Monday, December 2, 2019


-#- सुप्रभात -#-·
अपने पौरूष से आसमान झुका सकते हैं ;
मरूस्थलों में फूल मन के खिला सकते हैं |
बैसाखियॉ भाग्य की लेकर नहीं चलने वाले-
महल आशाओं के हाथों पर सजा सकते हैं ||
        
                  ----- कौशल किशोर वर्मा



Saturday, August 10, 2019


'गीतों के राजकुमार'

कहलाने वाले
गोपालसिंह नेपाली
की जयंती (11 अगस्त 1911) पर
प्रस्तुत है उनकी यह रचना:
नवीन कल्पना करो
निज राष्ट्र के शरीर के सिंगार के लिए
तुम कल्पना करो, नवीन कल्पना करो,
तुम कल्पना करो।
अब देश है स्वतंत्र, मेदिनी स्वतंत्र है
मधुमास है स्वतंत्र, चाँदनी स्वतंत्र है
हर दीप है स्वतंत्र, रोशनी स्वतंत्र है
अब शक्ति की ज्वलंत दामिनी स्वतंत्र है
लेकर अनंत शक्तियाँ सद्यः समृद्धि की
तुम कामना करो, किशोर कामना करो,
तुम कल्पना करो।
तन की स्वतंत्रता चरित्र का निखार है
मन की स्वतंत्रता विचार की बहार है
घर की स्वतंत्रता समाज का सिंगार है
पर देश की स्वतंत्रता अमर पुकार है
टूटे कभी न तार यह अमर पुकार का
तुम साधना करो, अनंत साधना करो,
तुम कल्पना करो।
हम थे अभी-अभी गुलाम, यह न भूलना
करना पड़ा हमें सलाम, यह न भूलना
रोते फिरे उमर तमाम, यह न भूलना
था फूट का मिला इनाम, वह न भूलना
बीती गुलामियाँ न लौट आएँ फिर कभी
तुम भावना करो, स्वतंत्र भावना करो
तुम कल्पना करो।
-----------गोपाल सिंह नेपाली************************************
मूल नाम : गोपाल बहादुर सिंह
जन्म : 11 अगस्त, 1911, बेतिया, पश्चिम चंपारण (बिहार)

Wednesday, July 24, 2019


सुप्रभात

देख मुश्किलें पाषाण सी आँखे न बंद कीजिये
चहुँ ओर से आप अपनी राहें न बंद कीजिये
विश्वास हो अगर खुद पे तो मिल जाएगी मंज़िल 
आशा के दीप की कभी किरणे न बंद कीजिये
-------- रेखा जोशी







चंद्रशेखर 'आज़ाद' --- श्रीकृष्ण सरल



   आजाद, देश की आजादी का वह रहस्य,
जिसने जाना, वह बना देश का दीवाना।
जो जान न पाया, उस कृतघ्न का क्या कहना,
है अर्थहीन उसका जग में आना-जाना।
आजाद प्रेरणा-स्रोत अमर हर पीढ़ी का,
धरती की आजादी प्राणों से प्यारी हो।
यौवन अंगारों से अपना शृंगार करे,
हर फूल वज्र, हर कली कराल कटारी हो।
(रचनाकार - श्रीकृष्ण सरल

Friday, May 17, 2019

बुद्ध पूर्णिमा के पावन अवसर पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ






सुनो तथागत!


   ------ कवि ज्ञान प्रकाश आकुल जी
सुनो तथागत!
इस पीड़ा का सही सही उच्चारण क्या है?
जग के दु: का कारण तृष्णा
मेरे दुःख का कारण क्या है?
तुमने युग का हर हल खोजा
लेकिन नया सवाल खड़ा है,
बुद्ध तुम्हारे जैसा चेहरा
लेकर अंगुलि माल खड़ा है,
तुम्ही बताओ दो चेहरों को
अलग अलग कैसे पहचानूं
हर दोहरे चरित्र में आखिर
क्या विशेष साधारण क्या है?
मैं भटका हूँ उपदेशों से
केवल अब तक मौन बचा है,
बाहर से तन समाधिस्थ है
भीतर अंतर्द्वंद्व मचा है,
देख देख युग की विपदायें
शान्ति क्रान्ति में बदल रही है
अगर क्रान्ति से सुलग उठे मन
तो फिर कहो निवारण क्या है?
अपना दीप बनाया खुद को
किंतु हवाओं से उलझा हूँ,
हे अमिताभ! तुम्हीं कुछ बोलो
जिज्ञासाओं से उलझा हूँ,
क्रान्ति शान्ति से कैसे आये
कई बार मैं सोच चुका हूँ,
परिवर्तन की जटिल प्रक्रिया
का सम्यक् निर्धारण क्या है?
    ------- आकुल




बुद्ध पूर्णिमा के पावन अवसर पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ
बुद्ध और नाचघर (कविता)
----------
हरिवंशराय बच्चन
"बुद्धं शरणं गच्छामि,
धम्मं शरणं गच्छामि,
संघं शरणं गच्छामि।"
बुद्ध भगवान,
जहाँ था धन, वैभव, ऐश्वछर्य का भंडार,
जहाँ था, पल-पल पर सुख,
जहाँ था पग-पग पर श्रृंगार,
जहाँ रूप, रस, यौवन की थी सदा बहार,
वहाँ पर लेकर जन्म ,
वहाँ पर पल, बढ़, पाकर विकास,
कहाँ से तुम्में् जाग उठा
अपने चारों ओर के संसार पर
संदेह, अविश्वास?
और अचानक एक दिन
तुमने उठा ही तो लिया
उस कनक-घट का ढक्कगन,
पाया उसे विष-रस भरा।
दुल्हउन की जिसे पहनाई गई थी पोशाक,
वह तो थी सड़ी-गली लाश।
तुम रहे अवाक्,
हुए हैरान,
क्यों अपने को धोखे में रक्खेा है इंसान,
क्यों वे पी रहे है विष के घूँट,
जो निकलता है फूट-फूट?
क्याि यही है सुख-साज
कि मनुष्य खुजला रहा है अपनी खाज?
निकल गए तुम दूर देश,
वनों-पर्वतों की ओर,
खोजने उस रोग का कारण,
उस रोग का निदान।
बड़े-बड़े पंडितों को तुमने लिया थाह,
मोटे-मोटे ग्रंथों को लिया अवगाह,
सुखाया जंगलों में तन,
साधा साधना से मन,
सफल हुया श्रम,
सफल हुआ तप,
आया प्रकाश का क्षण,
पाया तुमने ज्ञान शुद्ध,
हो गए प्रबुद्ध।
देने लगे जगह-जगह उपदेश,
जगह-जगह व्यादख्या ,
देखकर तुम्हाजरा दिव्यय वेश,
घेरने लगे तुम्हेंश लोग,
सुनने को नई बात
हमेशा रहता है तैयार इंसान,
कहनेवाला भले ही हो शैतान,
तुम तो थे भगवान।
जीवन है एक चुभा हुआ तीर,
छटपटाता मन, तड़फड़ाता शरीर।
सच्चातई है- सिद्ध करने की जररूरत है?
पीर, पीर, पीर।
तीर को दो पहले निकाल,
किसने किया शर का संधान?-
क्यों किया शर का संधान?
किस किस्मा का है बाण?
ये हैं बाद के सवाल।
तीर को पहले दो निकाल।
जगत है चलायमान,
बहती नदी के समान,
पार कर जाओ इसे तैरकर,
इस पर बना नहीं सकते घर।
जो कुछ है हमारे भीतर-बाहर,
दीखता-सा दुखकर-सुखकर,
वह है हमारे कर्मों का फल।
कर्म है अटल।
चलो मेरे मार्ग पर अगर,
उससे अलग रहना है भी नहीं कठिन,
उसे वश में करना है सरल।
अंत में, सबका है यह सार-
जीवन दुख ही दुख का है विस्तायर,
दुख की इच्छाद है आधार,
अगर इच्छा् को लो जीत,
पा सकते हो दुखों से निस्ताीर,
पा सकते हो निर्वाण पुनीत।
ध्वसनित-प्रतिध्वतनित
तुम्हाेरी वाणी से हुई आधी ज़मीन-
भारत, ब्रम्हाे, लंका, स्या ,
तिब्बात, मंगोलिया जापान, चीन-
उठ पड़े मठ, पैगोडा, विहार,
जिनमें भिक्षुणी, भिक्षुओं की क़तार
मुँड़ाकर सिर, पीला चीवर धार
करने लगी प्रवेश
करती इस मंत्र का उच्चाार :
"
बुद्धं शरणं गच्छाीमि,
ध्मंधं शरणं गच्छािमि,
संघं शरणं गच्छाछमि।"
कुछ दिन चलता है तेज़
हर नया प्रवाह,
मनुष्य उठा चौंक, हो गया आगाह।
वाह री मानवता,
तू भी करती है कमाल,
आया करें पीर, पैगम्बमर, आचार्य,
महंत, महात्माछ हज़ार,
लाया करें अहदनामे इलहाम,
छाँटा करें अक्लम बघारा करें ज्ञान,
दिया करें प्रवचन, वाज़,
तू एक कान से सुनती,
दूसरे सी देती निकाल,
चलती है अपनी समय-सिद्ध चाल।
जहाँ हैं तेरी बस्तियाँ, तेरे बाज़ार,
तेरे लेन-देन, तेरे कमाई-खर्च के स्था,,
वहाँ कहाँ हैं
राम, कृष्णँ, बुद्ध, मुहम्मयद, ईसा के
कोई निशान।
इनकी भी अच्छी चलाई बात,
इनकी क्याच बिसात,
इनमें से कोई अवतार,
कोई स्वेर्ग का पूत,
कोई स्वेर्ग का दूत,
ईश्वसर को भी इनसे नहीं रखने दिया हाथ।
इसने समझ लिया था पहले ही
ख़दा साबित होंगे ख़तरनाक,
अल्लासह, वबालेजान, फज़ीहत,
अगर वे रहेंगे मौजूद
हर जगह, हर वक्तह।
झूठ-फरेब, छल-कपट, चोरी,
जारी, दग़ाबाजी, छोना-छोरी, सीनाज़ोरी
कहाँ फिर लेंगी पनाह;
ग़रज़, कि बंद हो जाएगा दुनिया का सब काम,
सोचो, कि अगर अपनी प्रेयसी से करते हो तुम प्रेमालाप
और पहुँच जाएँ तुम्हागरे अब्बा जान,
तब क्याच होगा तुम्हाीरा हाल।
तबीयत पड़ जाएगी ढीली,
नशा सब हो जाएगा काफ़ूर,
एक दूसरे से हटकर दूर
देखोगे एक दूसरे का मुँह?
मानवता का बुरा होता हाल
अगर ईश्वार डटा रहता सब जगह, सब काल।
इसने बनवाकर मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर
ख़ुदा को कर दिया है बंद;
ये हैं ख़ुदा के जेल,
जिन्हेंख यह-देखो तो इसका व्यंाग्यल-
कहती है श्रद्धा-पूजा के स्थाइन।
कहती है उनसे,
"
आप यहीं करें आराम,
दुनिया जपती है आपका नाम,
मैं मिल जाऊँगी सुबह-शाम,
दिन-रात बहुत रहता है काम।"
अल्लाि पर लगा है ताला,
बंदे करें मनमानी, रँगरेल।
वाह री दुनिया,
तूने ख़ुदा का बनाया है खूब मज़ाक,
खूब खेल।"
जहाँ ख़ुदा की नहीं गली दाल,
वहाँ बुद्ध की क्या चलती चाल,
वे थे मूर्ति के खिलाफ,
इसने उन्हीं की बनाई मूर्ति,
वे थे पूजा के विरुद्ध,
इसने उन्हींक को दिया पूज,
उन्हेंन ईश्वकर में था अविश्वाास,
इसने उन्हींक को कह दिया भगवान,
वे आए थे फैलाने को वैराग्यद,
मिटाने को सिंगार-पटार,
इसने उन्हींि को बना दिया श्रृंगार।
बनाया उनका सुंदर आकार;
उनका बेलमुँड था शीश,
इसने लगाए बाल घूंघरदार;
और मिट्टी,लकड़ी, पत्थंर, लोहा,
ताँबा, पीतल, चाँदी, सोना,
मूँगा, नीलम, पन्नाग, हाथी दाँत-
सबके अंदर उन्हें डाल, तराश, खराद, निकाल
बना दिया उन्हेंू बाज़ार में बिकने का सामान।
पेकिंग से शिकागो तक
कोई नहीं क्यूारियों की दूकान
जहाँ, भले ही और हो कुछ,
बुद्ध की मूर्ति मिले जो माँगो।
बुद्ध भगवान,
अमीरों के ड्राइंगरूम,
रईसों के मकान
तुम्हाकरे चित्र, तुम्हाारी मूर्ति से शोभायमान।
पर वे हैं तुम्हा रे दर्शन से अनभिज्ञ,
तुम्हाहरे विचारों से अनजान,
सपने में भी उन्हेंि इसका नहीं आता ध्यामन।
शेर की खाल, हिरन की सींग,
कला-कारीगरी के नमूनों के साथ
तुम भी हो आसीन,
लोगों की सौंदर्य-प्रियता को
देते हुए तसकीन,
इसीलिए तुमने एक की थी
आसमान-ज़मीन?
और आज
देखा है मैंने,
एक ओर है तुम्हा री प्रतिमा
दूसरी ओर है डांसिंग हाल,
हे पशुओं पर दया के प्रचारक,
अहिंसा के अवतार,
परम विरक्तअ,
संयम साकार,
मची है तुम्हाारे रूप-यौवन के ठेल-पेल,
इच्छाै और वासना खुलकर रही हैं खेल,
गाय-सुअर के गोश्तु का उड़ रहा है कबाब
गिलास पर गिलास
पी जा रही है शराब-
पिया जा रहा है पाइप, सिगरेट, सिगार,
धुआँधार,
लोग हो रहे हैं नशे में लाल।
युवकों ने युवतियों को खींच
लिया है बाहों में भींच,
छाती और सीने गए हैं पास,
होंठों-अधरों के बीच
शुरू हो गई है बात,
शुरू हो गया है नाच,
आर्केर्स्ट्रा के साज़-
ट्रंपेट, क्लैसरिनेट, कारनेट-पर साथ
बज उठा है जाज़,
निकालती है आवाज़ :
"
मद्यं शरणं गच्छा मि,
मांसं शरणं गच्छा मि,
डांसं शरणं गच्छा मि।
"
---------- हरिवंशराय बच्चन