Thursday, November 15, 2012

बालकों के गाँधी

                                     बालकों के गाँधी    
 गांधी जी का दर्शन सत्य, अहिंसा, प्रेम, करुणा, मानव-मानव के बीच पारस्पारिक सम्मान, दीनदलितों के उद्धार, मानवीय एकता एवं विश्वबन्धुत्व पर आधारित था। महात्मा गाँधी ने जिस अहिंसक क्रान्ति के द्वारा देश की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष किया। जो काम देश के स्तर पर गाँधी जी ने किया, बाल शिक्षा के क्षेत्र में वही काम 1920 से 1939 तक गिजुभाई ने कर दिखाया। बालकों की स्वतन्त्रता के लिए, स्वावलम्बन के लिए, उनके सम्मान और स्वाभिमान की रक्षा के लिए वे अपनी पूरी शक्ति और भक्ति के साथ निरन्तर जूझते रहे।
     श्री किशोरीलाल मशरुवाला ने ‘स्मरणांजलि’ में लिखा है- ‘‘ इनकी विशिष्ट शाला मांटेसरी की वजह से महत्वपूर्ण नहीं थी, वरन् बालकों के प्रति व्यवहार की जो नयी दृष्टि इन्होने ग्रहण की थी, उसकी वजह से महत्वपूर्ण थी। यह दृष्टि उन्होने बालसमुदाय के प्रति विकसित की तथा गुजरात के माता-पिता व शिक्षकों को नूतन संस्कार प्रदान किए। गाँधी  जी ने अपने आश्रम में अहिंसा की जिस दृष्टि पर बल दिया था, उसे गिजुभाई ने माता-पिता एवं शिक्षकों का स्वाभाविक वात्सल्य जगाकर, शिक्षाशास्त्र से उसे प्रमाणिक बनाया। बालमन्दिर की कला से अंकृत करके लोकप्रिय बनाया। अहिंसक संस्कृति का आधार निर्मित करने मे गिजुभाई ने इस तरह बहुत बड़ा योगदान दिया है। इसलिए गिजुभाई के मित्र तथा सुविख्यात गाँधीवादी शिक्षाविद् श्री जुगतराम दवे ने  उन्हे ‘बालको के गाँधी’ नाम से विभूषित  किया।
     गिजुभाई की शैक्षिक विचारधारा के मूल में गाँधी जी का जीवन दर्शन विद्यमान है। स्वातन्त्रय, स्वावलम्बन, प्रेम करुणा, मानव-सम्मान, राष्ट्रीयता, दलितोद्वार (बालक का उद्धार) दीन वत्सलता, मानव-सेवा ये सब गाँधी जी के दर्शन के ही आधार तत्व हैं।
गाँधी जी के विचारों को गिजुभाई ने व्यवहार में उतारा था। इसका प्रमाण अनेक घटनाओं से मिल जाता है बालमन्दिर में शिक्षक वर्ग को सम्बोधित करते हुए कहा था- ‘‘दबाबों से राज्य नही दबे रहते, तो बालमन्दिर के बालक भला कैसे दबेंगे। बालमन्दिर से दण्ड को मिटाकर ही दुनिया से हिंसा नहीं रहेगी, तो भला शाला में क्यों रहें ? क्यों रहनी चाहिए ? हमारे मन में बच्चे पर किसी प्रकार से अंकुश लगाने की जब इच्छा जागे तो मात्र यही सोचना पर्याप्त होगा कि वह कितना निर्बल है और हम कितने बलवान हैं। निर्बल को सजा देना हिंसा से भी बदतर कार्य है। बालक को दण्ड देकर हम आगामी पीढ़ी की जड़ों में हिंसा का जल ही सीचेंगे।’’





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