Saturday, November 17, 2012

गिजुभाई और बालक की स्वाधीनता



गिजुभाई और बालक की स्वाधीनता

          गिजुभाई बालकों की स्वाधीनता के समर्थक थे। उन्होने एक उदघोषणा में कहा था- ‘‘बालक को स्वतंत्र किए बिना स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं। ‘‘ संसार के सभी विकसित और प्रवुद्ध देश बालक की आजादी के लिए प्रयासरत हैं। बीसवीं शताब्दी का यह महापुरुष एक महान दूर दृष्टा था। जब किसी बालक पर अत्याचार होते देखता, किसी बालक को कोई उदण्ड या शैतान कहकर पुकारता, खेल पर रोक लगाता अथवा बालक के प्रति कोई अन्याय करता, तो गिजुभाई उस पर वरस पड़ते। उन्होने बालक को गहराई से समझा था, उसका अध्ययन किया था और निकट से देखकर वे उसके समग्र स्वरुप को समाज में उजागर करना चाहते थे। समाज में बालक के प्रति जो मिथ्या धारणाएं व्याप्त थी, गिजुभाई उन्हे दूर करना चाहते थे।
     उनकी इच्छा थी कि बालक स्वाधीन हो। घर में बालक को आजादी मिले। बालक की अन्तर्निहित शक्तियों और क्षमता को स्वतंत्रतापूर्वक विकसित होने दिया जाए। इसके लिए उन्होने माता-पिता, के लिए बहुत कुछ लिखा, गोष्ठियां की, उपदेश दिया। शिक्षा के क्षेत्र में बालमन्दिर की शुरुआत की, जिसमें देश के उन समर्पित कार्यकर्ताओं को जुटाया गया, जो उनके दर्शन से अवगत थे। उनके बालमन्दिर में बालक को पूरी स्वंतंत्रता थी। न पाठ्यक्रम का भारी बोझ, न समय सारणी का दबाब। पूर्ण शान्ति के साथ सभी बच्चे अपने अपने कार्य में लगे रहते। शोरगुल का कहीं नाम न था। लड़ने-झगड़ने का अवसर न था। यह बालमन्दिर स्वतंत्रता और स्फूर्ति के आदर्श स्वरुप थे। बालमन्दिर में सभी बच्चों को अपनी दिल की बात कहने की दूर थी जमकर वाद-विवाद होता, चर्चा होती, सभी की बाते वे सुनते और सद्भावना पूर्वक उनका समाधान करते।
     बालक के स्वतंत्र विकास में उनकी आस्था थी। उनका कथन था- ‘‘देश को आजादी मिल भी जाए किन्तु यदि बालक स्वतंत्र न हुआ, उसका विकास स्वतंत्र वातावरण में न हुआ।, तो आजादी अधूरी रहेगी।’’ गिजुभाई की दृष्टि में बालक मानवता का सच्चा पोषक और संरक्षक है। अतः उसको अपने विकास की पूरी स्वतंत्रता मिलनी ही चाहिए। इसी को साकार रुप देने के लिए उन्होने बालशिक्षा मन्दिरों की स्थापना की। सत्य तो यह है कि गिजुभाई बालक की स्वतंत्रता के लिए ही और उसी के लिए मरे।

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