Tuesday, March 26, 2013
Wednesday, March 20, 2013
Monday, March 4, 2013
कविता‘ किरण
कविता
---किरण
नामुमकिन को मुमकिन करने निकले हैं
हम छलनी में पानी भरने निकले हैं
आँसू पोंछ न पाये अपनी आँखों के
और जगत की पीड़ा हरने निकले हैं
जैसे उड़ने की कोशिश हो पिंजरें में
रेत का दरिया पार उतरने निकले हैं
पानी बरस रहा है जंगल गीला है
हम ऐसे मौसम में मरने निकले हैं
होंठों पर तो कर पाये साकार नहीं
चित्रों पर मुस्कानें धरने निकले हैं
पाँव पड़े न जिन पर अब तक सावन के
ऐसी चट्टानों से झरने निकले हैं
बाती गुमसुम है दीपों में दहशत है
अंधियारे किरणों को वरने निकले है
---kavita'kiran
कविता मैथिलीशरण गुप्त

नर हो न निराश करो मन को
मैथिलीशरण गुप्त
नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को ।
संभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को ।
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को ।
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को ।
Friday, March 1, 2013
गीत अमीर खुसरो
गीत अमीर खुसरो
चल खुसरो घर आपने
खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग।
तन मेरो मन पियो को, दोउ भए एक रंग।।
खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग।
तन मेरो मन पियो को, दोउ भए एक रंग।।
खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वा की धार।
जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार।।
खीर पकायी जतन से, चरखा दिया जला।
आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजा।।
गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस।
चल खुसरो घर आपने, सांझ भयी चहु देस।।
खुसरो मौला के रुठते, पीर के सरने जाय।
कहे खुसरो पीर के रुठते, मौला नहिं होत सहाय।।
बहुत कठिन है डगर पनघट की
बहुत कठिन है डगर पनघट की
कैसे मैं भर लाऊं मधवा से मटकी
पनिया भरन को मैं जो गई थी
दौड़ झपट मोरी मटकी पटकी?
खुसरो निजाम के बल बल जइये
लाज रखो मोरे घूंघट पट की
बहुत कठिन है डगर पनघट की
कैसे मैं भर लाऊं मधवा से मटकी
पनिया भरन को मैं जो गई थी
दौड़ झपट मोरी मटकी पटकी?
खुसरो निजाम के बल बल जइये
लाज रखो मोरे घूंघट पट की
'कविता किरण' की कविता‘
'कविता किरण' की कविता‘
धूप है, बरसात है, और हाथ में छाता नहीं
दिल मेरा इस हाल में भी अब तो घबराता नहीं
मुश्कि़लें जिसमें न हों वो जि़ंदगी क्या जिंदगी
राह हो आसां तो चलने का मज़ा आता नहीं
चाहनेवालों में षिद्दत की मुहब्बत थी मग़र
जिस्म से रिष्ता रहा था रूह से नाता नहीं
माँगते देखा है सबको आस्माँ से कुछ न कुछ
दीन हैं सारे यहां कोई भी तो दाता नहीं
मिला गया वो सब क़तई जिसकी नहीं उमींदथी
पर जो पाना चाहते थे दिल वही पाता नहीं
जि़दगी अपनी तरह कब कौन जी पाया ‘किरण’
वक्त लिखता है वो नग़में दिल जिसे गाता नहीं
- कविता‘ किरण
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