पढ़ाई सारे वि‍श्‍ववि‍दयालयों में प्रचलि‍त है। हि‍न्‍दी साहि‍त्‍य के पुरोधा आचार्य रामचन्‍द्र शुक्‍ल, पं; अयोध्‍या सि‍हं उपाध्‍याय ‘हरि‍औध’, आचार्य हजारी प्रसाद द्वि‍वेदी आदि‍ इसी वि‍श्‍ववि‍दयालय के हि‍न्‍दी वि‍भाग के रत्‍न थे। मालवीय जी को हि‍न्‍दी के अखबारों का जनक कहना भी अति‍शयोक्‍ति‍ न होगी। कालाकॉकर (प्रतापगढ़) से ‘हि‍न्‍दुस्‍तान’ का संपादन करने के बाद उन्‍होंने प्रयाग से वर्ष 1907 में प्रकाशि‍त ‘अभ्‍युदय’ और उसके बाद ‘मर्यादा’ का संपादन कि‍या। इन समाचार पत्रों और इनके संपादकीय को जो सफलता और लोकप्रि‍यता मि‍ली वह अन्‍य समाचार पत्रों के लि‍ये मार्गदर्शक बनी।

--------वि‍श्‍व नाथ त्रि‍पाठी
     बी-47 कौशाम्‍बी, गाजि‍याबाद-201010

नालंदा का महान विश्‍वविद्यालय

नालंदा का महान विश्‍वविद्यालय
राधाकांत भारती*
नालंदा महाविहार (प्राचीन नालंदा विश्‍वविद्यालय) करीब आठ सौ वर्षों (पांचवी से 13वीं शताब्‍दी तक) विद्या का महान केन्‍द्र रहा। शुरू-शुरू में यह एक बौद्ध विहार था, जिसमें दुनिया के विभिन्‍न भागों से आए हुए हजारों भिक्षु रहते थे। अपने नालंदा प्रवास के दौरान वे बुद्धधम्‍म  और परिपत्ति तथा धम्‍मशासनम आदि के आधार पर बुद्धधम्‍म का अध्‍ययन करते थे। वरिष्‍ठ भिक्षु कनिष्‍ठ भिक्षुओं को उपदेश भी देते थे। इस तरह से प्राचीन नालंदा महाविहार की शुरूआत हुई। महाविहार विकसित हुआ और आखिरकार यह ऐसा विश्‍वविद्यालय बन गया, जिसकी दुनियाभर में कोई मिसाल नहीं थी। इसकी प्रतिष्‍ठा इतनी बढ़ी कि इसे विश्व विद्यालयों  का विश्‍वविद्यालय कहा जाने लगा।
     वस्‍तुत: नालंदा महाविहार सिर्फ विद्या का महान केन्‍द्र ही नहीं था। यह संस्‍कृति और सभ्‍यता का एक महान केन्‍द्र बन गया। यह ऐसा स्‍थान था, जहां बुद्ध धर्म और इसकी सभी शाखाओं का अध्‍ययन ही नहीं किया जाता था, बल्कि बुद्ध धर्म के विचारों से इतर अन्‍य  संस्‍कृतियों का भी गहराई से तुलनात्‍मक अध्‍ययन किया जाता था। इस प्रकार से यह बौद्ध संस्‍कृति का ही नहीं बल्कि भारतीय संस्‍कृति का केन्‍द्र बन गया।
इस विश्‍वविद्यालय का नाम और इसकी प्रतिष्‍ठा पूरे एशिया में फैल गई। एशिया के विभिन्‍न देशों से विद्वान आकर यहां बौद्ध धर्म का अध्‍ययन करते थे। जिन देशों से विद्वान अध्‍ययन के लिए आते थे उनमें चीन, तिब्‍बत, कोरिया, मंगोलिया, भूटान, इंडोनेशिया, मध्‍य एशिया आदि प्रमुख हैं।
     धीरे-धीरे विभिन्‍न देशों से विद्वानों का आदान-प्रदान शुरू हो गया। कोरिया, चीन और तिब्‍बत से बौद्ध भिक्षु नालंदा आया करते थे। तिब्‍बत से भी विद्वान नालंदा आते थे और बौद्ध धर्म और भारतीय संस्‍कृति के अपने ज्ञान में वृद्धि करते थे। इस प्रकार से नालंदा महाविहार के भिक्षु विद्वान संस्‍कृति के महान उपासक बन गए।
अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर बात करें, तो नालंदा को भारत के पर्यटक मानचित्र पर ऐसा स्‍थान दिया जा सकता है जो सर्वश्रेष्‍ठ, पुरातत्‍व स्‍थल है और जिस पर सभी भारतीयों को गर्व है। इस विश्‍वविद्यालय के खंडहर बड़गांव में पाए गए हैं। यह स्‍थान पूर्वी रेलवे लाइन की शाखा पर नालंदा रेलवे स्‍टेशन के पास बख्तियार-राजगीर ब्रांच लाइन पर पड़ता है। अगर कोई आज इस स्‍थान की तलाश में जाए तो उसे मौके पर नालंदा विश्‍वविद्यालय के आंशिक खुदाई वाले खंडहर मिलेंगे। इसके आस-पास ही अनेक गांव बस गए हैं, जिनमें बुद्ध की मूर्तियां विभिन्‍न रूपों में मिली हैं।
हालांकि इस स्‍थान को 1812 में फ्रांसीस बुकानन ने देखा था, लेकिन वह इसकी पहचान नहीं कर पाया। इस स्‍थान पर नियमित ढंग से खुदाई 1915 में शुरू हुई और दो दशकों तक पंडित हीरानन्‍द शास्‍त्री के अथक प्रयासों के बाद नालंदा का महान स्‍वरूप धरती की कोख से फिर प्रकट हुआ। अब इस स्‍थान को नालंदा के खंडहर कहा जाता है।
बोधिसत्‍व की तरह महावीर का जन्‍म भी ऐसे स्‍थान पर हुआ था, जिसके नाम से पहले नव लगता है। यह 1951 में वेन भिक्षु जगदीश कश्‍यप के समर्पित प्रयासों का नतीजा था। उनके उत्‍तराधिकारियों ने इन प्रयासों को आगे बढ़ाया। देश-विदेश के छात्रों और विद्वानों ने अध्‍ययन, ध्‍यान और बौद्धिक प्रयासों के जरिए इनका अध्‍ययन किया। इस स्‍थान पर एक संदर्भ विश्‍वविद्यालय, इस संस्‍थान के अनेक महत्‍वपूर्ण प्रकाशन, त्रिपिटकों के अंकीय संस्‍करण, बौद्ध धर्म का गहन अध्‍ययन, प्राकृत, संस्‍कृत ग्रंथों की सहायता से किया जाता है। इसके अलावा उन प्राचीन ग्रंथों के अध्‍ययन किये जाते हैं, जो नव नालंदा महाविहार की उपलब्धियां माने जाते हैं। नालंदा विश्‍वविद्यालय में क्‍सानजान (इन्‍हें आम तौर पर हुयेनसांग कहा जाता है), इनके नाम से ही चीन के इस यात्री की विद्वता और साधु प्रकृति झलकती है। दुनिया ने अगर बुद्ध धर्म को समझा है, तो इसमें हुयेनसांग की प्रतिभा का योगदान है। साथ ही, उन आचार्यों का भी योगदान है, जो भारत की ज्ञान पताका लेकर विदेश गए और वहां देश का नाम ऊँचा किया। अब नालंदा विश्‍वविद्यालय एक आकर्षक पर्यटक स्‍थल बन गया है, जहां महान क्‍सानजान की कांस्‍य की प्रतिमा स्‍थापित की गई है। इसके चारों तरफ जलाशय और फव्‍वारे लगाए गए हैं तथा यह स्‍थान हरी वाटिका से घिरा हुआ है।
नालंदा गुरु-शिष्‍य परम्‍परा की एक महान मिसाल थी। यह विशुद्ध भारतीय परम्‍परा है। इसके अंतर्गत शिष्‍य पर गुरु का पूरा आधिपत्‍य होता था, भले ही शैक्षिक विषयों पर असहमति की अनुमति थी। यह परंपरा हजारों वर्षों से चली आई थी और किसी अन्‍य स्‍थान की तरह नालंदा में ज्‍यादा फली-फूली।
गुरु-शिष्‍य परंपरा की चर्चा करते हुए आई त्सिंह कहते हैं ‘’ वह (शिष्‍य) गुरु के पास पहली बार रात में पहुंचता है। गुरु उसे पहली बार में बैठने का आदेश देते हैं और कहते हैं कि त्रिपिटकों में से किसी एक को चुन लो, वह उन्‍हें कुछ इस प्रकार से अध्‍ययन करने को कहते हैं, जो उन्‍हें और परिस्थितियों के अनुकूल होता है और ऐसा कोई तथ्‍य अथवा सिद्धांत नहीं बचता, जिसे वह स्‍पष्‍ट न करें। गुरु – शिष्‍य के नैतिक आचारण की परीक्षा लेते हैं और अगर कोई गलती या विचलन पाते हैं, तो उसे चेतावनी देते हैं। जब भी उन्‍हें शिष्य में कोई कमी दिखाई देती है, वह उसे दूर करने अथवा विनयपूर्वक पश्‍चाताप करने के लिए कहते हैं। शिष्‍य गुरु के शरीर की मालिश करता है उनके कपड़ों की तह करता है और कभी-कभी घर-बाहर झाडू भी लगाता है। इसके बाद जल परीक्षा होती है। इसके बाद भी अगर कुछ करना होता है, तो शिष्‍य गुरु की सेवा करता है।
इस बात पर कोई आश्‍चर्य नहीं कि गुरु और शिष्‍य दोनों ही उसी प्रकार के पीले वस्‍त्र पहनते थे, जिनकी चर्चा बौद्ध ग्रंथों में उपलब्‍ध है। ये वस्‍त्र कमर के चारों तरफ लिपटे होते थे और घुटनों के नीचे तक लटकते थे। गुरु – शिष्‍य दोनों ही सादा और सात्विक भोजन करते थे। हुयेनसांग के जीवनी के लेखक शाओमान हुई ली के अनुसार नालंदा विश्‍वविद्यलय का खर्च उसके आस-पास बसे लगभग एक सौ गांवों के निवासी उठाते थे।
नालंदा विश्‍वविद्यालय का विनाश तुर्क आक्रमणकारियों के हाथों हुआ और यह बहुत त्रासद रहा। 1205 ईसवी में जब बख्‍तियार खिलजी में नालंदा विश्‍वविद्यालय में आग लगा दी तो वह इसके जलने पर हंसता रहा। इस ज्ञान मंदिर को बनाने में जहां कई शताब्दियां लग गईं, वहीं इसको बर्बाद करने में कुछ ही घन्‍टे लगे। कहा तो यहां तक जाता है कि जब कुछ बौद्ध भिक्षु आक्रमणकारी से इस विश्‍व प्रसिद्ध विश्‍वविद्यालय के पुस्‍तकालय को नष्‍ट न करने के लिए अनुनय विनय कर रहे थे, तो उसने उन्‍हें ठोकर मारी और उसी आग में फिंकवा दिया, जिसमें पुस्‍तकें जल रही थीं। रत्‍नबोधि इस महान विश्‍वविद्यालय के पुस्‍तकालय का नाम था। इसके बाद बौद्ध भिक्षु इधर-उधर भाग गए और नालंदा की सिर्फ यादे ही शेष रहीं।
इस प्रकार से नालंदा विश्‍वविद्यालय की महान गाथा का अंत हुआ। इसकी चर्चा महान इतिहासकार हैमिलटन और बाद में अलेक्‍जेंडर कनिंघम ने की है। 1915 में इस स्‍थान पर खुदाई शुरू की गई, जो 20 वर्षों तक जारी रही। अब भी करने को बहुत कुछ बाकी है। नव नालंदा महाविहार इस स्‍थान के बगल ही स्थित है।
आधुनिक सरकार ने नालंदा विश्वविद्यालय के पुनरूद्धार के लिए अनेक प्रयास किए हैं। अब संसद ने नालंदा विश्वविद्यालय विधेयक पास किया है, जिसके अनुसार केन्‍द्र और राज्‍य सरकारों ने नालंदा शिक्षा संस्‍थान को वर्ल्‍डक्‍लास का दर्जा देने के लिए अपने प्रयास शुरू कर दिए हैं। 

महात्मा गांधी: सर्वश्रेष्ठ प्रचारक

महात्मा गांधी: सर्वश्रेष्ठ प्रचारक

*ओपी शर्मा-
      राष्ट्रपिता महात्मा गांधी महानतम स्वाधीनता सेनानियों में से एक थे। वे महान क्रांतिकारी समाज सुधारक और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि वे एक अच्छे वक्ता थे। उनके सिद्धांत न केवल आदर्शवादी थेबल्कि वे अपने संदेश को जन-जन के बीच प्रचारित करने में भी सक्षम थे। इसके लिए वे प्रचलित मीडियाज्यादातर पत्र पत्रिकाओं और जन सभाओं का इस्तेमाल करते थे। उनके नेतृत्त्व के अन्य गुणों में उनका सर्वश्रेष्ठ अधिवक्ता होना शामिल है। उनकी विशिष्टता थी कि वे संदेश में पक्का विश्वास रखते थे और अपने दर्शन को कुशलतापूर्वक व्यक्त करने से पहले स्वयं उस पर अमल करते थे। उन्होंने अपने विचारों को व्यक्तिगत जीवन में अपनाते हुए स्वयं एक उदाहरण बनकर लोगों के सामने रखा।
      ‘‘माई एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रुथ’’ यानी ‘‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’’ शीर्षक से प्रकाशित आत्मकथा में  उन्होंने अपने जीवन का वास्तविक वर्णन किया है और अपने सिद्धांतों पर अमल करने का व्यक्तिगत उदाहरण पेश किया है। एक वक्ताके रूप में उनकी सफलता के पीछे यही रहस्य रहा है।
         महात्मा गांधी इस बात को किसी भी अन्य व्यक्ति की तुलना में अधिक महत्व देते थे कि कौशलपूर्ण संचार जनमत तैयार करने और लोकप्रिय समर्थन जुटाने का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम है। उन्हें जन समर्थन हासिल करने में सफलता मिली क्योंकि उनमें अभिव्यक्ति का कौशल छिपा था जो 1903 में दक्षिण अफ्रीका की यात्रा प्रारंभ होने के समय प्रकट हुआ। ‘‘द इंडियन ओपिनियन’’ के रूप में गांधी जी की पत्रकारिता उस युग से सम्बद्ध थीजब आधुनिक जनसंचार उपकरणों का अभाव था।
  मीडिया का सफलतापूर्वक इस्तेमाल
         9 जनवरी, 1913 को स्वदेश लौटने के बाद उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व किया। गांधीजी ने राष्ट्रवादी प्रेस और अपने पत्र यंग इंडिया’, नवजीवन और अन्य आवधिक पत्र पत्रिकाओं का इस्तेमाल देश के कोने कोने में पहुंचने के लिए किया। वे भली भांति जानते थे कि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों तक पहुंचने के लिए सदियों पुरानी मौखिक परंपराओं का सहारा लेना जरूरी है। इन परंपराओं में सार्वजनिक व्याख्यानप्रार्थना सभाएं और पद यात्राएं शामिल थीं। स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा देने और प्रेरक नेतृत्व को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने तथा अहिंसासत्याग्रह और सत्यनिष्ठा की बेजोड़ तकनीक के जरिए आजादी हासिल करने के लिए गांधीजी ने संचार के सभी उपलब्ध साधनों का इस्तेमाल किया।
      गांधीजी ने कभी एक क्षण के लिए भी समाचार पत्रों के महत्व को (ऐसे समय में जबकि रेडियो पर ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण था और टेलीविजन चैनलों का अस्तित्व नहीं था) कम करके नहीं आंका। वे सभी अखबारों को पढ़ते थे और किसी गलत बयानी या तथ्यों को गलत ढंग से पेश किए जाने के बारे में उपयुक्त जवाब देते थे। उनकी यह खासियत थी कि  उन्होंने परंपरागत और आधुनिक दोनों ही तरह के संचार माध्यमों का प्रभावकारी इस्तेमाल किया।
  अनुकरणीय शैली
        गांधीजी ने यंग इंडिया और अन्य पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से अपने व्यक्तित्व का अहसास कराया। इस बदलाव का असर शुरू में ही दिखाई देने लगा। उन्होंने पत्र पत्रिकाओं को अपने विचारों के संप्रेषण का माध्यम बना दिया। यंग इंडिया की प्रतियां अधिक संख्या मंे बिकने लगीं। देश में कई अखबारों को मिला कर जितना सर्कुलेशन थायंग इंडिया की प्रतियां उससे भी अधिक बिकने लगीं। उनमें न केवल नए विचार थे बल्कि सरल भाषा और शैली में पेश भी किया जा रहा थाजिससे गुणवत्तापूर्ण पत्रकारिता और लेखन की बयार बहने लगी थी। गांधीजी की यह बेजोड़ विशेषता थी कि वे अपने पत्र पत्रिकाओं के लिए विज्ञापन स्वीकार नहीं करते थे और अपने आलेखों को अन्य पत्र पत्रिकाओं में छपने देने की अनुमति प्रदान करते थे। इससे उनके विचार भारत और विदेश में अनेक पत्र पत्रिकाओं में निःशुल्क पुनः प्रकाशित होने लगे थे।
         गांधीजी ने यह सिद्ध कर दिया था कि शैली का अपना महत्व होता है और उनका लेखन प्रचलित लेखन से पूरी तरह भिन्न था। उनकी अंग्रेजी प्रामाणिक थी और वे किसी संदर्भ विशेष में सटीक शब्दों का इस्तेमाल करने के प्रति अत्यंत सजग रहते थे।  उनके वाक्य सरल और सुबोध होते थे। वास्तव में वे हृदय से लिखते थे और लक्षित पाठकों के दिलों को संबोधित करते थे। गांधीजी ने स्वयं घोषणा की थी कि उनकी पत्र पत्रिकाएंउनके विचारों का पर्याय हैं क्योंकि वे सभी राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों का हिस्सा हैंजिनमें जनता की समस्याओं पर गहन विचार मंथन किया जाता है।
  गांधीवादी युग
       वास्तव में गांधीजी कई नए तत्व लेकर आएजिनसे पत्रकारिता के क्षेत्र में एक मुक्त जीवन की शुरुआत हुई। उनके अनेक अनुयायियों ने लिखना शुरू किया और उनकी रचनाएं भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होने लगीं जिससे क्षेत्रीय पत्रकारिता का महत्व बढ़ने लगा और देश का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं रह गया जहां से कोई क्षेत्रीय अखबार न निकलता हो।
        एक प्रभावकारी प्रचारक के नाते गांधीजी निडर थे और उनके शब्द मुक्त होते थे। वे लाखों लोगों तक पहुंचे और उन्हें अपने लक्ष्य से अवगत कराया। गांधीजी संभवतः युग-प्रवर्तक और महानतम पत्रकार थे। उनके द्वारा संपादित साप्ताहिक संभवतः उस युग के महानतम साप्ताहिक थे। उन्होंने कोई विज्ञापन प्रकाशित नहीं किया लेकिन साथ ही अखबार को घाटे में नहीं जाने दिया। वे सरल और स्पष्ट लेकिन प्रभावशाली लिखते थेजिसमें जोशपूर्ण और ज्वलंत मुद्दे होते थे।
  अमिट छाप
      उन्होंने इस बात पर हमेशा जोर दिया कि ‘‘अखबार के उद्देश्यों में पहला यह है कि वह लोकप्रिय भावनाओं को समझे और उन्हें अभिव्यक्त करे। दूसरा उद्देश्य लोगों में वांछित संवेदनाएं पैदा करना और तीसरा उद्देश्य समाज की विकृतियों को निर्भय होकर उजागर करना है।’’
      राष्ट्रपिता महात्मा गांधी न केवल महानतम स्वतंत्रता सेनानी थेजो अहिंसा की बेजोड़ तकनीक के साथ संघर्ष कर रहे थे बल्कि वे एक सर्वोत्कृष्ट प्रचारक भी थे जिन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए जनमत तैयार किया। उन्होंने संचार के अन्य साधनों का भी अनुकूलतम सक्षमता और प्रभावकारिता के साथ इस्तेमाल किया और ‘‘खोजी पत्रकारिता’’ का प्रयोग करते हुए मीडिया में सही खबरों की कवरेज को प्रोत्साहित किया। महात्मा गांधी ने अपने राजनीतिक जीवन में उच्च नैतिक मूल्यों का पालन किया और ऐसी जनसंचार पद्धति शुरू की जो हर युग के लिए एक प्रकाश स्तंभ है।

अकेलों की सहयात्रा


       Maya Mrig


अकेलों की सहयात्रा  

                                                             Maya Mrig



अपनी अपनी गठरियां कांख में दबाए
अपने अपने बोझे सिर पर लादे
अपने अपने पैरों की बिवाइयां संभालते
अपने पीछे छूटे हुए सामान पर मालिकाना हक 
बनाए रखते हुए...साथ चलना 
....अकेलेपन के लिए कोई चुनौती नहीं.....।

दो अकेलों के साथ चलने पर 
अकेलापन टूटता है कि नहीं...पता नहीं
इतना तय है कि अकेलापन साथ चलने से रोकता नहीं...।

रुक जाने की हजार वजह हैं
चलने की बस एक वजह...चलना है...
दो अकेले सहयात्री निरुद्देश्‍य....अपने अपने संदेहों के बीच....निसंदेह......।

राह भर तुम देखना पहाड़
मुझे पत्‍थरों के बीच बहती वह पतली धारा देखने दो
तुम चाहो तो पेड़ की ऊंचाई और हरियाली पर मुग्‍ध हो जाओ
मेरे इसकी सूखी टहनी देखने पर तुम्‍हें क्‍या एतराज...।

वह पहाड़ी चिडि़या नहीं जानती
कि तुम उसे नजर भर देख रहे हो
यह उसकी कल्‍पना से बाहर है कि मैं उसे छूने की कल्‍पना में गदगद् हूं...
तुम उसके सुन्‍दर पंख देखो,
मुझे इसकी उड़ान आंकने दो
तुम्‍हें पता है इसकी चोंच दाना भर भूख में
पेड़ों के तने छेद डालती है
मुझे इससे पूछना है कि इसे कितना अच्‍छा लगता है आसमां...।

राह चलते गाहे बगाहे जब छू जाएं हमारे झूलते हुए हाथ
वह साझा नहीं है सुखों का, वह बांट नहीं है दुखों की
इस शाश्‍वत नियम के अपवाद नहीं हैं हम कि
अकेलों के बीच साझेदारियां नहीं होती
अपने अपने अकेलेपन को ि‍फसलने से रोक लेंगे
उंगुलियों के पोरों पर ही....।

जरा सा रगड़कर दोनों हथेलियों को आपस में
पहाड़ की सर्दी से जूझ रहे होंगे और
जुटा रहे होंगे जीने की गरमाई...अपने से ही..
और बचा रहें होंगे अपना अकेलापन...।

तमाम सफर..बर्फ होते रिश्‍तों पर बहस जारी रहेगी
किसी बहाने की तरह....
पता नहीं कब तक चलना है....
मुझे नहीं पता यह रास्‍ता कहां तक जाता है
तुम्‍हें भी नहीं जानना कहां लेकर जाएगा ये
हम दोनों नहीं जानते ये रास्‍ता सही है या गलत...
बस इतना काफी है, साथ चलते रहने को....।