अकेलों की सहयात्रा
Maya Mrig
अपनी अपनी गठरियां कांख में दबाए
अपने अपने बोझे सिर पर लादे
अपने अपने पैरों की बिवाइयां संभालते
अपने पीछे छूटे हुए सामान पर मालिकाना हक
बनाए रखते हुए...साथ चलना
....अकेलेपन के लिए कोई चुनौती नहीं.....।
दो अकेलों के साथ चलने पर
अकेलापन टूटता है कि नहीं...पता नहीं
इतना तय है कि अकेलापन साथ चलने से रोकता नहीं...।
रुक जाने की हजार वजह हैं
चलने की बस एक वजह...चलना है...
दो अकेले सहयात्री निरुद्देश्य....अपने अपने संदेहों के बीच....निसंदेह......।
राह भर तुम देखना पहाड़
मुझे पत्थरों के बीच बहती वह पतली धारा देखने दो
तुम चाहो तो पेड़ की ऊंचाई और हरियाली पर मुग्ध हो जाओ
मेरे इसकी सूखी टहनी देखने पर तुम्हें क्या एतराज...।
वह पहाड़ी चिडि़या नहीं जानती
कि तुम उसे नजर भर देख रहे हो
यह उसकी कल्पना से बाहर है कि मैं उसे छूने की कल्पना में गदगद् हूं...
तुम उसके सुन्दर पंख देखो,
मुझे इसकी उड़ान आंकने दो
तुम्हें पता है इसकी चोंच दाना भर भूख में
पेड़ों के तने छेद डालती है
मुझे इससे पूछना है कि इसे कितना अच्छा लगता है आसमां...।
राह चलते गाहे बगाहे जब छू जाएं हमारे झूलते हुए हाथ
वह साझा नहीं है सुखों का, वह बांट नहीं है दुखों की
इस शाश्वत नियम के अपवाद नहीं हैं हम कि
अकेलों के बीच साझेदारियां नहीं होती
अपने अपने अकेलेपन को िफसलने से रोक लेंगे
उंगुलियों के पोरों पर ही....।
जरा सा रगड़कर दोनों हथेलियों को आपस में
पहाड़ की सर्दी से जूझ रहे होंगे और
जुटा रहे होंगे जीने की गरमाई...अपने से ही..
और बचा रहें होंगे अपना अकेलापन...।
तमाम सफर..बर्फ होते रिश्तों पर बहस जारी रहेगी
किसी बहाने की तरह....
पता नहीं कब तक चलना है....
मुझे नहीं पता यह रास्ता कहां तक जाता है
तुम्हें भी नहीं जानना कहां लेकर जाएगा ये
हम दोनों नहीं जानते ये रास्ता सही है या गलत...
बस इतना काफी है, साथ चलते रहने को....।
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