Monday, March 4, 2013

कविता‘ किरण


      कविता
   
               ---किरण
 

नामुमकिन को मुमकिन करने निकले हैं
 

हम छलनी में पानी भरने निकले हैं

आँसू पोंछ न पाये अपनी आँखों के
 

और जगत की पीड़ा हरने निकले हैं

जैसे उड़ने की कोशिश हो पिंजरें में
 

रेत का दरिया पार उतरने निकले हैं

 

पानी बरस रहा है जंगल गीला है
 

हम ऐसे मौसम में मरने निकले हैं

होंठों पर तो कर पाये साकार नहीं
 

चित्रों पर मुस्कानें धरने निकले हैं
 

पाँव पड़े न जिन पर अब तक सावन के
 

ऐसी चट्टानों से झरने निकले हैं

बाती गुमसुम है दीपों में दहशत है 
 

अंधियारे किरणों को वरने निकले है
                             
                       ---kavita'kiran

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