अहिंसा के पुजारी : गिजुभाई
गिजुभाई अहिंसा के पुजारी थे। अनका विचार था कि बालक में जन्म से अक्रामक प्रवृत्ति विद्यमान नहीं रहती है। आक्रामक प्रवृत्ति कुशिक्षा का परिणाम है और उचित शिक्षा के द्वारा इस प्रवृत्ति को विकसित होने से रोका जा सकता है। इसके लिए उन्होने शालाओं में अहिंसा का वातावरण निर्मित करने पर बल दिया। उन्होने कहा- ‘‘हमें बालमन्दिर से दंड और सजा को मिटा कर ही संसार से हिंसा, त्रास एवं अत्याचारों को स्थायी रूप से समाप्त करना है।'' उन्हे शिक्षा में नहीं वरन् शिक्षा देने के ढंग मे दोष दिखाई दिया। अतः वे कहते है कि ‘‘तमाचा मारकर पढ़ने का काम तो दूसरे सब कर ही रहे है और उसका फल मैं तो यह देख रहा हू कि लड़के बेहद असभ्य,अशांत और अव्यवस्थित हैं। गिजुभाई ने अपने बालमन्दिर में दण्ड रहित व सजाविहीन वातावरण निर्मित किया क्योकि उनका मानना था कि बालक निर्बल है। निर्बल को दंड देना हिंसा से भी बदतर है। बालक को सजा देकर हम आने वाली पीढ़ी के मूल में हिंसा का जल ही सीचेंगे। इस प्रकार शिक्षा के माध्यम से एक अहिंसावादी बालक, व अहिंसक समाज की स्थापना करने का प्रयत्न किया।
गिजुभाई जानते थे कि संहार वृत्ति का विकल्प सृजन शक्ति है और आक्रामकता का समाधान अंतःकरण की तृप्ति है। यदि बालकों की शिक्षा में सृजनात्मक प्रवृत्तियों को शामिल किया जाए तथा उन्हें स्वयं-स्फुरित काम करने दे तो उनका अंतः तृप्ति का मार्ग खुलेगा दूसरों को दखल देने अथवा उनसे ईष्र्या करने, उन्हे नीचे गिराकर खुद बड़ा बनने का दुर्गुण उनके स्वभाव में नही आ पायेगा। इसलिए गिजुभाई ने बालमन्दिर में स्व-स्फुरित प्रवृत्तियों व सृजनात्मक कार्यों का शिक्षा मे समावेश किया था।
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