गिजुभाई का कोमल हृदय
गिजुभाई के हृदय में बालकों के प्रति कोमलता भी अपरिमित थी। इस कथन के प्रमाण स्वरुप उन्ही का कथन प्रस्तुत है- ‘‘बालकों के साथ काम करना जितना प्राणदायी है उतना ही कठिन भी। बाल स्वभाव का ज्ञान, उनके प्रति हृदय का प्रेम संवेदन व सम्मान, उनके व्यक्तित्व के प्रति श्रद्धा तथा उन्हें अपने हृदय का प्रेम प्रदान करने से असंभव काम भी संभव हो जाते है। बालकों के प्रति की गयी भूल पर हमारा मन दुखी नही होता, तब तक हम न तो बाल-शिक्षण के योग्य हो सकते, न ही बालकों का भला कर सकते है। बालकों के सुखी होने का सुख मुझे याद है बल्कि जब वे दुखी होते है तो मन को व्यथित करने वाली दर्दनाक स्थिति अधिक याद रहती है। औरों के निमित्त दुखी होना, यह कदाचित मनुष्य का एक परम सुख हो सकता है।’
‘मुझे उनके सवाल याद है। जब तक कोई बालक योग्य नहीं हो जाता, तब तक मैं उसे पेंसिल नहीं देता। न देने का अर्थ नहीं देना है। पर इसके बावजूद बालको का जी दुखाकर मैं मना भी नहीं कर पाता। और यदि बालक सामने आकर लौट गया हो, मुझ पर से अपनी प्यार भरी दृष्टि वापिस खींच ली हो, तो मेरे दिल में तीर की सी वेदना होने लगती। मैं उसे किस तरह से प्रसन्न करुं; पेंसिल तो नहीं ही दी जा सकती। देने से उसे क्या लाभ मिलने का ? माई-बाप कहकर मनाऊं नहीं। न ही लाड़ लड़ाऊं। किसी और तरीके से प्रशंसा भी करुं, क्योंकि वह सब तो पुरस्कार-प्रशंसा वाला तरीका है। बालक को संकुचित-सा देखंू तो क्या मेरा मन दुखी न हो ?
‘आखिर शाम को छुट्टी हो जाती है। बच्चा बिना बोले घर चला जाता है तो मुझसे रहा नहीं जाता, न सहा जाता है। किसी बहाने मैं बच्चे के घर पर चला जाता हूं। उससे मिलता हूं, उससे बातें करता हूं। उसके मन को जब अपने से जुड़ा हुआ अनुभव करता हूं तभी मुझको प्रसन्नता होती है। और हल्का मन लेकर घर लौटता हूं। ऐसा स्वभाव है मेरा। बालकों की पसंद-नापसंद के विपरीत निर्णय लेता हूँ, तब भी वे मुझे चाहते हैं। इसका कारण मेरे मन का दब्बूपन नहीं, वरन् हृदय की आर्दता है।’
‘पर यह तो मेरा स्पष्टीकरण है। मेरा, यानी एक अदने से बाल-शिक्षक का, एक अनुभवी का। इससे किसी को जानने योग्य मिलेगा, इसी दृष्टि से लिखा है।’’
गिजुभाई बालशिक्षा, बालस्वतंत्रता, बाल सम्मान बाल कल्याण, हिंसा से मुक्ति आदि के लिए जीवन पर्यन्त संघर्ष करते रहे। इस प्रकार गिजुभाई ने शिक्षा की नई दृष्टि के द्वारा बालशिक्षा की एक नवीन लहर खड़ी करने का प्रयास किया। इस हेतु उन्होने सहकर्मियों, शिक्षकों माता-पिता ,बालकों तथा समाज सभी को जागृत करके उनका ध्यान नवीन शिक्षण पद्धति तथा बालक की ओर उन्मुख किया। इसलिए, प्रसिद्ध साहित्यकार काका कालेलकर ने उन्हे श्रद्धांजलि देते हुए कहा था-
‘‘इस युग में गिजुभाई तथा ताराबेन मोडक ने जो काम किए हैं, उन पर कोई भी समाज गर्व का अनुभव कर सकता है। बालकों के उद्धारकर्ता गिजुभाई ने असंख्य माता-पिता को बालस्वातंत्र्य, बालभक्ति तथा बालपूजा की दीक्षा प्रदान की थी। बालभक्ति का पागलपन लगा देने वाले इन दोनो मिशनरियों ने मध्यम वर्ग का तमाम स्वरुप ही बदल डाला, तथा गुजरात भर में असंख्य बालमंदिरों का बीजारोपण कर दिया है।’’
‘मुझे उनके सवाल याद है। जब तक कोई बालक योग्य नहीं हो जाता, तब तक मैं उसे पेंसिल नहीं देता। न देने का अर्थ नहीं देना है। पर इसके बावजूद बालको का जी दुखाकर मैं मना भी नहीं कर पाता। और यदि बालक सामने आकर लौट गया हो, मुझ पर से अपनी प्यार भरी दृष्टि वापिस खींच ली हो, तो मेरे दिल में तीर की सी वेदना होने लगती। मैं उसे किस तरह से प्रसन्न करुं; पेंसिल तो नहीं ही दी जा सकती। देने से उसे क्या लाभ मिलने का ? माई-बाप कहकर मनाऊं नहीं। न ही लाड़ लड़ाऊं। किसी और तरीके से प्रशंसा भी करुं, क्योंकि वह सब तो पुरस्कार-प्रशंसा वाला तरीका है। बालक को संकुचित-सा देखंू तो क्या मेरा मन दुखी न हो ?
‘आखिर शाम को छुट्टी हो जाती है। बच्चा बिना बोले घर चला जाता है तो मुझसे रहा नहीं जाता, न सहा जाता है। किसी बहाने मैं बच्चे के घर पर चला जाता हूं। उससे मिलता हूं, उससे बातें करता हूं। उसके मन को जब अपने से जुड़ा हुआ अनुभव करता हूं तभी मुझको प्रसन्नता होती है। और हल्का मन लेकर घर लौटता हूं। ऐसा स्वभाव है मेरा। बालकों की पसंद-नापसंद के विपरीत निर्णय लेता हूँ, तब भी वे मुझे चाहते हैं। इसका कारण मेरे मन का दब्बूपन नहीं, वरन् हृदय की आर्दता है।’
‘पर यह तो मेरा स्पष्टीकरण है। मेरा, यानी एक अदने से बाल-शिक्षक का, एक अनुभवी का। इससे किसी को जानने योग्य मिलेगा, इसी दृष्टि से लिखा है।’’
गिजुभाई बालशिक्षा, बालस्वतंत्रता, बाल सम्मान बाल कल्याण, हिंसा से मुक्ति आदि के लिए जीवन पर्यन्त संघर्ष करते रहे। इस प्रकार गिजुभाई ने शिक्षा की नई दृष्टि के द्वारा बालशिक्षा की एक नवीन लहर खड़ी करने का प्रयास किया। इस हेतु उन्होने सहकर्मियों, शिक्षकों माता-पिता ,बालकों तथा समाज सभी को जागृत करके उनका ध्यान नवीन शिक्षण पद्धति तथा बालक की ओर उन्मुख किया। इसलिए, प्रसिद्ध साहित्यकार काका कालेलकर ने उन्हे श्रद्धांजलि देते हुए कहा था-
‘‘इस युग में गिजुभाई तथा ताराबेन मोडक ने जो काम किए हैं, उन पर कोई भी समाज गर्व का अनुभव कर सकता है। बालकों के उद्धारकर्ता गिजुभाई ने असंख्य माता-पिता को बालस्वातंत्र्य, बालभक्ति तथा बालपूजा की दीक्षा प्रदान की थी। बालभक्ति का पागलपन लगा देने वाले इन दोनो मिशनरियों ने मध्यम वर्ग का तमाम स्वरुप ही बदल डाला, तथा गुजरात भर में असंख्य बालमंदिरों का बीजारोपण कर दिया है।’’
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