Saturday, November 24, 2012

Live with a simple attitude.



‘‘2 get’’ and ‘‘2 give’’
creates many problems in life.

Just double it.

‘‘4 get’’ and ‘‘4 give’’
solves many problems in life.

Live with a simple attitude.

सामाजिक कार्यकर्ता गिजुभाई

सामाजिक कार्यकर्ता-

गिजुभाई एक सामाजिक कार्यकर्ता थे। उन्होने  समाज में प्रचलित बुराइयों को खत्म करने का प्रयास किया। इनमें से एक बुराई है कि समाज में व्याप्त रिश्वत या घूस। गिजुभाई का मानना है कि समाज में व्याप्त रिश्वत या घूस का कारण बाल शिक्षण के कुसंस्कारों मे ही निहित है। बालक को एक टाफी देकर हम अपने मेहमान को नमस्कार करवाते हंै या कविता सुनवाते हैं। पैसे देकर उसे कुछ काम करने के लिए कहते हैं। बेचारा बालक टाफी के लिए काम करता है परिणामस्वरुप उसके स्वभाव अथवा मनोभावों का ऐसा निर्माण हो जाता है कि हम उसे पैसा या कुछ और देकर ही काम करवा सकंेगे। शुरु-शुरु में इस तरफ हमारा ध्यान नही जाता, लेकिन जब विदेशी जासूस चन्द रुपये देकर हमारे कर्मचारियों से महत्त्वपूर्ण फाइले उठा ले जाते है, तब जाकर हमारी आंखे खुलती है। तब हम विचार करते है कि देशभक्ति आजकल पूर्णतया नष्ट हो गयी है। रिश्वत-भ्रष्टाचार चरम सीमा पर है, बिना लिए-दिए कोई भी काम करना संभव नहीं है। इसलिए गिजुभाई ने अपने बालमन्दिर से तथा अपनी शिक्षण पद्धति से पुरस्कार और स्पर्धा को निष्कासित कर दिया था। ताकि आज का बालक व कल का भावी नागरिक लोभी-लालची न बने तथा देश से इस दुर्गुण का उन्मूलन हो सके।
गिजुभाई के बालमन्दिर में सभी जातियों, धर्मों और वर्गों के बालकों को शिक्षा प्राप्त करने की स्वतंत्रता थी। वे बालक की स्वतंत्रता तथा शाला के स्वतंत्र वातावरण के हिमायती थे क्यांेकि उनका विचार था- ‘‘जाति या वर्ग के भेदों को बालक स्वच्छन्द वातावरण में तोड़ डालते हैं।’’  गिजुभाई ने दलित परिवारों के बालकों को पढ़ाने की शुरुआत की तो लोगों ने विरोध किया। लेकिन गिजुभाई ने अपना शिक्षण कार्य जारी रखा। इस घटना के बारे मे गिजुभाई कहते हैं- ‘‘जब मै उन्हे पढ़ाता था तो लोग चारों ओर देखने के लिए आ जाते और कहते थे: ‘भाई’ ! ब्राह्मण होकर इन ढेढों को पढ़ाते हो? उनके पास जाने से आप भ्रष्ट नही हो जाते हो?
मैं बोला: यह काम ब्राह्मण का ही तो है। अगर मै गुरु हूँ तो शिष्यों के पास जाने से भ्रष्ट नहीं हो जाऊँगा। गुरु कभी भ्रष्ट नहीं होगा।’’ गिजुभाई का विचार था कि शिक्षक अस्पृश्यता निवारण के लिए शिक्षा के माध्यम से पहल करें। शिक्षालयों का भी यह लक्ष्य होना चाहिए कि शिक्षा के माध्यम से ऊँच-नीच, जाति-धर्म, अमीर-गरीब का भेद समाप्त हो और प्रत्येक मनुष्य को समान अधिकार मिलें।
 अमीर गरीब का भेद उनके मस्तिष्क में नहीं था। भिन्न-भिन्न वातावरणों से आने वाले बालकों के साथ वे सावधानी पूर्वक व्यवहार करते थे। अमीर परिवार के बालकों को समझाकर वे उनकी आदते छुड़वाते थे। एक तरफ उनके प्रति पूर्ण सहानुभूति का व्यवहार और दूसरी ओर अपने सद्गुणों की अनाक्रामकता- अपने व्यक्त्वि को आरोपित न करने की ऐसी विशिष्टता गंाधी जी के अलावा बिरले ही व्यक्तियांे में दिखाई देती है।

सच्चे शिक्षक - गिजुभाई

सच्चे शिक्षक

    गिजुभाई एक सच्चे शिक्षक थे। वे जैसे स्वयं थे, उसी के अनुरुप वे भारत के शिक्षक की प्रतिमा का निर्माण करने के मिशन में निमग्न थे। शिक्षक आत्मसात करे बालक के व्यक्तित्व की स्वतंत्र अभिव्यक्ति को, आत्मगौरव प्राप्त करे बालक-बालिका के गौरव की सुरक्षा और उसके विकास में, अपने स्वातंन्न्य की अनुभूति करे उसकी स्वाधीनता अथवा उसके स्वावलम्बन की प्रवृत्ति को सजाने-संवारने में, और स्वयं का नियमन करे उसको सहज रुप से स्वयमेव नियमित करने में। जिस वातावरण की पृष्ठभूमि जाॅन लाक, रुसो, पेस्टालाॅजी, फ्रोबेल और टाॅलस्टाय ने तैयार की थी और जिसे मेरिया माण्टेसरी ने एक वैज्ञानिक नवाचार दिया; उसे भारतीय धरती पर संकल्पबद्ध होकर गिजुभाई ने विकसित किया। वे एक ऐसे अनुपम भारतीय बाल शिक्षाप्रज्ञ थे जो बालशिक्षण को किसी चैखटे तक ही सीमित नहीं रखना चाहते थे, बल्कि उसे सामाजिक पुनर्रचना के माध्यम के रुप में प्रयोग करना चाहते थे।
    गिजुभाई ने शिक्षक के रुप में एक कठिन काम कर के दिखा दिया। वह काम है- बालकों को डराए-धमकाए बिना प्यार से पढ़ाना और अनुशासित रखना इस सिद्धान्त को गिजुभाई की शिक्षा जगत को देन कहना समीचीन होगा।

Sunday, November 18, 2012

गिजुभाई का कोमल हृदय

             गिजुभाई का कोमल हृदय

     गिजुभाई के हृदय में बालकों के प्रति कोमलता भी अपरिमित थी। इस कथन के प्रमाण स्वरुप उन्ही का कथन प्रस्तुत है- ‘‘बालकों के साथ काम करना जितना प्राणदायी है उतना ही कठिन भी। बाल स्वभाव का ज्ञान, उनके प्रति हृदय का प्रेम संवेदन व सम्मान, उनके व्यक्तित्व के प्रति श्रद्धा तथा उन्हें अपने हृदय का प्रेम प्रदान करने से असंभव काम भी संभव हो जाते है। बालकों के प्रति की गयी भूल पर हमारा मन दुखी नही होता, तब तक हम न तो बाल-शिक्षण के योग्य हो सकते, न ही बालकों का भला कर सकते है। बालकों के सुखी होने का सुख मुझे याद है बल्कि जब वे दुखी होते है तो मन को व्यथित करने वाली दर्दनाक स्थिति अधिक याद रहती है। औरों के निमित्त दुखी होना, यह कदाचित मनुष्य का एक परम सुख हो सकता है।’
      ‘मुझे उनके सवाल याद है। जब तक कोई बालक योग्य नहीं हो जाता, तब तक मैं उसे पेंसिल नहीं देता। न देने का अर्थ नहीं देना है। पर इसके बावजूद बालको का जी दुखाकर मैं मना भी नहीं कर पाता। और यदि बालक सामने आकर लौट गया हो, मुझ पर से अपनी प्यार भरी दृष्टि वापिस खींच ली हो, तो मेरे दिल में तीर की सी वेदना होने लगती। मैं उसे किस तरह से प्रसन्न करुं; पेंसिल तो नहीं ही दी जा सकती। देने से उसे क्या लाभ मिलने का ? माई-बाप कहकर मनाऊं नहीं। न ही लाड़ लड़ाऊं। किसी और तरीके से प्रशंसा भी करुं, क्योंकि वह सब तो पुरस्कार-प्रशंसा वाला तरीका है। बालक को संकुचित-सा देखंू तो क्या मेरा मन दुखी न हो ?
      ‘आखिर शाम को छुट्टी हो जाती है। बच्चा बिना बोले घर चला जाता है तो मुझसे रहा नहीं जाता, न सहा जाता है। किसी बहाने मैं बच्चे के घर पर चला जाता हूं। उससे मिलता हूं, उससे बातें करता हूं। उसके मन को जब अपने से जुड़ा हुआ अनुभव करता हूं तभी मुझको प्रसन्नता होती है। और हल्का मन लेकर घर लौटता हूं। ऐसा स्वभाव है मेरा। बालकों की पसंद-नापसंद के विपरीत निर्णय लेता हूँ, तब भी वे मुझे चाहते हैं। इसका कारण मेरे मन का दब्बूपन नहीं, वरन् हृदय की आर्दता है।’
      ‘पर यह तो मेरा स्पष्टीकरण है। मेरा, यानी एक अदने से बाल-शिक्षक का, एक अनुभवी का। इससे किसी को जानने योग्य मिलेगा, इसी दृष्टि से लिखा है।’’
     गिजुभाई बालशिक्षा, बालस्वतंत्रता, बाल सम्मान बाल कल्याण, हिंसा से मुक्ति आदि के लिए जीवन पर्यन्त संघर्ष करते रहे। इस प्रकार गिजुभाई ने शिक्षा की नई दृष्टि के द्वारा बालशिक्षा की एक नवीन लहर खड़ी करने का प्रयास किया। इस हेतु उन्होने सहकर्मियों, शिक्षकों माता-पिता ,बालकों तथा समाज सभी को जागृत करके उनका ध्यान नवीन शिक्षण पद्धति तथा बालक की ओर उन्मुख किया। इसलिए, प्रसिद्ध साहित्यकार काका कालेलकर ने उन्हे श्रद्धांजलि देते हुए कहा था-
     ‘‘इस युग में गिजुभाई तथा ताराबेन मोडक ने जो काम किए हैं, उन पर कोई भी समाज गर्व का अनुभव कर सकता है। बालकों के उद्धारकर्ता गिजुभाई ने असंख्य माता-पिता को बालस्वातंत्र्य, बालभक्ति तथा बालपूजा की दीक्षा प्रदान की थी। बालभक्ति का पागलपन लगा देने वाले इन दोनो मिशनरियों ने मध्यम वर्ग का तमाम स्वरुप ही बदल डाला, तथा गुजरात भर में असंख्य बालमंदिरों का बीजारोपण कर दिया है।’’

विजय तु़मारी होगी


विजय तु़मारी होगी 



मंजिल मिलने से पहले पथ के काटे तो होंगे ही,,
      फसलो के उगने से पहले सीने पे हल तो होंगे ही,
नयी कोपले आने तक पतझड़ की पीड़ा तो होगी ही,
          ये जीवन सच है तो इसकी क्रीडा होगी ही, 
हार नहीं मानी गर मन ने तो विजय तु़मारी होगी ही

गिजुभाई .. सादगी की प्रतिमूर्ति


गिजुभाई .. सादगी  की प्रतिमूर्ति..    


           गिजुभाई सादगी की प्रतिमूर्ति थे। अपनी लम्बी मूँछो के बीच स्नेह का लहराता सागर जैसा वात्सल्य हृदय किसको अपनी ओर आकर्षित नहीं करता। एक सरल व्यक्तित्व जिसने माँ जैसा हृदय पाया। जिसने शिक्षा की ए बी सी डी अपने हाथों रची, एक महान मनोवैज्ञानिक, जिसने अबोध शिशुओं के हृदय में झांककर बालसेवा की विविध विधाओं को खोजा। गिजुभाई की दृष्टि कितनी पैनी थी, उनकी संवेदनशीलता जो किसी को एक दृष्टि में अपनी ओर आकर्षित कर लेती थी। उनकी मूँछो के बीच चश्मे के तले मन्द-मन्द मुस्कान में कुछ ऐसा जादू था कि जो उनसे बात करता, उसमें बच्चों की सेवा की पे्ररणा उत्पन्न हो जाती। गिजुभाई की बालशिक्षण में रुचि थी। उनके निकट हर कोई उनका शिक्षक था। वे सबसे सीखने को तैयार रहते थे। वे बालक से हर क्षण कुछ सीखना चाहते थे, वह बच्चों के बीच रहते, उनके साथ उन्हें जो मिलता, उनके जैसे व्यवहार होते, उन्ही के अनुसार उनकी शिक्षा पद्धति बनती। उनका दर्शन अलौकिक था। सच्चे अर्थों में वे फकीर थे। जीवन का नया प्रकाश उन्होने खोजा। बालकों की शिक्षा के लिए बालमन्दिरों की स्थापना की। यह कार्य उन्होने वाहवाही लूटने के उद्देश्य से नहीं किया था। किसी के द्वारा प्रशंसा किए जाने पर वे कहते थे ‘‘यह अपने बस का रोग नहीं है।’’

अहिंसा के पुजारी : गिजुभाई



अहिंसा के पुजारी : गिजुभाई



          गिजुभाई अहिंसा के पुजारी थे। अनका विचार था कि बालक में जन्म से अक्रामक प्रवृत्ति विद्यमान नहीं रहती है। आक्रामक प्रवृत्ति कुशिक्षा का परिणाम है और उचित शिक्षा के द्वारा इस प्रवृत्ति को विकसित होने से रोका जा सकता है। इसके लिए उन्होने शालाओं में अहिंसा का वातावरण निर्मित करने पर बल दिया। उन्होने कहा- ‘‘हमें बालमन्दिर से दंड और सजा को मिटा कर ही संसार से हिंसा, त्रास एवं अत्याचारों को स्थायी रूप से समाप्त करना है।'' उन्हे शिक्षा में नहीं वरन् शिक्षा देने के ढंग मे दोष दिखाई दिया। अतः वे कहते है कि ‘‘तमाचा मारकर पढ़ने का काम तो दूसरे सब कर ही रहे है और उसका फल मैं तो यह देख रहा हू  कि लड़के बेहद असभ्य,अशांत  और अव्यवस्थित हैं। गिजुभाई ने अपने बालमन्दिर में दण्ड रहित व सजाविहीन वातावरण निर्मित किया क्योकि उनका मानना था कि बालक निर्बल है। निर्बल को दंड देना हिंसा से भी बदतर है। बालक को सजा देकर हम आने वाली पीढ़ी के मूल में हिंसा का जल ही सीचेंगे। इस प्रकार शिक्षा के माध्यम से एक अहिंसावादी बालक, व अहिंसक समाज की स्थापना करने का प्रयत्न किया।
     गिजुभाई जानते थे कि संहार वृत्ति का विकल्प सृजन शक्ति है और आक्रामकता का समाधान अंतःकरण की तृप्ति है। यदि बालकों की शिक्षा में सृजनात्मक प्रवृत्तियों को शामिल किया जाए तथा उन्हें स्वयं-स्फुरित काम करने दे तो उनका अंतः तृप्ति का मार्ग खुलेगा दूसरों को दखल देने अथवा उनसे ईष्र्या करने, उन्हे नीचे गिराकर खुद बड़ा बनने का दुर्गुण उनके स्वभाव में नही आ पायेगा। इसलिए गिजुभाई ने बालमन्दिर में स्व-स्फुरित प्रवृत्तियों व सृजनात्मक कार्यों का शिक्षा मे समावेश किया था।

Saturday, November 17, 2012

गिजुभाई और बालक की स्वाधीनता



गिजुभाई और बालक की स्वाधीनता

          गिजुभाई बालकों की स्वाधीनता के समर्थक थे। उन्होने एक उदघोषणा में कहा था- ‘‘बालक को स्वतंत्र किए बिना स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं। ‘‘ संसार के सभी विकसित और प्रवुद्ध देश बालक की आजादी के लिए प्रयासरत हैं। बीसवीं शताब्दी का यह महापुरुष एक महान दूर दृष्टा था। जब किसी बालक पर अत्याचार होते देखता, किसी बालक को कोई उदण्ड या शैतान कहकर पुकारता, खेल पर रोक लगाता अथवा बालक के प्रति कोई अन्याय करता, तो गिजुभाई उस पर वरस पड़ते। उन्होने बालक को गहराई से समझा था, उसका अध्ययन किया था और निकट से देखकर वे उसके समग्र स्वरुप को समाज में उजागर करना चाहते थे। समाज में बालक के प्रति जो मिथ्या धारणाएं व्याप्त थी, गिजुभाई उन्हे दूर करना चाहते थे।
     उनकी इच्छा थी कि बालक स्वाधीन हो। घर में बालक को आजादी मिले। बालक की अन्तर्निहित शक्तियों और क्षमता को स्वतंत्रतापूर्वक विकसित होने दिया जाए। इसके लिए उन्होने माता-पिता, के लिए बहुत कुछ लिखा, गोष्ठियां की, उपदेश दिया। शिक्षा के क्षेत्र में बालमन्दिर की शुरुआत की, जिसमें देश के उन समर्पित कार्यकर्ताओं को जुटाया गया, जो उनके दर्शन से अवगत थे। उनके बालमन्दिर में बालक को पूरी स्वंतंत्रता थी। न पाठ्यक्रम का भारी बोझ, न समय सारणी का दबाब। पूर्ण शान्ति के साथ सभी बच्चे अपने अपने कार्य में लगे रहते। शोरगुल का कहीं नाम न था। लड़ने-झगड़ने का अवसर न था। यह बालमन्दिर स्वतंत्रता और स्फूर्ति के आदर्श स्वरुप थे। बालमन्दिर में सभी बच्चों को अपनी दिल की बात कहने की दूर थी जमकर वाद-विवाद होता, चर्चा होती, सभी की बाते वे सुनते और सद्भावना पूर्वक उनका समाधान करते।
     बालक के स्वतंत्र विकास में उनकी आस्था थी। उनका कथन था- ‘‘देश को आजादी मिल भी जाए किन्तु यदि बालक स्वतंत्र न हुआ, उसका विकास स्वतंत्र वातावरण में न हुआ।, तो आजादी अधूरी रहेगी।’’ गिजुभाई की दृष्टि में बालक मानवता का सच्चा पोषक और संरक्षक है। अतः उसको अपने विकास की पूरी स्वतंत्रता मिलनी ही चाहिए। इसी को साकार रुप देने के लिए उन्होने बालशिक्षा मन्दिरों की स्थापना की। सत्य तो यह है कि गिजुभाई बालक की स्वतंत्रता के लिए ही और उसी के लिए मरे।

महिला सशक्तीकरण में शिक्षा की भूमिका

महिला सशक्तीकरण में शिक्षा की भूमिका

            
                प्रत्येक विकसित समाज के निर्माण में स्त्री एवं पुरूष दोनों की सहभागिता आवश्यक है। भावी पीढ़ी के रूप में व्यक्ति से लेकर परिवार, समाज तथा राष्ट्र तक के चहुँमुखी विकास की जिम्मेदारी में पुरुषों के साथ स्त्रियों की अपेक्षाकृत अधिक भागीदारी है। इस भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए ही परिवार की धुरी, महिला का सशक्तीकरण जरूरी है और सशक्तीकरण के लिए शिक्षा।
                शिक्षा आर्थिक और सामाजिक सशक्तीकरण के लिए पहला और मूलभूत साधन है। शिक्षा ही वह उपकरण है जिससे महिला समाज में अपनी सशक्त, समान व उपयोगी भूमिका दर्ज करा सकती है। दुनिया के जो भी देश आज समृद्ध और शक्तिशाली हैं, वे शिक्षा के बल पर ही आगे बढ़े हैं। इसलिए आज  समाज की आधी आबादी अर्थात महिलाएं जो कि विकास की मुख्य धारा से बाहर है, उन्हे शिक्षित बनाना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। इस संदर्भ में राधाकृष्णन आयोग ने कहा है-   ‘‘ स्त्रियों के शिक्षित हुए बिना किसी समाज के लोग शिक्षित नहीं हो सकते। यदि सामान्य शिक्षा स्त्रियों या पुरूषों मे से किसी एक को देने की विवशता हो, तो यह अवसर स्त्रियों को ही दिया जाना चाहिए, क्योकि ऐसा होने पर निश्चित रूप से वह शिक्षा उनके द्वारा अगली पीढ़ी तक पहुँच जाएगी।’’ इसी प्रकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति में यह बात स्वीकार की गई है कि महिला शिक्षा का महत्व न केवल समानता के लिए, बल्कि सामाजिक विकास की प्रक्रिया को तेज करने के  लिए भी जरूरी है।
            स्वतंत्रता  के बाद सरकार, महिला संगठनों ,महिला आयोगों आदि के प्रयासो से महिलाओं के लिए विकास के द्वार खुले, उनमें शिक्षा का प्रसार बढ़ा जिससे उनमें जागृति आई, आत्मविश्वास उत्पन्न हुआ परिणामस्वरूप वे प्रगतिपथ पर आगे बढ़ी। आज महिलाएं राजनीति, समाजसुधार, शिक्षा, पत्रकारिता, साहित्य, विज्ञान, उद्योग, व्यावसायिक प्रबन्धन, शासन-प्रशासन, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, पुलिस, सेना, कला, संगीत, खेलकूद आदि क्षेत्रों में पुरूषो के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य कर रही हैं । एक ओर यह परिदृश्य अत्यधिक उत्साहवर्धक है परंतु वर्तमान शैक्षिक परिदृश्य पर दृष्टि डालने से पता चलता है कि आज भी शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति संतोषजनक नहीं है। पूरी दुनिया में स्कूल न जाने वाले 121 मिलियन बच्चों में 65 प्रतिशत लड़किया है। दुनिया के 875 मिलियन निरक्षर वयस्कों में दो तिहाई महिलाएं हैं। इसी प्रकार  2001 की जनगणना के अनुसार भारत में महिला साक्षरता दर 53.67 प्रतिशत है जिसमें नगरीय क्षेत्र की महिला साक्षरता 72.99 प्रतिशत तथा ग्रामीण क्षेत्र की महिला साक्षरता 46.58 प्रतिशत है अर्थात  भारत में लगभग 50 प्रतिशत महिलाएं अभी तक शिक्षा से वंचित हैं। इसी प्रकार प्राथमिक स्तर पर प्रवेश लेने वाली बालिकाओं में से 24.82 प्रतिशत कक्षा 5 तक की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाती और उन्हे विद्यालय छोड़ना पड़ता है। उच्च प्राथमिक स्तर पर 50.76 प्रतिशत बालिकाओं को बीच में ही विद्यालय छोड़  कर घरेलू कार्यों में संलग्न होना पड़ता है। स्कूल का दूर होना, यातायात की अनुपलब्धता, घरेलू काम, छोटे भाई-बहनों की देखरेख, आर्थिक व विभिन्न सामाजिक समस्यायें आदि कुछ ऐसे कारण हैं जो कि बालिका शिक्षा की राह में बाधा उत्पन्न करते हैं।
            आज बालिका शिक्षा का प्रसार ग्रामीण 
क्षेत्रों में करने की महती आवश्यकता है। सरकार द्वारा विभिन्न योजनाओं के माध्यम से इस दिशा में निरन्तर प्रयास किए जा रहे हैं। देश की विकासशीलता के परिवेश में विचार करना आवश्यक है कि महिलाओं की शिक्षा किस प्रकार की हो? महिलाओं को मात्र साक्षर न बनाया जाए बल्कि उन्हें  ऐसी व्यावसायिक शिक्षा देनी चाहिए जो उन्हे अपने पैरों पर खड़े होने में मददगार सिद्ध हो। यदि महिलाएं शिक्षित होकर आत्मनिर्भर हों सके तो उनको स्वयं का महत्व समझते देर नहीं लगेगी तथा धीरे-धीरे दूसरो की नजरों में भी उनका स्थान महत्वपूर्ण हो जाएगा। शिक्षित, आत्मनिर्भर, सशक्त महिलाओं के द्वारा ही भारत को एक सशक्त व विकसित देश के रूप में निर्माण कर पाना संभव हो सकेगा।

गिजुभाई की दृष्टि में स्त्री शिक्षा

गिजुभाई की दृष्टि में स्त्री शिक्षा

                                           
                                                          
                प्रत्येक विकसित समाज के निर्माण में स्त्री एवं पुरूष दोनों की सहभागिता आवश्यक है। भावी पीढ़ी के रूप में व्यक्ति से लेकर परिवार, समाज तथा राष्ट्र तक के चहुँमुखी विकास की जिम्मेदारी में पुरुषों के साथ स्त्रियों की अपेक्षाकृत अधिक भागीदारी है। इस भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए ही परिवार की धुरी, महिला का सशक्तीकरण जरूरी है और सशक्तीकरण के लिए शिक्षा। शिक्षा आर्थिक और सामाजिक सशक्तीकरण के लिए पहला और मूलभूत साधन है। शिक्षा ही वह उपकरण है जिससे महिला समाज में अपनी सशक्त, समान व उपयोगी भूमिका दर्ज करा सकती है। इस संदर्भ में राधाकृष्णन आयोग ने कहा है- ‘‘ स्त्रियों के शिक्षित हुए बिना किसी समाज के लोग शिक्षित नहीं हो सकते। यदि सामान्य शिक्षा स्त्रियों या पुरूषों मे से किसी एक को देने की विवशता हो, तो यह अवसर स्त्रियों को ही दिया जाना चाहिए, क्योकि ऐसा होने पर निश्चित रूप से वह शिक्षा उनके द्वारा अगली पीढ़ी तक पहुँँच जाएगी।’’ महिला शिक्षा के प्राचीन इतिहास पर दृष्टि डालें तो पायेंगे कि वैदिक काल में नारी को शिक्षा देने का प्रावधान था। वे वेदपाठी होती थी; यज्ञ कर्मकाण्ड में भाग लेती थीं। मुगलों के आक्रमण के बाद महिलाओं को शिक्षा देना प्रायः बन्द सा कर दिया गया। पर्दा प्रथा, बालविवाह आदि सामाजिक कुरीतियों को महिला की गरिमा की रक्षा के लिए अपनाने की बात की गई। अग्रेजों के शासनकाल में गंाधीजी, राजाराम मोहन राय, अरविन्द घोष, रवीन्द्र नाथ टैगौर, गिजुभाई आदि ने राष्ट्रीय शिक्षा के प्रचार-प्रसार में बहुमूल्य योगदान दिया जिन के पीछे सर्वमान्य भावना बस यह थी कि शिक्षा की प्रक्रिया से स्वाधीन भारत के लिए, स्वाधीनता के लिए सुपात्र मानव तैयार हों। जिससे शिक्षा के विकास के साथ-साथ स्त्री शिक्षा का भी मार्ग प्रशस्त हुआ।   
           गिजु भाई स्त्री शिक्षा के महत्व से पूर्णतया परिचित थे। उनका मानना था कि बच्चों को अच्छे संस्कार देकर, उन्हें शिक्षित करके, अच्छा मनुष्य बनाना एक स्त्री का ही दायित्व है। जिसे पढ़ी लिखी स्त्री या माँ ही अच्छी तरह निभा सकती है। भावी पीढ़ी के रूप में बालक से लेकर परिवार, समाज, तथा राष्ट्र तक के विकास में स्त्रियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इस भूमिका का निर्वाह करने के लिए परिवार की धुरी महिला का शिक्षित होना अति आवश्यक है। गिजु भाई के समय में स्त्री शिक्षा की स्थिति अत्यधिक दयनीय थी। समाज में व्याप्त लिंग भेद के कारण अधिकांश स्त्रियाॅ या तो शिक्षा से वंचित रह जाती थी, या आधी अधूरी शिक्षा प्राप्त करती थी। शिक्षा प्राप्त करने वाली लड़कियांे को बाल विवाह जैसी सामाजिक रूढ़ियो से भी जूझना पड़ता था, उन्हे अपनी रूचि के अनुसार विषय चयनित करने का अधिकार नहीं था। उन्हे घर-गृहस्थी में काम आने वाले विषय पढ़ने पर जोर दिया जाता था। इसके अतिरिक्त उन पर तमाम बन्दिशें लगाई जाती थी, कठोर नियन्त्रण रखा जाता था जिससे बालिकाओं की प्राकृतिक शक्तियों का उचित विकास नहीं हो पाता था। गिजु भाई ने बालिका शिक्षा की तत्कालीन स्थिति को देखा, महसूस किया और इस पक्षपात पूर्ण नीति का विरोध किया। गिजु भाई ने देखा कि तत्कालीन समाज में बालिकाओं की शिक्षा पर उचित ध्यान नहीं दिया जा रहा है। कन्या को पराये घर की सम्पत्ति समझकर उसके साथ भेद भाव रखा जाता है। न तो उसे शिक्षा पाने का पूरा अधिकार है और न समाज के बीच मुह खोलने का। लड़की बड़ी होने पर ब्याह कर ससुराल जायेगी, फिर उसे बालक की तरह पढ़ने तथा समाज में बालकों के समान अधिकार क्यों मिले ? गिजु भाई ने बालिकाओं को समान अधिकार दिलानें के लिए वकालत की और कहा- ‘‘बालिका पहले मनुष्य है, बाद में लड़की। जीवन पहले है, शादी बाद में। इस दृष्टि से उसको शिक्षा का विचार होना चाहिए ।
             गिजुभाई बालक और बालिकाओं में कोई भेद नहीं मानते थे। बालिका को घर का काम करना पड़े, वह घर में पिसती रहे, बच्चों को खिलाए, रसोई में रोटी बनाने का काम करे और उसे शिक्षा ग्रहण करने के अधिकार से वंचित कर दिया जाए, समाज की इस पक्षपातपूर्ण नीति के साथ वह कभी नहीं रहे। गिजुभाई के बालमंदिर में बालक और बालिकाओं को बिना किसी भेदभाव के शिक्षा प्राप्त करने का अवसर प्रदान किया जाता था। उनमें प्रवेश, विषयों के चयन में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता था। इस संदर्भ में गिजुभाई ने लिखा है- ‘‘हमारे लिए लड़के लड़की दोनों समान है। यहाँ जो जिस काम के योग्य होगा, वह काम सीखेगा।’’  गिजु भाई बालक-बालिकाओं में शिक्षण विषयों के चयन में भेदभाव करने के विरूद्ध थे। वे इस विचार के अमान्य करते हैं कि बालिकाएं कुछ ही विषयों में योग्य बन सक्ती हैं, और बालक कुछ खास ही विषयों में योग्य बन सकते हैं। संगीत और चित्रकला आदि विषय केवल बालिकाओं के लिए ही हैं। गणित का विषय बालिकाओं के लिए उपयोगी नहीं है, उसे केवल बालको को पढ़ना चाहिए। वे बालक बालिकाओं पर किसी भी विषय को जबरन थोपना नहीं चाहते, वरन् बालक-बालिका अपनी रूचि के अनुसार विषयों का चयन करें। ऐसी उनकी मान्यता है। उनका विचार है कि विषय चयन करने में हमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। इस लिए वे कहते हैं - ‘‘यह तो जुल्म जैसी ही बात है। कि अमुक विषयों में लड़के ही तैयार हों और अमुक विषय लड़कियों को आना ही चाहिए। हम तो एक ही बात मानते हैं। लड़की युद्ध में वीरता दिखाए, और लड़का रसोई बनाने में प्रवीणता का परिचय दे, तो हम इसमें बाधक नहीं बनेंगें। क्या संगीत और चित्रकला के साथ लड़कों की कोई शत्रुता हो सक्ती है? क्या ये विषय मनुष्य जीवन की उत्तमता और सुन्दरता को सिद्ध करने के लिए उत्तम से उत्तम साधन नहीं है? जब से हमने संगीत और चित्रकला के साथ शत्रुता शुरू की है, तभी से हम सब व्यवहार-चतुर बनिए ही बनकर रह गए हैं। क्या हमने कभी सोंचा भी है कि उसी समय से हमारा जीवन कितना क्षुद्र और अरसिक बन गया है? और, क्या गणित का विषय लड़कियों के लिए उपयोगी नहीं है? जिन-जिन विषयों का सम्बन्ध जीवन से है, वे सारे विषय बालक को प्रिय होते हैं। इस मामले में लड़के और लड़की के बीच में कोई भेद रहना ही नहीं चाहिए।”
              गिजु भाई की दृष्टि में, माता-पिता चित्रकला संगीत आदि विषयों को लड़कियों के विषय मानकर अपने लड़को को अन्य विषय का शिक्षण देने की बात करके उनकी रूचि की उपेक्षा कर रह हैं। कुछ अभिभावक कहते हैं कि बालमन्दिर में हमारे लड़के से चरखा चलवा कर आप उसको लड़की क्यों बना रहे हैं। कुछ मात-पिताओं की शिकायत है कि लड़कों को पेड़ों पर चढ़ाकर और युद्ध का शिक्षण देकर क्या फायदा होगा? कुछ का कहना है कि साफ-सफाई का काम औरतों का है। गिजु भाई का मानना है कि लड़के व लड़की दोनों को कला सम्बन्धी विषयों का अध्ययन कराना चाहिए क्योकि ये विषय हमें मानवतावादी बनाते हैं। गिजु भाई इन अभिभावकों की शिकायतों उत्तर देते हुए कहते हैं - ‘‘ कला लड़की के लिए ही सुरक्षित रहेगी, तो लड़के को आत्महत्या कर लेनी होगी। कला विहीन प्राणी विना पत्तों वाले पेड़ के समान होते हैं। जो सफाई के या झाड़ने-बुहारने के काम को औरतों का काम मानते हैं, वे तो नामर्द हैं। मर्द तो तलवार और झाड़ू को समान मानते हैं। सच्ची स्त्री तो झाड़ू को एक और रख कर तलवार बांधेगी और मैदान में उतरेगी। एक हथियार एक प्रकार का कचरा साफ करने के लिए है, और दूसरा हथियार दूसरे प्रकार के कचरे की सफाई  के लिए है। यदि लड़कियाॅ युद्ध के मैदान में नहीं उतरेंगी, तो चाॅदबीबी या झांसी की रानी लक्ष्मीबाई हमको कैसे मिलेगी ?‘‘
         गिजु भाई के अनुसार, स्त्रियों को स्वाधीनता देकर ही उनके व्यक्तित्व का समग्र विकास किया जा सकता है और उनको शिक्षा प्रदान की जा सकती है। उनका बिचार था कि बच्चों की शिक्षा भी स्त्री की स्वाधीनता में ही निहित है इसलिए जब तक स्त्री स्वाधीन नहीं होगी, बच्चे भी माँ, पिता, नौकर-चाकर पर निर्भर रहेंगे और उनमें स्वाधीनता की भावना नहीं आएगी। आज स्त्री की क्षमता, उसका प्राकृतिक बल, उसकी प्रवृत्ति सब कुछ स्त्रीत्व के धर्म के नाम पर घरों की बेड़ियों में जकड़ दिया जाता है। जिससे उसका अपना कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं रह जाता है। वह अपनी निपुणता, कुशलता और आत्म निर्णय की ताकत सब कुछ भूल जाती है और नियन्त्रण और निर्देशन में जीना उसकी नियमित बन जाती है। गिजु भाई इस संदर्भ में लिखते हैं- ‘‘ पूर्वी देशों की महिलाओं को फकत आभूषण की तरह घर में बैठे रहना और स्त्रीत्व धर्म का पालन करना सिखाया जाता है, इससे स्पष्ट पता लगता है कि पुरूष समस्त काम खुद अकेले करना चाहता है। वह अपना काम भी करता है और स्त्री का काम भी करता है। इसका परिणाम अनिष्टकारी होता है। स्त्री का प्राकृतिक बल और उसकी प्रवृत्ति करने की शक्ति गुलामी की बेड़ी में जकड़कर सड़ जाती है। स्त्री का भरण-पोषण किया जाता है और उसकी ताबेदारी उठाई जाती है। यही नहीं, ऐसा करके उसे मानव के रुप में जो व्यक्तित्व मिला है, उसका उपहास करके उसे कमजोर बनाया जाता है। मानव के बतौर मिलने वाले उसके हकों को छीन लिया जाता है। समाज में उसका व्यक्तित्व शून्य मात्र रह जाता है। जीवन को बचाने के लिए या उसकी सुरक्षा के लिए जिन-जिन शक्तियों की जरूरत पड़ती है, उन तमाम शक्तियों का स्त्रियों को गुलाम रखकर हृास कर दिया जाता है।’’
          गिजु भाई बालिकाओं की कम उम्र में शादी हो जाने को एक सामाजिक रूढ़ि मानते हैं और उसका विरोध करते हैं। वे इसे स्त्री शिक्षा के मार्ग की एक प्रमुख बाधा मानते हैं। उनका विचार है कि विवाह से पूर्व लड़की को भावी जीवन के लिए तैयार करना आवश्यक है। उपयुक्त शिक्षा के बिना यह सम्भव नहीं है। अतः लड़की को उचित शिक्षा प्रदान करके पहले भावी जीवन के लिए तैयार करना चाहिए, उसके बाद ही उसका विवाह करना चाहिए। गिजू भाई ने महसूस किया कि समाज में बालिकाओं की प्रतिभा का हनन हो रहा है, उनके गुण एवं योग्यता को विकसित होने के लिए उपयुक्त वातावरण नहीं मिल रहा है जिससे देश को इन प्रतिभाओं से वंचित होकर अत्यधिक क्षति हो रही है। इस सन्दर्भ में गिजू भाई ने अपनी पुस्तक ‘माता-पिता से‘ में एक घटना का वर्णन किया है - गिजू भाई के बालमन्दिर में एक लड़की पढ़ती थी। उसकी चित्रकारी में रूचि थी। वह दिन भर चित्र ही बनाती रहती थी। हर चित्र में एक नई कल्पना, रंगों की नई मिलावट और रचना दृष्टिगत होती थी। स्वच्छता, सुकोमलता और सुरम्यता की छटा उसके हर चित्र में बिखरी पड़ती थी। कभी-कभी वह पढ़ना पसन्द करती थी। उसके माता-पिता ने कहा कि चित्र बना-बना कर यह क्या करेगी ? दूसरा कुछ तो सीखती नहीं है। शादी से पहले इसको कुछ घर का काम-काज भी सीखना चाहिए। उन्होने उसकी पढ़ाई छुड़वा दी। गिजू भाई को इस बात से बहुत दुख पहॅुचा। उन्होने दुखी मन से कहा - ‘‘कैसी दयनीय और भयंकर स्थिति है। हमको तो ऐसा लगा, मानो हमारा कोई प्रिय पुत्र खो गया हो। हमें अपनी छाती को तो ठिकाने रखना ही पड़ता है, पर उसके अन्दर एक धधकती-सी आग जलती रहती है। एक बार जब यह आग चारो ओर फैल जायेगी, तो यह शिक्षा के पुराने मापदण्डों, व्याह की रूढियों और माँ-बाप सहित सबको जलाकर राख कर देगी। अपने देश के भावी चित्रकारों को खोते समय हमारे मन की क्या स्थिति होगी ? क्या किसी को अन्दाज है कि इसके कारण देश का कितना जबरदस्त नुकसान हो रहा है ?’’
              गिजू भाई बालिकाओं के उचित मानसिक विकास हेतु शिक्षा को आवश्यक मानते हैं। उनका विचार था कि बालिकाओं का विवाह केवल शारीरिक विकास के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए, वरन् विवाह से पूर्व उन्हे मानसिक रूप से भी परिपक्व हो जाना चाहिए। यह परिपक्वता शिक्षा के द्वारा ही संभव है अतः विवाह से पूर्व बालिकाओं के लिए शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। इस संदर्भ में गिजू भाई ने एक लड़की के माता-पिता के प्रश्न के उत्तर देते हुए लिखा है - ‘‘ कुंक अगर बेटी की जात है, तो इसमें उसका क्या गुनाह है ? पर उसे कम उम्र में ससुराल जाना पड़ेगा, तो यह हमारा दोष होगा। बच्ची अभी जन्मी है, बड़ी हो रही है और उसे ससुराल भेजना चाहें तो हम सब अधम लोग है। ससुराल हो आएगी तो क्या हो जाएगा। बच्चे शरीर या तन से बढते है ? अगर शरीर तथा उम्र के साथ-साथ मानसिक विकास न हो तो साठ वर्ष की बुढिया भी बच्ची बनी रहेगी। जीवन विवाह के लिए नही है विवाह जीवन के लिए है। जीवन की तैयारी किए बिना कंकु शादी करके भी क्या करेगी ? और जीवन की तैयारी क्या आर्डर से तैयार होने वाली या बाजार से खरीदी जाने वाली चीज है।’’
              गिजुभाई बालिका शिक्षा का महत्व समझते थे। उनका मानना था कि एक बालिका को शिक्षा प्रदान करने का अर्थ उसका समग्र विकास तो है ही, साथ ही भावी पीढी के विकास के  मार्ग को खोलना है। क्योकि आज की बालिका ही कल की गृहणी है, माँ है। यदि वह शिक्षित हांेगी, सुसंस्कारित होगी तो आने वाली पीढिया भी शिक्षित व सुसंस्कारित हो सकेगी। गिजुभाई की मान्यता थी कि माताएं बाल विकास की धुरी है। जानकार माताएं न केवल बच्चो की सार-संभाल बेहतर ढंग से कर सकती है, बल्कि उनका बेहतर ढंग से शिक्षण भी कर सकती है। इसलिए उन्हे बाल विकास और बाल मनोविज्ञान का ज्ञान होना आवश्यक है। इसलिए गिजुभाई का विचार था कि बच्चे के उचित विकास हेतु माता-पिता की शिक्षा भी अपरिहार्य है। उन्हे बाल विकास हेतु उचित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। गिजुभाई शिक्षकों के प्रशिक्षण से भी अधिक माता-पिता के प्रशिक्षण पर बल देते थे। शायद ही किसी शिक्षा शास्त्री ने माता-पिता की शिक्षा के महत्व को इतनी गम्भीरता से लिया हो। गिजुभाई जानते थे कि मां ही शिशु की प्रथम शिक्षिका होती है। इसलिए गिजुभाई ने माताओं से कहा- ‘‘ जिस प्रकार वे शरीर शास्त्र, इतिहास, भूगोल, पाक शास्त्र  और आभूषण कला आदि का परिचय प्राप्त कर लेते है, उसी प्रकार वे बालकों के लालन-पालन की विधि का और शिक्षाशास्त्र का भी ज्ञान प्राप्त कर लें।’’
           गिजुभाई के अनुसार, माँ बनने के बाद स्त्री को अपना सम्पूर्ण समय और ऊर्जा को बालक के विकास में लगाना होता है। लेकिन
माँ  बनने से पहले स्त्री को बालकों के लालन-पालन ओर संस्कार शिक्षा का पाठ नही पढाया जाता, अतएव घर मे बच्चे के जन्म के बाद वह एकाएक खिन्न हो उठती, उसका स्वभाव बदल जाता है। फलतः बच्चे को नुकसान पहुचता है। इसलिए गिजुभाई स्त्रियों को माँ बनने से पूर्व बालक की उचित देखभाल हेतु सैद्धान्तिक ज्ञान प्राप्ति के साथ-साथ व्यावहारिक प्रशिक्षण देने पर भी बल देते है- ‘‘इस मानसशास्त्र के बाल शिक्षा संबंधी सामान्य सिद्धान्तों का ज्ञान हर एक माता-पिता को प्राप्त कर ही लेना है। इसके लिए उनको इस विषय की पुस्तकें पढ़नी चाहिए। बालकों के पालन-पोषण में लगे विद्यालयों और परिवारों में जाकर सव  कुछ देखना समझना चाहिए।’’
              गिजुभाई ने स्त्री शिक्षा के लिए केवल विचार ही प्रस्तुत नहीं किए, वरन् उनको अपने बालमंदिर व अध्यापन मंदिर के माध्यम से लागू भी किया जिसके परिणाम स्वरूप स्त्री शिक्षा का अत्यधिक विकास हुआ। अध्यापन मन्दिर में प्रशिक्षण प्राप्त शिक्षकों के माध्यम से से ये बिचार सम्पूर्ण देश में फैल गए और स्त्री शिक्षा के विकास की प्रक्रिया गतिशील हो गयी। गिजु भाई के स्त्री शिक्षा सम्बन्धी विचार न केवल मनोविज्ञान के सिद्धान्तों पर खरे उतरतें हैं, वरन् उनमें लैंगिक समानता, स्त्री स्वाधीनता, बाल विवाह निषेध, समतावाद जैसी विशेषताएं भी समाहित हैं, जिससे भारतीय समाज में स्त्रियों की शिक्षा को एक नई दिशा मिली थी। आज भारत में इन सभी बिन्दुओं पर निरन्तर बल देकर महिला सशक्तीकरण का महत्वपूर्ण कार्य किया जा रहा है जो कि गिजुभाई के विचारों की प्रासंगिकता को सिद्ध करता है। यदि इन विचारों का अनुशीलन करते हुए शिक्षा की व्यवस्था की जाए तो निश्चित रूप से महिला सशक्तीकरण के कार्य में सफलता मिलेगी और इसके माध्यम से राष्ट्र की लगभग आधी आबादी अर्थात स्त्रिया भी राष्ट्र निर्माण में अपना सहयोग कर सकेंगी। ऐसी शिक्षित, स्वाधीन, सशक्त महिलाओं के द्वारा ही भारत को एक सशक्त व विकसित देश के रूप में निर्माण कर पाना संभव हो सकेगा। 
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प्रकृति के प्रेमी गिजुभाई


   प्रकृति के प्रेमी गिजुभाई

               गिजुभाई प्रकृति के अनन्य प्रेमी थे। वे प्रकृति और मनुष्य को भिन्न नहीं मानते थे क्योंकि दोनों ही ईश्वर की अनुपम कृतियाँ है। वे इस बात से दुखी रहते थे कि बालकों को अपने चारों तरफ का ज्ञान नहीं के बराबर है। उनकी दृष्टि में इसका कारण कक्षा-कक्ष में प्रकृति का कृत्रिम रुप से परिचय दिया जाना था।
  वे कहते हैं-
     ‘‘खुशनुमा हवा में आंगन में लेट बालक को मौसम का मंद-मधुर अनुभव होता है। पलने में लेटे-लेटे ऊपर अधर आकाश को देखते-देखते बालक अनंत आकाश का दर्शन करता है। तभी तो वृक्षों के पत्तों की खड़खड़ाहट, पवन की सरसराहट या पक्षियों की चहचहाहट बालक के कान को आनंद देती है। कोमल धूप, झीनी-झीनी उषा-संध्या, गुलाबी ठंडक आदि प्रकृति के तमाम बल बालक का पोषण करते हैं। पंच तत्व द्वारा उत्पन्न यह देह पंच तत्वों से ही निरंतर पोषित होती है। तथा बढ़ती है। प्रकृति के प्रांगण में निवास करने वाले आदिवासी लोगों के बच्चों को यह लाभ प्रतिदिन स्वाभाविक रुप से मिलता है। शहर में यह लाभ मिलना बंद हो गया है। इसका बदला किताबों के पाठों से नही मिल सकता।’’  
       एक प्रकृति प्रेमी ही इस बात से व्यथित हो सकता है कि बालकों को प्रकृति का परिचय कृत्रिम रुप से प्रकृति से दूर रहकर किताबों द्वारा दिया जाता है। यह अनुचित है। प्रकृति का परिचय तो प्रत्यक्ष होना चाहिए। वे इस बारे में लिखते हैं- ‘‘जिस प्रकार प्रकृति स्वाभाविक है, उसी प्रकार इसका परिचय भी स्वाभाविक होना चाहिए। पिंजड़ों में बंद पक्षियों या पशुओं का अध्ययन प्रकृति का परिचय नहीं है। किताबों में खिंचे हुए आकाश के नक्शे प्रकृति के परिचायक नहीं हैं। बाड़े में पड़े पत्थरों की ढेरी के पहाड़ बनाकर तथा घर के मटके का पानी गिराकर उसकी बगल में बनाई गई नाली से पर्वत एवं नदी का परिचय के लिए बालक को और विद्यार्थियों को शहर के बंद कैदखाने से वैशाल धरती पर, दो हाथ पहुच जितनी दृष्टि मर्यादा में से नजर न पहुचे, जितनी दूर वाले क्षितिज के सामने, मिलों-कारखानों के शोरगुल से मधुर कंठ वाले पक्षियों के बीच, उकरड़ी पर बैठे गधों और पानी की परवाल खींचते पाड़ों से छलांग मारकर चैकड़ी भरते हरिणों के पास, नाबदान और गंदगी की ढेरी के पास से खिलखिलाती वहती नदियों और गगन चुम्बी पहाड़ों-पहाड़ियों के पास ले जाना चाहिए। वहा उन्हे प्रकृति के सौदर्य का पान करने के लिए खुला छोड़ देना चाहिए।’’इसी संदर्भ में गिजुभाई प्रकृति से प्राप्त ज्ञान के बारे मे कहते हैं- ‘‘प्रकृति का ज्ञान जिस स्थान पर पड़ा है, वहा जाने वालों को वह खुले रुप में बिना मूल्य उपलब्ध होता है, जबकि किताबों में भरा ज्ञान बंद किताब की कीमत देने पर ही उपलब्ध है और वह भी तोता रटंत वाला ज्ञान है।’’

Friday, November 16, 2012

बालदर्शन – गिजुभाई बधेका






बालदर्शन – गिजुभाई बधेका

1 – बालक


बालक माता–पिता की आत्मा है।

बालक घर का आभूषण है।

बालक आँगन की शोभा है।

बालक कुल का दीपक है।

बालक तो हमारे जीवन–सुख की प्रफुल्ल और प्रसन्न खिलती हुई कली है।

2 – बालक की देन


आपके शोक को कौन भुलाता है?

अपनी थकान को कौन मिटाता है?

आपको बाँझपन से कौन बचाता है?

आपके घर को किलकारियों से कौन भरता है?

आपकी हँसी को कौन कायम रखता है?

बालक!

प्रभु को पाने के लिये बालक की पूजा कीजिए।

3 – क्रांति और शांति


ईश्वर की सृष्टि में बालक उसका एक अद्भुत और निर्दोष सृजन है।

हम बालक के विकास की गति को पहचानें।

जिसने आज के बालक को स्वतंत्र और स्वाधीन बनने की अनुकूलता कर दी है,

उसने मनुष्य जाति को सर्वांगीण
क्रांति  और सम्पूर्ण शांति के मार्ग पर चलता कर दिया है।

4 – जवाब दीजिए


मैं खेलूँ कहाँ?

मैं कूदूँ कहाँ?

मैं गाऊँ कहाँ?

मैं किसके साथ बात करूँ?

बोलता हूँ तो माँ को बुरा लगता है।

खेलता हूँ तो पिता खीजते हैं।

कूदता हूँ, तो बैठ जाने को कहते हैं।

गाता हूँ, तो चुप रहने को कहते हैं।

अब आप ही कहिए कि मैं कहाँ जाऊँ? क्या करूँ?

5–खुद काम करने दीजिए


बालक को खुद काम करने का शौक होता है।

उसे रूमाल धोने दीजिए।

उसे प्याला भरने दीजिए।

उसे फूल सजाने दीजिए।

उसे कटोरी माँजने दीजिए।

उसे मटर की फली के दाने निकालने दीजिए।

उसे परोसने दीजिए।

बालक को सब काम खुद ही करने दीजिए।

उसकी अपनी मर्जी से करने दीजिए।

उसकी अपनी रीति से करने दीजिए।

6–परख


हमारी आँख में अमृत है या विष,

हमारी बोली में मिठास है या कडुआहट,

हमारे स्पर्श में कोमलता है या कर्कशता,

हमारे दिल में शांति,है या अशांति,

हमारे मन में आदर है या अनादर,

बालक इन बातों को तुरंत ही ताड़ लेता है।

बालक हमें एकदम पहचान लेता है।

7 – दुश्मन


'सो जा, नहीं तो बाबा पकड़ कर ले जाएगा।'

'खा ले, नहीं तो चोर उठा कर ले भागेगा।'

'बाघ आया !'

'बाबा आया !'

'सिपाही आया !'

'चुप रह, नहीं तो कमरे में बंद कर दूँगी।'

'पढ़ने बैठ नहीं तो पिटाई करूँगी।'

जो इस तरह अपने बालकों को डराते हैं, वे बालकों के दुश्मन हैं।

8–हम क्या सोचेंगे?


बालक का हास्य जीवन की प्रफुल्लता है।

बालक का रुदन जीवन की अकुलाहट है।

बालक के हास्य से फूल खिलता है।

बालक के रुदन से फूल मुरझाता है।

हमारे घरों में बाल–हास्य की मंगल शहनाइयों के बदले

बाल–रुदन के रण–वाद्य क्यों बजते हैं?

क्या हम सोचेंगे?

9–पृथ्वी पर स्वर्ग


यदि हम बालकों को अपने घरों में उचित स्थान दें,

तो हमारी इस पृथ्वी पर ही स्वर्ग की सृष्टि हो सके।

स्वर्ग बालक के सुख में है।

स्वर्ग बालक के स्वास्थ्य में है।

स्वर्ग बालक की प्रसन्नता में है।

स्वर्ग बालक की निर्दोष मस्ती में है।

स्वर्ग बालक के गाने में और गुनगुनाने में है।

10–महान आत्मा


बालक की देह छोटी है, लेकिन उसकी आत्मा महान है।

बालक की देह विकासमान है।

बालक की शक्तियाँ विकासशील हैं।

लेकिन उसकी आत्मा तो सम्पूर्ण है।

हम उस आत्मा का सम्मान करें।

अपनी गलत रीति–नीति से हम बालक की शुद्ध आत्मा को भ्रष्ट और कलुषित न करें।

11–हम समझें


बालक सम्पूर्ण मनुष्य है।

बालक में बु​द्धि है, भावना है, मन है, समझ है।

बालक में भाव और अभाव है, रुचि और अरुचि है।

हम बालक की इच्छाओं को पहचानें।

हम बालक की भावनाओं को समझें।

बालक नन्हा और निर्दोष है।

अपने अहंकार के कारण हम बालक का तिरस्कार न करें।

अपने अभिमान के कारण हम बालक का अपमान न करें।

12–चाह


बालक को खुद खाना है, आप उसे खिलाइए मत।

बालक को खुद नहाना है, आप उसे नहलाइए मत।

बालक को खुद चलना है, आप उसका हाथ पकड़िए मत।

बालक को खुद गाना है, आप उससे गवाइए मत।

बालक को खुद खेलना है, आप उसके बीच में आइए मत।
क्योंकि बालक स्वावलम्बन चाहता है।

13–क्या इतना भी नहीं करेंगे?


क्लब में जाना छोड़कर बालक को बगीचे में ले जाइए।

गपशप करने के बदले बालक को चिड़ियाघर दिखाने ले जाइए।

अखबार पढ़ना छोड़कर बालक की बातें सुनिए।

रात सुलाते समय बालक को बढ़िया कहानियाँ सुनाइए।

बालक के हर काम में गहरी दिलचस्पी दिखाइए।

14–नौकर की दया


सचमुच वह घर बड़भागी घर है।

जहाँ पति–पत्नी प्रेमपूर्वक रहते हैं।

जिसके आँगन में गुलाब के फूल के से बालक खेलते–कूदते हैं।

जहाँ माता–पिता बालकों को अपने प्राणों की तरह सहेजते हैं।

जहाँ बालक बड़ों से आदर पाते हैं।

और जहाँ बालकों को घर के नौकरों की दया पर जीना नहीं पड़ता है।

सचमुच वह घर एक बड़भागी घर है।

15–आत्म सुधार


बालक का सम्मान इसलिए कीजिए, कि हममें आत्म–सम्मान की भावना जागे।

बालक को डाँटिए–डपटिए मत,

जिससे डाँटने–डपटने की हमारी गलत आदत छूटने लगे।

बालक को मारिए–पीटिए मत,

जिससे मारने–पीटने की हमारी पशु–वृत्ति नष्ट हो सके।

इस तरह अपने को सुधरकर ही

हम अपने बालकों का सही विकास कर सकेंगे।

16 –भय और लालच


माँ–बाप और शिक्षक समझ लें कि

मारने से या ललचाने से बालक सुधर नहीं सकते,

उलटे वे बिगड़ते हैं।

मारने से बालक में गुंडापन आ जाता है।

ललचाने से बालक लालची बन जाता है।

भय और लालच से बालक बेशरम, ढीठ और दीन–हीन बन जाता है।

17 – सच्ची शाला : घर


अगर माँ–बाप यह मानते हैं कि

स्वयं चाहे जैसा आचरण करके भी

वे अपने बालकों को संस्कारी बना सकेगें,

तो वे बड़ी भूल करते हैं।

माँ–बाप और घर, दोनों दुनिया की

सबसे बड़ी और शक्तिशाली शालाएँ हैं।

घर में बिगाड़े गए बालक को भगवान भी सुधार नहीं सकता!

18 – प्रकृति का उपहार


प्रकृति से दूर रहने वाला बालक, प्रकृति के भेद को कैसे जानेगा?

जगमगाती चाँदनी, कलकल बहती नदी,

खेत की मिट्टी,

बाड़ी के घर, टेकरी के कंकर, खुली हवा और आसमान के रंग,

ये सब वे उपहार हैं, जो बालक को प्रकृति से प्राप्त हुए हैं।

बालक को जी भरकर प्रकृति का आनन्द लूटने दीजिए।

19 – गतिमान


बालक पल–पल में बढ़नेवाला प्राणी है।

बालक की दृष्टि प्रश्नात्मक है।

बालक का हृदय उद्गारात्मक है।

बालक के व्याकरण में प्रश्न और उद्गार हैं।

लेकिन पूर्णविराम कहीं नहीं हैं।

बालक का मतलब है, मूर्तिमन्त गति –

अल्प विराम भी नहीं।

20 – नया युग


नागों की पूजा का युग बीत चुका है।

प्रेतों की पूजा का युग बीत चुका है।

पत्थरों की पूजा का युग बीत चुका है।

मानवों की पूजा का युग भी बीत चुका है।

अब तो, बालकों की पूजा का युग आया है।

बालकों की सेवा ही उनकी पूजा है।

21 – झगड़े


माता–पिता के और बड़ों के झगड़ों के कारण

घर का वातावरण अकसर अशान्त रहने लगता है।

इससे बालक बहुत परेशान हो उठते हैं।

और किसी कारण नहीं, तो अपने बालकों के कारण ही

हम घर में हेलमेल से भरा जीवन जीना सीख लें।

घर के शान्त और सुखी वातावरण में

बालक का महान शिक्षण निहित है।

22 – गिजुभाई की बात


बालकों ने प्रेम देकर मुझे निहाल किया।

बालकों ने मुझे नया जीवन दिया।

बालकों को सिखाते हुए मैं ही बहुत सीखा।

बालकों को पढ़ाते हुए मैं ही बहुत पढ़ा।

बालकों का गुरु बनकर मैं उनके गुरु–पद को समझ सका।

यह कोई कविता नहीं है।

यह तो मेरे अनुभव की बात है।

23 – दिव्य संदेश


बालदेव की एकोपासना कीजिए ।

अकेले इस एक ही काम में बराबर लगे रहिए।

सफलता की यही चाबी है।

बालकों द्वारा प्रभु के संदेश को ग्रहण करने की बात मनुष्य को सूझती क्यों नहीं है?

बालक का संदेश किसी एक जाति या देश के लिए नहीं है।

बालक का संदेश तो समूची मनुष्य–जाति के लिए एक दिव्य संदेश है।

24–जीवित ग्रंथ


जो पुस्तकें पढ़कर ज्ञान प्राप्त करेंगे, वे शिक्षक बनेंगे।

जो बालकों को पढ़कर ज्ञान प्राप्त करेंगे, वे शिक्षा–शास्त्री बनेंगे।

शिक्षा शास्त्री के लिए हरएक बालक

एक समर्थ, अद्वितीय और जीवित ग्रंथ है।

25–बालक की शक्ति


आप सारी दुनिया को धोखा दे सकते हैं,

लेकिन अपने बालकों को धोखा नहीं दे सकते हैं।

आप सबको सब कहीं बेवकूफ बना सकते हैं,

लेकिन अपने बालकों को कभी बेवकूफ नहीं बना सकते।

आप सबसे सब कुछ छिपा सकते हैं,

लेकिन अपने बालकों से कुछ भी नहीं छिपा सकते।

बालक सर्वज्ञ हैं, सर्वव्यापक हैं, सर्वशक्तिमान हैं।

26–बातें बेकार हैं


क्या हमारे पढ़ने, सोचने और लिखने–भर से

हमारा काम पूरा हो जाता है।

नहीं, हमें तो शिक्षा के नये–नये मन्दिरों का निर्माण करना है,

और उन मन्दिरों में अब तक अपूज्य रही सरस्वती देवी की स्थापना करनी है।

बालकों के लिए नये युग का आरम्भ हुआ है।

केवल बातें करने से अब कुछ बनेगा नहीं।

कुछ कीजिए! कुछ करवाइये!!

27–एड़ी का पसीना चोटी तक


बालक के साथ काम करना जितना आसान है, उतना ही मुश्किल भी है।

बाल–स्वभाव का ज्ञान, बालक के लिए गहरी भावना और सम्मान,

बालक के व्यक्तित्व के प्रति श्रद्धा और उसके प्रति आन्तरिक प्रेम,

इस सबको प्राप्त करने में एड़ी का पसीना चोटी तक पहुँचाना पड़ता है।

28–याद रखिए


गली की निर्दोष धूल बालक को चन्दन से भी अधिक प्यारी लगती है।

हवा की मीठी लहरें बालक के लिए माँ के चुम्बन से भी अधिक मीठी होती हैं।

सूरज की कोमल किरणें बालक को हमारे हाथ से भी अधिक मुलायम लगती हैं।

29–चैन कैसे पड़े?


जब तक बालक घरों में मार खाते हैं,

और विद्यालयों में गालियाँ खाते हैं,

तब तक मुझे चैन कैसे पड़े?

जब तक बालकों के लिए पाठशालाएँ, वाचनालय, बाग–बगीचे और क्रीड़ांगन न बनें,

तब तक मुझे चैन कैसे पड़े?

जब तक बालकों को प्रेम और सम्मान नहीं मिलता, तब तक मुझे चैन कैसे पड़े?

30 – शिक्षक के लिए सब समान


बालक कई प्रकार के होते हैं।

अपंग और अंधे, लूले और लंगड़े, मूर्ख और मंद–बु​द्धि,

काले और कुरूप, कोढ़ी और खाज–खुजली वाले,

इसी तरह खूबसूरत, ताजे–तगड़े, चपल, चंचल, होशियार और चलते–पुरजे।

सच्चे शिक्षक की नजर में ये सब समान रूप से भगवान के ही बालक हैं।

31–बाल–क्रीड़ांगण


क्या भारत के लाखों–करोड़ों बालकों को हम हमेशा गन्दी गलियों में ही भटकने देंगे?

या तो हम बालकों को घरों में काम करने के मौके दें,

या गली–गली में और चौराहों–चौराहों पर बाल क्रीड़ांगन खड़े करें।

ये बाल क्रीड़ांगन ही बाल विकास के सबसे आसान, अच्छे और सस्ते साधन हैं।

32–करेंगे या मरेंगे


मैं पल–पल में नन्हें बच्चों में विराजमान

महान आत्मा के दर्शन करता हूँ।

यह दर्शन ही मुझे इस बात के लिए प्रेरित कर रहा है

कि मैं बालकों के अधिकारों की स्थापना करने के लिए जिन्दा हूँ,

और इस काम को करते–करते ही मर–मिट जाऊँगा।

33–धर्म का शिक्षण


धर्म की बातें कह कर,

धर्म के काम करवा कर,

धर्म की रूढ़ियों की पोशाकें पहना कर,

हम बालकों को कभी धर्माचरण करने वाला बना नहीं सकेंगे।

धर्म न किसी पुस्तक में है, और न किसी उपदेश में है।

धर्म कर्म–काण्ड की जड़ता में भी नहीं है।

धर्म तो मनुष्य के जीवन में है।

अगर शिक्षक और माता–पिता अपने जीवन को धर्मिक बनाए रखेंगे,

तो बालक को धर्म का शिक्षण मिलता रहेगा।

34–अपनी ओर देख


जब तू प्रभु नहीं है तो अपने बालकों का प्रभु क्यों बनता है।

जब तू सर्वज्ञ नहीं है, तो बालकों की अल्पज्ञता पर क्यों हँसता है?

जब तू सर्वशक्तिमान नहीं है, तो बालकों की अल्प शक्ति पर क्यों चिढ़ता है?

जब तू संपूर्ण नहीं है, तो बालकों की अपूर्णता पर क्यों क्षुब्ध होता है?

पहले तू अपनी ओर देख, फिर अपने बालकों की ओर देख!

प्रेम और शांति --- गिजुभाई

प्रेम और शांति


अगर हमें दुनिया में सच्ची शांति प्राप्त करनी है और अगर हमें युद्ध के विरुद्ध लड़ाई लड़नी है तो हमें बालकों से इसका आरंभ करना होगा, और अगर बालक अपनी स्वभाविक निर्दोषता के साथ बड़े होंगे, तो हमें संघर्ष नहीं करना पड़ेगा,, हमें निष्फल और निरर्थक प्रस्ताव पास नहीं करने पड़ेगे। बल्कि हम प्रेम से अध्कि प्रेम की ओर

और शांति से अधिक शांति की ओर बढ़ेंगे।  यहाँ तक कि अंत में दुनिया के चारों कोने उस प्रेम और शांति से

भर जाएँगे, जिसके लिए आज सारी दुनिया जाने या अनजाने तरस और तड़प रही है।

'यंग इंडिया' 19-11-1931


Thursday, November 15, 2012

बालकों के गाँधी

                                     बालकों के गाँधी    
 गांधी जी का दर्शन सत्य, अहिंसा, प्रेम, करुणा, मानव-मानव के बीच पारस्पारिक सम्मान, दीनदलितों के उद्धार, मानवीय एकता एवं विश्वबन्धुत्व पर आधारित था। महात्मा गाँधी ने जिस अहिंसक क्रान्ति के द्वारा देश की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष किया। जो काम देश के स्तर पर गाँधी जी ने किया, बाल शिक्षा के क्षेत्र में वही काम 1920 से 1939 तक गिजुभाई ने कर दिखाया। बालकों की स्वतन्त्रता के लिए, स्वावलम्बन के लिए, उनके सम्मान और स्वाभिमान की रक्षा के लिए वे अपनी पूरी शक्ति और भक्ति के साथ निरन्तर जूझते रहे।
     श्री किशोरीलाल मशरुवाला ने ‘स्मरणांजलि’ में लिखा है- ‘‘ इनकी विशिष्ट शाला मांटेसरी की वजह से महत्वपूर्ण नहीं थी, वरन् बालकों के प्रति व्यवहार की जो नयी दृष्टि इन्होने ग्रहण की थी, उसकी वजह से महत्वपूर्ण थी। यह दृष्टि उन्होने बालसमुदाय के प्रति विकसित की तथा गुजरात के माता-पिता व शिक्षकों को नूतन संस्कार प्रदान किए। गाँधी  जी ने अपने आश्रम में अहिंसा की जिस दृष्टि पर बल दिया था, उसे गिजुभाई ने माता-पिता एवं शिक्षकों का स्वाभाविक वात्सल्य जगाकर, शिक्षाशास्त्र से उसे प्रमाणिक बनाया। बालमन्दिर की कला से अंकृत करके लोकप्रिय बनाया। अहिंसक संस्कृति का आधार निर्मित करने मे गिजुभाई ने इस तरह बहुत बड़ा योगदान दिया है। इसलिए गिजुभाई के मित्र तथा सुविख्यात गाँधीवादी शिक्षाविद् श्री जुगतराम दवे ने  उन्हे ‘बालको के गाँधी’ नाम से विभूषित  किया।
     गिजुभाई की शैक्षिक विचारधारा के मूल में गाँधी जी का जीवन दर्शन विद्यमान है। स्वातन्त्रय, स्वावलम्बन, प्रेम करुणा, मानव-सम्मान, राष्ट्रीयता, दलितोद्वार (बालक का उद्धार) दीन वत्सलता, मानव-सेवा ये सब गाँधी जी के दर्शन के ही आधार तत्व हैं।
गाँधी जी के विचारों को गिजुभाई ने व्यवहार में उतारा था। इसका प्रमाण अनेक घटनाओं से मिल जाता है बालमन्दिर में शिक्षक वर्ग को सम्बोधित करते हुए कहा था- ‘‘दबाबों से राज्य नही दबे रहते, तो बालमन्दिर के बालक भला कैसे दबेंगे। बालमन्दिर से दण्ड को मिटाकर ही दुनिया से हिंसा नहीं रहेगी, तो भला शाला में क्यों रहें ? क्यों रहनी चाहिए ? हमारे मन में बच्चे पर किसी प्रकार से अंकुश लगाने की जब इच्छा जागे तो मात्र यही सोचना पर्याप्त होगा कि वह कितना निर्बल है और हम कितने बलवान हैं। निर्बल को सजा देना हिंसा से भी बदतर कार्य है। बालक को दण्ड देकर हम आगामी पीढ़ी की जड़ों में हिंसा का जल ही सीचेंगे।’’





दूरस्थ शिक्षा में सूचना प्रौद्योगिकी की भूमिका

दूरस्थ शिक्षा में सूचना प्रौद्योगिकी की भूमिका
                               
                                                             
                                                                
       
        शिक्षा जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। यह विकास का मूलाधार है। किसी भी राष्ट्र का विकास शिक्षा के अभाव में असम्भव है चाहे वह राष्ट्र कितने ही प्राकृतिक संसाधनों से आच्छादित क्यों न हो। आज के बदलते परिवेश में परिवर्तन की धारा ने शिक्षा को विशेष रूप से प्रभावित किया है। जहाँ एक ओर मानवीय सम्बन्धों में बदलाव आया है, वहीं विज्ञान के बढ़ते चरण ने शिक्षा की दशा व दिशा दोनों ही परिवर्तित किये है। वैज्ञानिक आविष्कारों से प्रत्येक क्षेत्र में युगान्तकारी परिवर्तन हुए है। मनुष्य ने तकनीकी उन्नति के माध्यम से स्वयं का जीवन उन्नत किया है। सम्पूर्ण विश्व में वैश्वीकरण व मुक्त अर्थव्यवस्था का बोलबाला है। अब प्रश्न यह उठता है कि परिर्वतन की इस आँधी में क्या प्रत्येक व्यक्ति का मानसिक, सामाजिक व आर्थिक विकास हुआ है? यदि नही तो इसमें सुधार की क्या सम्भावना तलाशी जाय? शिक्षा ही वह हथियार है जिसके द्वारा व्यक्ति के जीवन स्तर को ऊँचा उठाया जा सकता है। शिक्षा की व्यवस्था इस प्रकार होनी चाहिए कि निम्नतम से निम्नतम व्यक्ति भी इसकेे द्वारा लाभान्वित हो सके और वैश्वीकरण के इस दौर में अपनी भूमिका निश्चित कर सके।
        छात्र व छात्राओं की वर्तमान पीढ़ी में कुछ अभूतपूर्व परिवर्तन देखे जा सकते है। वे विद्यालयी शिक्षा को तो सहर्ष स्वीकार करते है, परन्तु इसके बन्धनों से परे शिक्षा की अपेक्षा भी करने लगे है। इस दौर में दूरस्थ शिक्षा द्वारा विकास की सम्भावनाएँ तलाशी जा रही है। दूरस्थ शिक्षा को सफल बनाने में सूचना प्रौद्योगिकी की भूमिका का निहितार्थ भी तलाशा जाने लगा है। और इसे भरपूर उपयोग करके दूरस्थ शिक्षा की गुणवत्ता व उपयोगिता को बनाये रखने के प्रयास जारी है। इस हेतु आज शिक्षा को सैद्धान्तिक पाठ्यक्रमों के भँवर जाल से निकालकर मजबूत व्यावहारिक आधार देने की नितान्त आवश्यकता है।
        शिक्षा बालक के सर्वांगीण विकास की ओर इंगित करती है, जिसके लिए पूर्व में चल रही शिक्षा व्यवस्था में कुछ आमूल-चूल परिवर्तन करने होगें, क्योंकि वर्तमान सूचना प्रौद्योगिकी के युग में बालक पुरानी शिक्षा व्यवस्था से वैश्वीकरण के सम्प्रत्यय को प्राप्त नही कर सकेगा। एक नये युग में प्रवेश जैसी धारणा को ध्यान में रखकर उसके पाठ्यक्रम, शिक्षण विधियों, मूल्यांकन व्यवस्था तथा उसको प्रदान किये जाने वाले अनुभवों को एक नया स्वरूप प्रदान करना होगा, जिससे आने वाली समस्याओं का समाधान वह स्वयं कर सके।
          उच्चतर शिक्षा में विस्तार, उत्कृष्टता और समावेशन के लक्ष्यों की पूर्ति के लिए मुक्त और दूरस्थ शिक्षा तथा मुक्त शैक्षिक संसाधनों का विकास अनिवार्य है। उच्चतर शिक्षा में दाखिल छात्रोें में 1/5 से अधिक छात्र मुक्त और दूरस्थ शिक्षा धारा में है। राष्ट्रीय ज्ञान आयोग यह सिफारिश करता है कि दूरस्थ शिक्षा को इन विषयों पर ध्यान केन्द्रित करना होगा। एक राष्ट्रीय आई0सी0टी0 आधारिक-तन्त्र का सृजन करनाय विनियामक तंत्रों में सुधार लाना, वेव आधारित साझा मुक्त संसाधन विकसित करना, क्रेडिट बैंक स्थापित करना और राष्ट्रीय परीक्षण सेवा उपलब्ध कराना। इसकी संपूर्ति के लिए एनकेसी यह भी सिफारिश करता है कि उत्तम अंतर्वस्तु का निर्माण तथा वैश्विक मुक्त शैक्षिक संसाधनों का लाभ उठाने की ओर एक व्यापक ढंग से ध्यान केन्द्रित किये जाने की जरूरत है। हमें सभी सामग्री अनुसंधान लेखों, पुस्तकों, पत्रिकाओं आदि की मुक्त सुलभता को भी प्रोत्साहित करना चाहिए।
        दूरस्थ शिक्षा की स्थिति पर दृष्टिपात करने से हम यह पाते है कि समूचे विश्व में अधिकांश विकासशील देशों ने मुक्त विश्वविद्यालयों की जरूरत महसूस की है। फ्रांस और यूके जैसे विकसित देशों ने मुक्त और दूरस्थ शिक्षा का मार्ग प्रशस्त किया है। आॅन लाइन शिक्षा के मांमले में संयुक्त राज्य अमेरिका निर्विवाद नेता बना हुआ है।
        वर्ष 2004-05 में भारत में उच्चतर शिक्षा में लगभग ग्यारह मिलियन लोग दाखिल थे, जिनमें से मुक्त और दूरस्थ शिक्षा प्रणाली (परम्परागत कालेजों के दूरस्थ शिक्षा संस्थानों (डी0ई0आई0) द्वारा प्रस्तुत पत्राचार पाठ्यक्रमों सहित) ने लगभग 20 प्रतिशत लोगों को उच्च शिक्षा उपलब्ध करायी। इसके भीतर मुक्त विश्वविद्यालयों ने उच्चतर शिक्षा की मांग में से 10 प्रतिशत की पूर्ति की। 1996 से 2004 तक उच्चतर शिक्षा तथा मुक्त व दूरस्थ शिक्षा के नामांकन में वृद्धि हुई। 2000-01 में उच्चतर शिक्षा की केवल 4 प्रतिशत मांग की पूर्ति मुक्त विश्वविद्यालयों द्वारा की गई, जबकि 2003-04 में इस आशय का अनुपात लगभग 10प्रतिशत था। दूरस्थ शिक्षा का समग्र योगदान लगभग 19 प्रतिशत है।
        21वीं सदी का शुभारम्भ सूचना प्रौद्योगिकी के युग के रूप में हुआ है। आज सूचना प्रौद्योगिकी पर राजनेताओं, योजनाकर्ताओं, प्रशासकों, व्यापारियों, वैज्ञानिकों, शोधकर्ताओं मीडिया से जुडे़ व्यक्ति, मनोरंजनकर्ताओं एवं सभी दूरदर्शी व्यक्तियों का रूझान है। क्योंकि इसका राष्ट्रीय विकास, विश्व व्यापार, वाणिज्य के संवर्द्धन उद्योग और कृषि के विकास तथा स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, राष्ट्रीय एकता व अन्य आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक कार्याे में अत्यधिक महत्व है।

        भारत एक विशाल देश है जहाँ जनसांख्यिकीय विस्फोट होने का अर्थ यह है कि उच्चतर शिक्षा को संगत आबादी की वृद्धि के साथ बने रहना होगा। भारत में उच्चतर शिक्षा के क्षेत्र में बहुत गहरा संकट है। उच्चतर शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश करने वाली हमारी 18-24 वर्ष के आयु वर्ग की आबादी का अनुपात लगभग 7ः है, जो एशिया के औसत का सिर्फ आधा है। विश्वविद्यालयों में उपलब्ध स्थानों की संख्या के दृष्टि से उच्चतर शिक्षा के लिए मौजूदा अवसर हमारी आवश्यकता के हिसाब से बिल्कुल पर्याप्त नही है। इतना ही नही उच्चतर शिक्षा के स्तर में जबरदस्त सुधार की आवश्यकता है। भारत जैसे देशों में प्रति व्यक्ति आय कम है, अशिक्षा का स्तर भी अधिक हैय यहाँ भाषा, जीवन शैली व संस्कृति का बहुतायत है। इस स्तर पर सूचना प्रौद्योगिक एक उत्पे्ररक की भूमिका का निर्वहन कर सकती है। शिक्षा के क्षेत्र में इसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान हो सकता है। भारत सूचना प्रौद्योगिकी के शिक्षा व विकास के क्षेत्र में क्षमता विस्तार के बारे में पूरी तरह सजग है। मानव संसाधन विकास मंत्री ने अपने मंत्रालय के 100 दिनों का एजेण्डा प्रस्तुत करते हुए शिक्षा विस्तार, निवेश और गुणवत्ता को मूलमंत्र बताया। इनका विचार है कि पूरी दूनिया में उदारीकरण एवं भूमण्डलीकरण के कारण आए बदलाव को देखते हुए शिक्षा के लक्ष्य और उसकी जरूरतों में परिवर्तन आ गया है। केन्द्र सरकार का जोर इस बात पर है कि शिक्षा को सूचना, संचार तथा प्रौद्योगिकी से जोड़ा जाए और आॅन लाइन शिक्षा प्रदान की जाय। वर्चुअल विश्वविद्यालय बनाने की भी कल्पना है, जिसके तहत कोई भी छात्र घर बैठे कम्प्यूटर व इण्टरनेट के द्वारा पढ़ाई पूरी कर सके। वित्त मंत्री ने भी इस वजट में सूचना एवं प्रौद्योगिकी के जरिए शिक्षा प्राप्त करने के वास्ते अधिक धन का आवंटन किया है। भारतीय परिपे्रक्ष्य में शिक्षा को व्यापक स्तर पर लाने हेतु दूरस्थ शिक्षा अग्रणी भूमिका निभा सकता है, क्योंकि बिखरी हुई जनसंख्या का वृहत क्षेत्र शिक्षा से अहूता है। जन-जन तक शिक्षा की ज्योति पहुँचाने हेतु प्रौद्योगिकी की अग्रणी भूमिका है। दूरस्थ शिक्षा के क्षेत्र में सूचना सम्प्रेषण तकनीक के अनेक माध्यम है, जो प्रयोग में लाये जाते हैं। जैसे-
रेडियो प्रसारण, दूरदर्शन, श्रृव्य-दृश्य कैसटेस, इलेक्ट्रांनिक डाक, कम्प्यूटर नेटवर्क, फैक्स, टेलीकान्फ्रेन्सिग आदि।
        मुक्त विश्वविद्यालयों में सूचना प्रौद्योगिकी की भूमिका स्वतः स्पष्ट होती है क्योंकि रेडियो व टेलीवीजन द्वारा भी इसका क्रियान्वयन होता है। इण्टरनेट का प्रारम्भ सन् 1995 को हुआ। इसके माध्यम से छात्रों को शिक्षण प्रशिक्षण के कार्यक्रम आसानी से सुलभ हो जाते है। ज्ञानदर्शन व ज्ञानवाणी जैसे शैक्षिक चैनल भी इसमें सहायता करते हैै। ज्ञानवाणी 7 नवम्बर 2001 से शैक्षिक कार्यक्रमों का प्रसारण कर रहा है। इसी प्रकार ज्ञानदर्शन भी जनवरी 2000 से शैक्षिक कार्यक्रमों का प्रसारण करता है। अनेक शिक्षाविद् व विषय विशेषज्ञ इन कार्यक्रमों की गुणवत्ता को संवद्र्वित करते है तथा समस्याओं का समाधान भी इसी माध्यम से किया जाता है। भारतीय उपग्रह इन्सेट प् ठ की स्थापना भूमध्य रेखा के ऊपर 3600 ज्ञउ की ऊँचाई पर की गई। इसके माध्यम से दूरस्थ शिक्षा के प्रसार में रेडियो, टीवी का भरपूर उपयोग किया जाने लगा है।
        27 अक्टूबर 2009 को इग्नू ने तीसरी पीढी (3ळ) की मोबाइल फोन प्रौद्योगिकी के जरिए आॅन लाइन शिक्षा प्रदान करने के लिए स्वीडन की दूर संचार कम्पनी एरिक्सन के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किये है। अधिकारियों ने बताया कि इग्नू शुरूआत में सूचना प्रौद्योगिकी का सर्टीफिकेट कोर्स कर रहे 1000 छात्रों को 3ळ के जरिए शिक्षा देगा। अगले छः माह के लिए इसे पायलेट परियोजना की तरह चलाया जायेगा। इग्नू ने छः माह बाद पूरे देश में चलाये जा रहे सभी कोर्सो में 3ळ का उपयोग करने की योजना बनाई है।
        भारत में प्ब्ज् के उपयोग के क्षेत्र में विशाल भौगोलिक व जनसांख्यिकीय  आधार पर असमानता पाई जाती है। भारत में विश्व का सबसे अधिक प्ब्ज् कार्य बल है। इससे एक ओर जहाँ देश में प्रौद्योगिकी उपयोग से बंगलौर और गुड़गाँव जैसे शहरों का विकास व उच्च आय वर्ग की उत्पत्ति हुई है। वहीं दूसरी ओर देश का एक बड़ा हिस्सा टेलीफोन कनेक्टीविटी से भी वंचित है। प्रधानमंत्री जी द्वारा जुलाई 1998 में गठित कार्य दल ने स्कूलों तथा शिक्षा क्षेत्र में प्ज् का उपयोग करने की सिफारिश की थी। दूरस्थ शिक्षा एवं रोजगार प्रदान करने के लिए श्रृव्य-दृष्य एवं उपग्रह आधारित उपकरणों के माध्यम से सूचना व संचार प्रौद्योगिकी के प्रयोग को बढ़ावा देना भी इसमें सम्मिलित है। स्पष्ट है कि जनसंख्या के बढ़ते दबाव में दूरस्थ शिक्षा एक ऐसा विकल्प हो सकता है, जोकि हमारे देश की शिक्षा सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके। आंकडे़ भी बताते है कि दूरस्थ शिक्षा की भागीदारी निश्चित रूप से सराहनीय है परन्तु शिक्षा के स्तर व आपूर्ति तंत्र में सुधार की महती आवश्यकता है। क्योंकि गुणवत्ता सम्बन्धी चिन्ताएं आय के सापेक्ष गौण हो जाती है। दूर शिक्षा में गुणवत्ता संवर्द्धन हेतु सूचना प्रौद्योगिकी की भूमिका तय करने में भारी निवेश की आवश्यकता है क्योंकि महत्वपूर्ण आयोगों, शिक्षाविद्ों तथा सरकार ने भी प्रौद्योगिकी के प्रयोग पर बल दिया है।
        उच्चतर शिक्षा में मुक्त और दूरस्थ शिक्षा का मौजूदा आकार और हिस्सा महत्वपूर्ण है फिर भी जीवनपर्यन्त अधिगम की दृष्टि से यह अत्यन्त छोटा है। विभिन्न इलेक्ट्राॅनिक माध्यमों का शिक्षा शास्त्रीय प्रयोग अभी भी बहुत सीमित है। इसे विस्तृत करने की जरूरत है। यदि सूचना प्रौद्योगिकी के सशक्त माध्यम से जैसे-इण्टरनेट , इलेक्ट्राॅनिक मेल,
फैक्स व टेलीकोफ्रेसिंग का भरपूर प्रयोग किया जाय तो औपचारिक शिक्षा की अपेक्षा दूरस्थ शिक्षा पर व्यय भार भी कम होगा तथा शिक्षा की गम्भीर चुनौतियों का सामना करने में दूरस्थ शिक्षा निश्चित रूप से सक्षम होगी।
दूरस्थ शिक्षा को सफल व सार्वभौमिक बनाने हेतु निम्नांकित सुझाव प्रस्तुत हैं-
1.    शिक्षण प्रक्रिया में सूचना प्रौद्योगिकी का भरपूर प्रयोग किया जाय।
2.    तहनीकी माध्यमों से ही परीक्षा प्रक्रिया पर बल दिया जाय।
3.    जनसंख्या के बढ़ते दबाव को देखते हुए दूरस्थ शिक्षा में भारी निवेश की भी आवश्यकता है।
4.    टेलीकांन्फ्रेसिंग का प्रयोग करके शिक्षक-छात्र सम्पर्क पर बल दिया जाय, क्योंकि दूरस्थ शिक्षा का यह बिन्दु सर्वाधिक विचारणीय है।
5.    दूरस्थ शिक्षा की गुणवत्ता को बनाए रखने में श्रृव्य-दृश्य सामग्री को प्रत्येक अधिगमकर्ता के लिए उपलब्ध कराया जाय।
6.    उपग्रह सम्प्रेषण द्वारा भी शिक्षण प्रक्रिया को सुलभ बनाया जाय।
7.    छात्र-छात्राओं की समस्याओं का इलेक्ट्राॅनिक माध्यमों द्वारा दु्रतगामी समाधान भी किया जाय, जिससे दूरस्थ शिक्षा औपचारिक शिक्षा के सामने गुणवत्ता की कसौटी पर खरी उतरें।
8.    दूरस्थ शिक्षा को ’’सूचना प्रौद्योगिकी क्रान्ति’’ द्वारा ’’ज्ञान का विस्फोट’’ जैसी संकल्पना को साकार किया जाय।


गिजुभाई .. बालकों का युग


            गिजुभाई ..  बालकों का युग
                    गिजुभाई बालकों के हृदय की गहराइयों को माप सकने वाले भारतीय शिक्षाविद् थे। तत्कालीन समय में परम्परा और रुढि़ग्रस्त भारतीय समाज में बालक की महिमा को प्रतिष्ठिता करने वाले वे पहले व्यक्ति थे। उनका मानना था कि बालक को प्रेम करने की क्षमता अर्जित करने पर ही हम सुखी और समृद्ध समाज की कल्पना कर सकते हैं। नये समाज की कल्पना का यह सूत्र हमें आज भी उद्धेलित करता है-
‘‘नागों की पूजा का युग बीत चुका है।
प्रेतों की पूजा का युग बीत चुका है।
पत्थरो की पूजा का युग बीत चुका है।
              मानवों की पूजा का युग बीत चुका है। 
अब तो बालकों की पूजा का युग बीत चुका है।
बालकों की सेवा ही उनकी पूजा है।
नये युग का निर्माण कौन करेगा ?
जनजीवन के प्रवाह को कौन अस्खलित बनाये रखेगा ?
आने वाले युग का स्वामी कौन होगा ?
                             बेशक बालक ही।

गिजुभाई का बालदर्शन


गिजुभाई का बालदर्शन

गिजुभाई का बालदर्शन

गिजुभाई का बालदर्शन
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Wednesday, November 14, 2012

गिजुभाई


गिजुभाई जन्मदिवस


     15 नवम्बर 1885
गिजुभाई के जन्मदिवस पर सभी बालस्नेही शिक्षकों, अभिभावकों को    हार्दिक शुभकामनाएं

प्रसिद्ध बालशिक्षाशास्त्री, बालशिक्षा व बालअधिकारों के लिए सतत संघर्ष करने वाले गिजुभाई को प्राथमिक शिक्षा के प्रथम प्रयोग पुरुष, भविष्य की पीढ़ी के निर्माता आदि के रुप में जाना जाता है। साथ ही साथ उनके बालक के प्रति वात्सल्य पूर्ण विचारों एवं गाँधी जी के दर्शन को शिक्षा में समावेशित करने के कारण उन्हे मूंछो वाली माँ तथा बालकों के गाँधी कहकर भी पुकारा जाता है।

गिजुभाई : स्वच्छता एवं स्वास्थ्य

  गिजुभाई :  स्वच्छता एवं  स्वास्थ्य        गिजुभाई :  स्वच्छता एवं  स्वास्थ्य                                                                                               
       

          बच्चे किसी भी राष्ट्र की अमूल्य निधि माने जाते हैं। यही बच्चे देश का भविष्य भी होते हैं। लेकिन देश के भविष्य को गढ़ने वाले बच्चे कहीं कुपोषण का शिकार हो रहे हैं, तो कहीं फूलों के समान कोमल शरीर को घरों और विद्यालयों के अस्वच्छ वातावरण में रहना पड़ता है। फलस्वरूप खेलने, कूदने और पढ़ने की उम्र में इन्हें रोगों से जूझना पड़ता है जो कि बाल मस्तिष्क पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। अशिक्षित परिवारों में बच्चों के प्रति बरती जा रही लापरवाही बच्चों के स्वास्थ्य पर बुरा असर डालती है। प्रसिद्ध शिक्षाशात्री हरबर्ट स्पेन्सर ने कहा है- ‘‘किसी राष्ट्र का स्वास्थ्य उसकी संपदा से ज्यादा महत्वपूर्ण है।‘‘ स्वास्थ्य बच्चे के समग्र विकास का सूचक होता है। यह बालक की स्कूल में उपस्थिति, नामांकन और पढ़ाई पूरी करने की क्षमता को प्रभावित करता है। बालक का अपना स्वभाव, खानपान, शारीरिक, मानसिक और सामाजिक स्वास्थ्य का अभाव उसे ऐसे रोगों की ओर ढकेल देता है। जो प्रायः विद्यार्थी जीवन में नहीं होने चाहिए। आज छोटे-छोटे बच्चों में तनाव, अवसाद, नेत्ररोग, कुपोषण, मोटापा आदि रोगों का होना एक गहन चिंता का विषय बनता जा रहा है। आज शिक्षाविद् इस बात पर बल दे रहे हैं कि बालक को शारीरिक रूप से सबल तथा मानसिक रूप से स्वस्थ बनाने की आवश्यकता है। अगर बालक स्वस्थ है एवं उसके स्वभाव के अनुरूप रूचिपूर्ण, गुणवत्ता आधारित शिक्षा उसे मिल रही है तो वह निश्चित ही शनैः शनैः प्रगति के पथ पर अग्रसर होगा। रूचि व आनन्द के साथ सीखना और कामयाबी विद्यार्थी जीवन का एक सच है। इस सच  की प्राप्ति में स्वस्थ विद्यार्थी एक आवश्यक मूलमंत्र है। एन0 सी0 ई0 आर0 टी0 का अध्यापक शिक्षा एवं विस्तार विभाग बालकों के उत्तम स्वास्थ्य हेतु निरंतर प्रयासरत है। इस हेतु शारीरिक शिक्षा पर बल तथा अध्यापकों के प्रशिक्षण में स्वच्छता एवं स्वास्थ्य जैसे विषय शामिल किए गए हैं। इस संबंध में राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 में कहा गया है- ‘‘स्वास्थ्य और शारीरिक शिक्षा को अन्य विषयों के समान दर्जा दिए जाने की जरूरत है।‐‐‐इस क्षेत्र में शिक्षक की तैयारी योजनाबद्ध हो और संयुक्त प्रयास किए जाएं। इसके विषय क्षेत्रों, जिसमें स्वास्थ्य शिक्षा, शारीरिक शिक्षा और योग आते हैं, को उपयुक्त ढंग से प्राथमिक और माध्यमिक स्तर के सेवा पूर्व शिक्षक प्रशिक्षण  पाठ्यक्रमों से जोड़ा जाए। वर्तमान शारीरिक शिक्षा प्रशिक्षण संस्थानों की पर्याप्त समीक्षा की जाए और उसका उपयोग  किया जाए। इसी प्रकार स्कूल मे योग की शिक्षा के लिए उचित  पाठ्यक्रम और शिक्षक प्रशिक्षण की पद्धति अपनाई जाए।  यह सुनिश्चित करना भी आवश्यक है कि इन पहलुओं को राष्ट्रीय सेवा योजना, स्काउट एवं गाइड और एनसीसी से जोड़ा जाए।’’
        महान दार्शनिक अरस्तू का कथन है- ‘‘स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है।’’ आज से लगभग 100 वर्ष पूर्व गिजुभाई ने भी बालक की उचित शिक्षा हेतु उनकी स्वच्छता और स्वास्थ्य को महत्वपूर्ण व आवश्यक माना था। उनका मानना  है कि स्वच्छ और स्वस्थ बालक का विकास सहज और स्वाभाविक ढंग से होता है। बालक के उचित स्वास्थ्य के लिए वे विद्यालय, शिक्षक तथा माता-पिता तीनों की सकारात्मक भूमिका की आवश्यकता महसूस करते हैं।
         गिजुभाई स्वस्थ बालक के निर्माण हेतु विद्यालय की स्वच्छता को आवश्यक मानते हैं। वे गन्दगी से पटे विद्यालयों को देखकर अत्यंत दुखी हो जाते हैं। उन्होने तत्कालीन प्राथमिक विद्यालयों का निरीक्षण किया और पाया कि किसी विद्यालय में पूरा आंगन कबूतरों की बीट से सड़ा हुआ था और उन्ही पर बालक चल रहे थे या बैठे थे। एक अन्य विद्यालय में एक अंधेरी सीलन भरी कोठरी थी। विद्यालय में हवा और रोशनी का पूर्ण अभाव था। उन्होने विद्यालयों की दयनीय स्थिति को देखकर कहा- ‘‘ऐसी गंदी, हवा और रोशनी से रहित शालाएं बालकों के लिए जीवित नरक है; उन्हे पहले ही झटके में रोग का शिकार बनाने वाली भयंकर रोग-शालाएं है।’’
          गिजुभाई गंदगी को राष्ट्रªªीय कलंक मानकर उसके विरूद्ध लड़ाई छेड़ने का आह्नान करते हैं- ‘‘आजकल हमारे देश में गंदगी का बोलबाला है। गंदगी हमारा एक राष्ट्रªªीय कलंक है। जब तक इसका साम्राज्य है, हमारी दुर्दशा का अंत नहीं होगा। हमें अपनी गंदगी दूर करने के लिए नियमानुसार लड़ाई छेड़नी पड़ेगी।’’ गिजुभाई की मान्यता है कि छात्रों को पहला पाठ साफ रहने का ही सिखाना चाहिए। उनके विचार से- ‘‘मैले-कुचैले और बेढंगे लड़कों की पहली पढ़ाई और क्या हो सकती है।‐‐‐ जब तक हमारा कमरा भली-भांति साफ नहीं होता, हम कमरे में दूसरा काम नहीं कर सकते।’’
        गिजुभाई जानते थे कि विद्यालय बच्चों के लिए रोचक और मनभावन तभी बन सकता है जबकि वह साफ-सुथरा और सौंदर्य की किरणों से आलोकित हो। अतः गिजुभाई शाला की सफाई के लिए व्यापक आन्दोलन चलाने का संकल्प लेते हैं- ‘‘आखिर मै तो पाठशाला के अन्दर जितनी कोशिशें हो सकेगी, करूँगा। बालकों में वैसी आदतें पैदा करूँगा। यही नहीं, फुर्सत मिलने पर इस संबंध सार्वजनिक रूप से आंदोलन भी करूँँगा। सच तो यह है कि लोग कितने ही बेपरवाह क्यों न हों, इसमें शक नहीं कि हमारे विद्यालयों का यह गंदा वातावरण हजारों रोगों का घर है। इसको हमें  मिटाना पड़ेगा।’’
        गिजुभाई के अनुसार, विद्यालय के अंदर भले ही आकर्षक चित्र अथवा शिक्षण उपकरण कम मात्रा में ही हों, लेकिन विद्यालय का वातावरण पूर्णतया स्वच्छ होना चाहिए। वे कहते है- ‘‘अगर ये विद्यालय आज स्वच्छ होंगे तो कल इनमें से पढ़कर निकलने वाले बालक शहरों और समाज को स्वच्छ रखेंगे। अगर आज की शालाए रोगाणुओं को जन्म देने का स्थान नहीं बनेगी तो आने वाले कल का समाज रोगमुक्त होगा।’’ गिजुभाई बालक के उत्तम स्वास्थ्य हेतु शिक्षकों की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते हैं। वे शिक्षकों से बालकों के माता-पिता को स्वच्छता के प्रति जागरूक करने की बात कहते हैं- ‘‘ माता-पिता अपने बालकों को बाल्यावस्था में तुच्छ मानकर गंदे, अस्वच्छ, बिखरे बाल, सड़ी टोपी और बढ़े नाखून, बहती नाक और मैले-कुचैले ही विद्यालय में भेज देते हैं। हम इसे हर्गिज बरदाश्त न करें। ऐसे बालकों को हम माता-पिता के घर वापिस लौटा देंगे और माता-पिता के विरूद्ध लड़ाई ठान लेंगे। यह लड़ाई हमारे स्वार्थ की नहीं, सिर्फ माता-पिता के भले की है। इससे माता-पिता को समझना ही पड़ेगा और उनकी लापरवाही में कमी आएगी।’’
        गिजुभाई बालक के अंगों की स्वच्छता के लिए बालकों का ध्यान विभिन्न अंगों की सफाई की ओर आकृष्ट करने पर बल देते हैं और धीरे-धीरे उनकी सफाई की आदतें डालने के लिए कहते हैं- ‘‘कपड़ों की स्वच्छता आवश्यक है पर अधिकांशतः वह बाहरी स्वच्छता ही कही जाएगी।  धीरे-धीरे हम बालक का ध्यान नख, कान तथा दांतो की सफाई की ओर खींचते रहें। हमें यह बताना चाहिए कि हाथ वगैरह साफ-सुथरे कैसे रखें। बार-बार वे ऐसा करते रहें, ऐसा प्रयत्न हमें करते रहना चाहिए।हमे उनमे ऐसी आदत डालनी होगी कि वे स्वच्छ रहे बिना रह ही न सकें और इसके लिए घर में साधन-सामग्री रखें- उदाहरण के लिए ट्वाल, साबुन, पावदान,कांच, कंघा वगैरह। ये उपकरण अपने आप में बहुत स्वच्छ हों और स्वच्छता के कारण ही आकर्षक हों। पेशाब करने या शौच जाने की जगहें भी तय होनी चाहिए और इस संबंध में बालकों की अच्छी आदतें डालने का हमें आग्रह रखना चाहिए। जूते खोलने, कचरा डालने या कागज फेंकने की बुरी आदतों को भी व्यवस्थित करना चाहिए। हाथ और नाक की स्वच्छता को हमे बढ़ाना होगा जिससे कि बालक नाक या मुँँह में उंगली न डाले और जहां-तहां न थूके।’’         
           विभिन्न शिक्षाशास्त्रियों ने बालक के स्वास्थ्य और शाला की स्वच्छता पर विचार व्यक्त किए है। लेकिन गिजुभाई ने बालक के साथ-साथ शिक्षक और माता-पिता के स्वास्थ्य रक्षण पर भी ध्यान केन्द्रित किया है। गिजुभाई का मानना है कि बालक अनुकरण से सीखता है। यदि शिक्षक और माता-पिता द्वारा अपने स्वास्थ्य और स्वच्छता का ध्यान रखा जाता है तो बालक भी उनका अवलोकन करके स्वच्छ रहने का प्रयास करेगा।
          गिजुभाई ने शिक्षक के स्वास्थ्य की महत्ता के बारे में लिखा है- ‘‘शिक्षक शाला का आधार-स्तम्भ है। उसी पर शाला की सुदृढ़ता व स्थिरता निर्भर करती है। आधार-स्तम्भ जितना सुदृढ़ और स्वस्थ होगा, उतनी ही शाला की दशा स्वस्थ होगी।’’ उनके अनुसार, एक स्वस्थ सुदृढ़ मनःस्थिति वाला शिक्षक अपने आप में चेतनायुक्त वातावरण होता है। जबकि वृद्ध और बीमार मानसिकता वाला शिक्षक निरूत्साह, थकान और बीमारी का वातावरण सृजित करता है। गिजुभाई के विचार से शारीरिक स्वच्छता का अर्थ है बालों, त्वचा, नाखून, कपड़े आदि साफ रखना। इसमें पैसों के बजाए परिश्रम की ज्यादा जरूरत रहती है। गिजुभाई शिक्षकों को स्वस्थ रहने के लिए प्रातः स्वच्छ हवा में घूमने के लिए जाने, व्यायाम करने, दंड-बैठक लगाने या सूर्य नमस्कार करने का सुझाव देते हैं। वे शिक्षकों को बताते हैं कि सीधा बैठना और लंबी सांस लेना, यह तंदुरूस्ती की कंुजी है।
          गिजुभाई शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ शिक्षक के मानसिक स्वास्थ्य को भी महत्वपूर्ण मानते हैं। वे कहते हैं- ‘‘ सशक्त शरीर को निर्मल मन  से दुगना सशक्त, सुंदर और गंधमय बनाने के लिए मन का स्वास्थ्य बड़े महत्व की चीज है।’’ उत्तम मानसिक स्वास्थ्य हेतु गिजुभाई शिक्षकों से निंदा रूपी रोग से मुक्त होने की सलाह देते हैं। वे कहते हैं कि निंदा से व्यक्ति के ज्ञानतंतु उत्तेजित होते हैं, साथ ही वे क्षीण और शोकग्रस्त बनते हैं और उनकी प्रतिध्वनि मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ती है। इसके अतिरिक्त मानसिक स्वास्थ्य के लिए शिक्षक को निर्भयता की उपासना करनी चाहिए। उच्च अधिकारियों से डरना, उनकी खुशामद करना- यह सब भयभीत मनःस्थिति का सूचक है। गिजुभाई शिक्षक के स्वास्थ्य के बारे में कहते हैं- ‘‘ जो शिक्षक प्रेम से पढ़ाता है, वह सर्वोत्तम मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य प्रदान करता है और स्वयं अर्जित करता है।’’ गिजुभाई का विचार है कि तन व मन की नियमितता और अनुशासन में स्वस्थ जीवन का मूल निहित है। इसके अलावा अपने स्वास्थ्य की चिंता करने वाले शिक्षक को संगीत प्रेमी होना चाहिए तथा उसे कला-दर्शन की इच्छा रखनी चाहिए। वे शिक्षकों को देश की मिल्कियत मानते हैं।उनका विचार है कि देश को शिक्षकों के शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य की जितनी रक्षा ेकरनी चाहिए, उतनी ही उन्हे स्वयं अपनी भी करनी चाहिए। वे शिक्षकों से कहते हैं कि याद रखें- ‘‘आर्थिक दशा चाहे अच्छी हो या न हो, परंतु शरीर को निरोग रखने के अपने कर्तव्य से आप कभी न चूकें। अगर शरीर व्यसनो से मुक्त है तो वह सर्वप्रथम निरोग है। ओछी वृत्ति तथा गंदे विचारों से अगर मन मुक्त है तो वह स्वस्थ है।’’
         शिक्षकों के साथ-साथ गिजुभाई माता-पिता के उत्तम स्वास्थ्य व स्वच्छता को भी आवश्यक मानते हैं। अगर माता-पिता सफाई पसंद होंगे, तो बालक भी उनका अवलोकन करके साफ-सफाई को आदत के रूप में ग्रहण करेंगे। गिजुभाई का मानना है कि शारीरिक रूप से स्वस्थ माता-पिता ही बालक की उचित देखभाल कर सकते हैं। वे कहते हैं- ‘‘शारीरिक स्वास्थ्य से सुखी माता-पिता ही अपने बालकों की अच्छी सार-संभाल कर सकेंगे, और खुद भी बालकों के सुख का आनन्द लूट सकेंगे। आज की अस्वस्थ और दुर्बल माताओ के लिए बालक भार रूप और दुःख रूप बन जाते है।’’ 
          इसके अतिरिक्त गिजुभाई ने छोटी वय के बच्चों के शारीरिक विकास पर भी ध्यान केंद्रित किया। उनका विचार था कि इन बच्चों के शारीरिक विकास के लिए जितना ध्यान दिया जाए, उतना कम है। वे प्राथमिक शाला में जाकर पढ़ने लगें, उससे पहले उनके शरीर पुष्ट व बलवान हो जाने चाहिए। इस हेतु गिजुभाई ने तीन से सात वर्ष की उम्र के बच्चों के शारीरिक विकास के लिए बाल क्रीड़ांगन का विचार रखा। जहाॅ पर बच्चों को अंगरक्षण तथा स्वच्छता हेतु हाथ-मुँँह धोना और कपड़े पहनना सिखाना, गंदे व फटे कपड़ों के प्रति अरूचि उत्पन्न करना, बाल, आॅख, नाक, कान, दाँत आदि स्वच्छ रखना आदि सिखाया जाना चाहिए। इसके अलावा शारीरिक बल, स्फूर्ति तथा आनन्द की कसरतें एवं क्रीड़ाएं कराई जाए जैसे रेत का अखाड़ा जिसमें बालक दौड़े, कूदें लोटे और पड़े रहें। साथ ही बच्चों को सामाजिक जीवन के योग्य बनाने के लिए शिक्षाप्रद जानकारी दी जाए जैसे कैसे बैठें, किस तरह से बात करें, कचरा कहा डालें आदि।
         गिजुभाई ने स्वच्छ विद्यालय और बालक, शिक्षक एवं माता-पिता के उचित शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य के लिए केवल विचार ही प्रस्तुत नहीं किए, वरन् उनको अपने बालमंदिर व अध्यापन मंदिर के माध्यम से लागू भी किया। बालमंदिर के बारे में गिजुभाई लिखते हैं- ‘‘गाॅवो से आने वाले बालक यहां पर अन्य विद्यालयों वाली कठोरता, अंधकारपूर्ण वातावरण तथा गंदगी से मुक्त थे। उनके लिए सुंदर हाॅल था, ताजी हवा थी, खेलने को बगीचा था।’’ इसके अतिरिक्त बालमंदिर में शिक्षण में जीवन व्यवहार के कामों को भी पर्याप्त स्थान दिया गया था। जिसमे नाश्ता करना, परोसना, बर्तन साफ करना, आंगन व कमरा साफ करना, बगीचे में काम, हाथ-पाॅव धोना, कंघी करना, छोटे- छोटे कपड़े धोना, कपड़े पहनना और उतारना आदि कार्य बालमंदिर की शिक्षा के अंग थे। अध्यापन मन्दिर में प्रशिक्षण प्राप्त शिक्षकों के माध्यम से गिजुभाई की स्वच्छ विद्यालय की संकल्पना और  स्वस्थ बालक, स्वस्थ शिक्षक एवं स्वस्थ माता-पिता संबंधी बिचार सम्पूर्ण देश में फैल गए।
         गिजु भाई के स्वच्छता एवं स्वास्थ्य संबंधी विचार न केवल मनोविज्ञान के सिद्धान्तों पर खरे उतरतें हैं, वरन् बालकों में स्वच्छता एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी अच्छी आदतों का समावेश भी करते हैं।  आज भारत में शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर स्वास्थ्य शिक्षा, शारीरिक शिक्षा और योग को पाठ्यक्रम में शामिल करके बालकों की स्वच्छता एवं स्वास्थ्य रक्षण का महत्वपूर्ण कार्य किया जा रहा है जो कि गिजुभाई के विचारों की प्रासंगिकता को सिद्ध करता है। यदि इन विचारों का अनुशीलन करते हुए शिक्षा की व्यवस्था की जाए तो निश्चित रूप से स्वच्छ विद्यालय और स्वस्थ बालक की संकल्पना को साकार करने में सफलता मिलेगी जिससे न केवल शिक्षा का वर्तमान सुधरेगा, वरन् भविष्य भी सुधरेगा। ऐसे शारीरिक तथा मानसिक रूप से स्वस्थ एवं स्वच्छताप्रिय बालकों के द्वारा ही स्वस्थ, शिक्षित एवं सुदृढ़ भारत का निर्माण सम्भव हो सकेगा।