प्रकृति के प्रेमी गिजुभाई
गिजुभाई प्रकृति के अनन्य प्रेमी थे। वे प्रकृति और मनुष्य को भिन्न नहीं मानते थे क्योंकि दोनों ही ईश्वर की अनुपम कृतियाँ है। वे इस बात से दुखी रहते थे कि बालकों को अपने चारों तरफ का ज्ञान नहीं के बराबर है। उनकी दृष्टि में इसका कारण कक्षा-कक्ष में प्रकृति का कृत्रिम रुप से परिचय दिया जाना था।
वे कहते हैं-
‘‘खुशनुमा हवा में आंगन में लेट बालक को मौसम का मंद-मधुर अनुभव होता है। पलने में लेटे-लेटे ऊपर अधर आकाश को देखते-देखते बालक अनंत आकाश का दर्शन करता है। तभी तो वृक्षों के पत्तों की खड़खड़ाहट, पवन की सरसराहट या पक्षियों की चहचहाहट बालक के कान को आनंद देती है। कोमल धूप, झीनी-झीनी उषा-संध्या, गुलाबी ठंडक आदि प्रकृति के तमाम बल बालक का पोषण करते हैं। पंच तत्व द्वारा उत्पन्न यह देह पंच तत्वों से ही निरंतर पोषित होती है। तथा बढ़ती है। प्रकृति के प्रांगण में निवास करने वाले आदिवासी लोगों के बच्चों को यह लाभ प्रतिदिन स्वाभाविक रुप से मिलता है। शहर में यह लाभ मिलना बंद हो गया है। इसका बदला किताबों के पाठों से नही मिल सकता।’’
एक प्रकृति प्रेमी ही इस बात से व्यथित हो सकता है कि बालकों को प्रकृति का परिचय कृत्रिम रुप से प्रकृति से दूर रहकर किताबों द्वारा दिया जाता है। यह अनुचित है। प्रकृति का परिचय तो प्रत्यक्ष होना चाहिए। वे इस बारे में लिखते हैं- ‘‘जिस प्रकार प्रकृति स्वाभाविक है, उसी प्रकार इसका परिचय भी स्वाभाविक होना चाहिए। पिंजड़ों में बंद पक्षियों या पशुओं का अध्ययन प्रकृति का परिचय नहीं है। किताबों में खिंचे हुए आकाश के नक्शे प्रकृति के परिचायक नहीं हैं। बाड़े में पड़े पत्थरों की ढेरी के पहाड़ बनाकर तथा घर के मटके का पानी गिराकर उसकी बगल में बनाई गई नाली से पर्वत एवं नदी का परिचय के लिए बालक को और विद्यार्थियों को शहर के बंद कैदखाने से वैशाल धरती पर, दो हाथ पहुच जितनी दृष्टि मर्यादा में से नजर न पहुचे, जितनी दूर वाले क्षितिज के सामने, मिलों-कारखानों के शोरगुल से मधुर कंठ वाले पक्षियों के बीच, उकरड़ी पर बैठे गधों और पानी की परवाल खींचते पाड़ों से छलांग मारकर चैकड़ी भरते हरिणों के पास, नाबदान और गंदगी की ढेरी के पास से खिलखिलाती वहती नदियों और गगन चुम्बी पहाड़ों-पहाड़ियों के पास ले जाना चाहिए। वहा उन्हे प्रकृति के सौदर्य का पान करने के लिए खुला छोड़ देना चाहिए।’’इसी संदर्भ में गिजुभाई प्रकृति से प्राप्त ज्ञान के बारे मे कहते हैं- ‘‘प्रकृति का ज्ञान जिस स्थान पर पड़ा है, वहा जाने वालों को वह खुले रुप में बिना मूल्य उपलब्ध होता है, जबकि किताबों में भरा ज्ञान बंद किताब की कीमत देने पर ही उपलब्ध है और वह भी तोता रटंत वाला ज्ञान है।’’
वे कहते हैं-
‘‘खुशनुमा हवा में आंगन में लेट बालक को मौसम का मंद-मधुर अनुभव होता है। पलने में लेटे-लेटे ऊपर अधर आकाश को देखते-देखते बालक अनंत आकाश का दर्शन करता है। तभी तो वृक्षों के पत्तों की खड़खड़ाहट, पवन की सरसराहट या पक्षियों की चहचहाहट बालक के कान को आनंद देती है। कोमल धूप, झीनी-झीनी उषा-संध्या, गुलाबी ठंडक आदि प्रकृति के तमाम बल बालक का पोषण करते हैं। पंच तत्व द्वारा उत्पन्न यह देह पंच तत्वों से ही निरंतर पोषित होती है। तथा बढ़ती है। प्रकृति के प्रांगण में निवास करने वाले आदिवासी लोगों के बच्चों को यह लाभ प्रतिदिन स्वाभाविक रुप से मिलता है। शहर में यह लाभ मिलना बंद हो गया है। इसका बदला किताबों के पाठों से नही मिल सकता।’’
एक प्रकृति प्रेमी ही इस बात से व्यथित हो सकता है कि बालकों को प्रकृति का परिचय कृत्रिम रुप से प्रकृति से दूर रहकर किताबों द्वारा दिया जाता है। यह अनुचित है। प्रकृति का परिचय तो प्रत्यक्ष होना चाहिए। वे इस बारे में लिखते हैं- ‘‘जिस प्रकार प्रकृति स्वाभाविक है, उसी प्रकार इसका परिचय भी स्वाभाविक होना चाहिए। पिंजड़ों में बंद पक्षियों या पशुओं का अध्ययन प्रकृति का परिचय नहीं है। किताबों में खिंचे हुए आकाश के नक्शे प्रकृति के परिचायक नहीं हैं। बाड़े में पड़े पत्थरों की ढेरी के पहाड़ बनाकर तथा घर के मटके का पानी गिराकर उसकी बगल में बनाई गई नाली से पर्वत एवं नदी का परिचय के लिए बालक को और विद्यार्थियों को शहर के बंद कैदखाने से वैशाल धरती पर, दो हाथ पहुच जितनी दृष्टि मर्यादा में से नजर न पहुचे, जितनी दूर वाले क्षितिज के सामने, मिलों-कारखानों के शोरगुल से मधुर कंठ वाले पक्षियों के बीच, उकरड़ी पर बैठे गधों और पानी की परवाल खींचते पाड़ों से छलांग मारकर चैकड़ी भरते हरिणों के पास, नाबदान और गंदगी की ढेरी के पास से खिलखिलाती वहती नदियों और गगन चुम्बी पहाड़ों-पहाड़ियों के पास ले जाना चाहिए। वहा उन्हे प्रकृति के सौदर्य का पान करने के लिए खुला छोड़ देना चाहिए।’’इसी संदर्भ में गिजुभाई प्रकृति से प्राप्त ज्ञान के बारे मे कहते हैं- ‘‘प्रकृति का ज्ञान जिस स्थान पर पड़ा है, वहा जाने वालों को वह खुले रुप में बिना मूल्य उपलब्ध होता है, जबकि किताबों में भरा ज्ञान बंद किताब की कीमत देने पर ही उपलब्ध है और वह भी तोता रटंत वाला ज्ञान है।’’
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